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भारत में महिलाओं के साथ संस्थानिक अन्याय हो रहा है, ज़िम्मेदार कौन

संवेदनहीनता किसी भी समाज की बेहतर अवस्था नहीं है, ख़ासतौर पर ऐसे माहौल में जब किसी की जान चली गई हो। पुरुष हो या महिला या फिर किसी अन्य समुदाय से संबंधित कोई व्यक्ति, सभी के लिए जीवन, सबसे महत्वपूर्ण बात है और इसे किसी भी हालत में संरक्षित रखना ही चाहिए। आगरा में टीसीएस कंपनी में रिक्रूटमेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत एक व्यक्ति ने फाँसी लगाकर जान दे दी। फाँसी लगाने से पहले उसने इसका वीडियो भी बनाया और अपनी मौत के लिए अपनी पत्नी को जिम्मेदार ठहराया। 
वीडियो के दौरान उसे यह कहते हुए सुना जा सकता है कि उसकी पत्नी शादी से पहले किसी और के साथ सेक्शुअल रिलेशन में थी, और इससे वह बहुत आहत है। मैं दावे के साथ तो नहीं कह सकती कि उसने नशा किया था या नहीं लेकिन उसकी बातों से और बोलने के तरीके से यह लग रहा था कि वह सामान्य अवस्था में नहीं था। मृतक मैनेजर ने अपने वीडियो में यह कहा कि ‘पुरुषों की कोई सुनवाई नहीं होती’, ‘लॉ शुड प्रोटेक्ट मेन’। जज साहब मर्दों की रक्षा कीजिए, वरना कोई भी नहीं बचेगा, फिर किस पर इल्जाम लगाओगे आदि।
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किसी भी व्यक्ति की मौत पीड़ा का विषय है, इस मौत को किसी भी हालत में रोका जाना चाहिए था। यह कोई भी नहीं बता सकता कि मृतक मैनेजर की पत्नी की क्या और कितनी गलती है। लेकिन जिस तरह इस घटना के बाद एक शोर शुरू हुआ है वह बहुत सतर्क करने वाला है, शोर यह है कि लोग चाहते हैं कि औरतों को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, कानून सिर्फ़ आदमियों के ही ख़िलाफ़ क्यों काम करता है, यह भी कहा जा रहा है कि कानून औरतों के पक्ष में झुका हुआ है। इस तरह की बातों से ऐसा लग रहा है जैसे अचानक से औरतें आदमियों के बनाये समाज में आदमियों से बेहतर और उच्च स्थिति में पहुँच गई हैं। ऐसा लग रहा है जैसे उनकी आर्थिक स्थिति और उससे जुड़ी हुई स्वतंत्रता क्रांतिकारी रूप से बेहतर हो गई हो।

मुझे लगता है कि ऐसा शोर उचित नहीं है। मुट्ठी भर मामलों को लेकर आदमी ‘शोषित’ होने का नृत्य नहीं कर सकते। मैं हजारों वर्षों के शोषण की दुहाई नहीं दूँगी लेकिन यह सवाल तो पूछना ही पड़ेगा कि आज़ादी मिलने के बाद, संविधान बनने के बाद, तथाकथित रूप से ‘क़ानून के शासन’ के स्थापित होने के बाद और मतदाता सूची में लगभग आधी लोकतांत्रिक शक्ति समेटे हुए देश की महिला आज किस स्थिति में है?

क्या कोई सोच भी सकता है कि यदि सती प्रथा जैसी अमानवीय परंपरा को कानून बनाकर ख़त्म नही किया गया होता तो पुरुषों का एक बड़ा हिस्सा महिलाओं के बचाव में सामने आता? यदि विधवाओं को विवाह की आज़ादी न मिली होती तो कितने आदमी सामने आकर यह कहते कि महिलाओं के लिए यह बदलाव होने ही चाहिए? कितने आदमी दहेज प्रथा के विरोधी हैं? कितने आदमी कुछ दिनों पहले हुए नृशंस बलात्कारों की घटना को लेकर परेशान होते रहते हैं?

कितने आदमी हर दिन होने वाली छींटाकशी को लेकर अपना विरोध दर्शाते हैं? कितने आदमी बलात्कार पर अख़बारों में लेख लिखते हैं, सोशल मीडिया पर पोस्ट डालते हैं? जब ऐसे आदमियों की संख्या सामने आएगी तो पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाएगी। नाम मात्र के आदमी हैं जो महिलाओं के लिए आगे आकर खड़े हैं, सोचते हैं और जरूरत पड़ने पर, डिजिटल हो या कोई अन्य तरीका, ऐक्शन लेते हैं।

लाखों में सब्सक्राइबर्स धारण करने वाले सैकड़ों ‘सम्मानित’ यूट्यूबर्स, जिनमें ज़्यादातर आदमी ही हैं, शायद ही कभी बलात्कारों पर कार्यक्रम करते हों, महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों पर चर्चा करते हों! इसका कारण है पुरुषों के वर्चस्व वाले इस सोशल मीडिया जगत में ऐसे वीडियो पर अच्छे ‘व्यू काउंट’ नहीं आते क्योंकि पुरुषों को ये मुद्दे पसंद नहीं आते। जब भी किसी पुरुष के तथाकथित शोषण की घटना सामने आती है, पूरा सोशल मीडिया आसमान सर पर उठा लेता है लेकिन महिलाओं पर हर दिन हो रहीं सैकड़ों अमानवीय यौन हिंसाओं पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ऐसा लगता है जैसे महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध लोगों के जीवन में चलने वाली एक सामान्य अवस्था है।  

महिलाएं यौन यातनाएँ सहन कर रही हैं, पुरुषों की यौन कुंठा का शिकार हो रही हैं। तमाम भाषणों, वादों और महिला दिवस पर शुभकामनाओं के बीच पुरुषों को यह जानने की जरूरत है कि भारत में हर 16 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार हो रहा है। ‘निर्भया’ के बाद यह भ्रम हो चला था कि हजारों वर्षों की सांस्कृतिक विरासत समेटे हुए इस विशाल भारत की अंतरात्मा को झटका लगा है और शायद समाज और संस्थाएं, मुख्य रूप से संसद और न्यायपालिका, ज़्यादा ‘सक्रिय’ और संवेदनशील बनेंगी। पर क्या हुआ? कई निर्भया और होने लगी और भी खतरनाक़ और भी डरावनी। पर अब कोई चर्चा नहीं करता किसी बलात्कार पर कोई उतना बड़ा आंदोलन नहीं होता, कोई सांसद रोती नहीं, पुलिस के मुखिया सामने आकर बोल देते हैं कि बलात्कार नहीं हुआ, हत्या नहीं हुई, जिसका बलात्कार होता है वह और उसके परिवार के लोग हताश होकर कानून और व्यवस्था से अन्याय पाकर कहीं छिप जाते हैं। ऐसे हालात में क्या किया जाए?

क्या इस तरह के संस्थानिक, सामाजिक शोषण और वर्चस्व की स्थापना के बीज ‘परवरिश’ में खोजे जाने चाहिए? हाँ शायद इसके बीज आदमियों की परवरिश में ही हैं। ब्रिटिश शासन समाप्त होने के बाद लोकतंत्र भले ही स्थापित हो गया हो लेकिन इस लोकतंत्र की परवरिश पुरुषवादी ही रही। तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने पुरुषवादी ढांचे से बाहर जाकर सोचने में असहज महसूस करती हैं। 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का ही मामला ले लीजिए। जस्टिस कृष्ण पहल की एकल पीठ ने एक बलात्कार के आरोपी को ज़मानत दे दी। इस व्यक्ति पर आरोप था कि उसने एक महिला का बलात्कार किया, इस दौरान उसके साथ मारपीट की और इन सबका एक वीडियो बनाकर, तस्वीरें खींचकर उन्हें सोशल मीडिया पर शेयर भी कर दिया। जस्टिस पहल एक तरफ़ तो कहते हैं आरोपी को अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार की स्वतंत्रता है और जब तक अपराध साबित नहीं होता उसे इससे वंचित नहीं किया जा सकता तो दूसरी तरफ़ उसे पीड़िता से 3 माह में शादी करने का आदेश दे दिया। अगर व्यक्ति दोषी नहीं है तो पीड़ित महिला उससे शादी क्यों करे? या उसे शादी करने के लिए बाध्य कैसे किया जा सकता है और अगर व्यक्ति दोषी है तो जमानत का आधार शादी कैसे हो सकती है?
इससे पहले भी जस्टिस पहल 15 वर्षीय नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार करने वाले, उसे गर्भवती करने वाले और पॉक्सो के तहत नामज़द व्यक्ति को शादी और नवजात की देखभाल के आश्वासन के आधार पर जमानत दे चुके हैं। यह कैसा न्याय है? क्या महिला की रजामंदी ली गई? या उसकी मजबूरी का फ़ायदा उठाया गया? इस प्रकार का न्याय कानून और संविधान सम्मत कैसे हुआ? उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय कहलाता है, इसे संवैधानिक कोर्ट समझा जाता है, यहाँ के फैसले कानून का वजन रखते हैं और पूरे देश में लागू किए जाते हैं। ऐसे न्यायालय इस किस्म के मनमाने फैसले कैसे दे सकते हैं? एक महिला जिसका एक व्यक्ति द्वारा बलात्कार किया गया, उसके साथ यौन हिंसा की गई, उसे अपमानित किया, उसे ऐसे व्यक्ति के साथ जीवन भर शादी करके रहने के लिए बाध्य कैसे किया जा सकता है? शादी के बाद तो उसे हर दिन यौन हिंसा और हर दिन बलात्कार की छूट मिल जाएगी।  
ऐसा ही काम 2021 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश जस्टिस बोबडे भी कर चुके हैं। उन्होंने भरी अदालत में पीड़ित से पूछा कि वह बलात्कार आरोपी व्यक्ति से शादी करेगी? मामला उसके नाबालिग समय का था जब आरोपी ने उस लड़की का बार बार बलात्कार किया था। लड़की के साथ आरोपी ने यौन हिंसा की थी, उसे यतनाएं दी थीं उसका बार बार बलात्कार करता था, उसे बांधकर रखता, उसको मारा-पीटा और पेट्रोल छिड़ककर जला देने और उसके भाइयों को जान से मारने की धमकी भी दी थी। लड़की इतना अधिक पीड़ित थी कि उसने आत्महत्या तक करने की कोशिश की। फिर भी न्यायालय ने यह पूछा कि क्या वह ऐसे व्यक्ति से शादी करेगी? सवाल यह है कि जिस लड़की को न्यायालय बलात्कार के मामले में न्याय नहीं दे सका वह संस्थान विवाह के भीतर होने वाले बलात्कार(मैरिटल रेप) पर सुनने को भी राजी कैसे होगा। मैरिटल रेप के नाम पर तो पूरी पुरुष प्रजाति एक साथ कदम ताल करने लग जाती है।

दिल्ली हाईकोर्ट को लगता है कि किसी नाबालिग लड़की के होठों को छूना और उसके बगल में जाकर लेटना ‘गंभीर यौन हमला’ नहीं है इसलिए उसके ख़िलाफ़ पॉक्सो एक्ट की धारा 10 नहीं लगाई जा सकती है। जब एक नाबालिग लड़की अपने चाचा के ख़िलाफ़ ऐसे आरोपों को लेकर बाहर आती है तो उसे किस किस्म के समाजिक और मानसिक दबाव का सामना करना पड़ा होगा! इतनी आसानी से चाचा को कानूनी रास्ते से बाहर नहीं निकलने देना चाहिए था। लड़की के चाचा ने जो किया उसे महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते हुए अपराधों और ऐसे अपराधों को बाहर लेकर आने में महसूस किए जाने वाले सामाजिक दबावों के प्रकाश में समझा जाना चाहिए था। 

कोर्ट के इस आदेश का अर्थ यह भी निकाला जाएगा कि किसी नाबालिग के साथ यौन दुर्व्यवहार तब तक किया जा सकता है जब तक यह कोर्ट के ‘गंभीर यौन हमले’ की परिभाषा के दायरे में नहीं आता। क्योंकि तब तक पॉक्सो जैसा जरूरी और कठोर कानून नहीं लगाया जा सकेगा, जिसका मुख्य उद्देश्य ही यह था कि लोगों में बच्चों के साथ किए जाने वाले यौन दुर्व्यवहार को लेकर डर पैदा हो। न्यायालय के फैसले ऐसे हों जिससे महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित हो और अपराध करने वाले को यह डर हो कि वह जिस किस्म का अपराध कर रहा है उसके लिए उसे कोई वकील बचा नहीं सकता।

इस संबंध में सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें कहा गया है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा समानता, विकास, शांति और महिलाओं और लड़कियों के मानवाधिकारों की प्राप्ति में एक महत्वपूर्ण बाधा बनी हुई है। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि अदालतों में सुनवाई के लिए गए बलात्कार के कुल मामलों में अखिल भारतीय सजा दर सिर्फ 2.56 प्रतिशत है और बलात्कार के प्रयास से संबंधित मामलों में, अदालत में सजा दर सिर्फ 0.92 प्रतिशत है।

यह आंकड़ा इस तथ्य की ओर इशारा कर रहा है कि बलात्कार के मामलों में कम सजा दर महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वालों के लिए एक शील्ड का काम कर रही है। पुरुषों के वर्चस्व वाले समाज में महिलाओं के लिए न्याय तभी सुनिश्चित होगा जब न्याय ख़ुद महिलाओं के पास खड़ा होकर अपराधों का ठीक से आकलन करेगा, कानून की धाराएँ मात्र इस्तेमाल करने से न्याय बहुत रूखा हो रहा है।

 न्याय एक ‘परिवेश’ आधारित विचार है जिसे किसी एक बात को आधार बनाकर सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। पुरुषों के दृष्टिकोण से महिलाओं को न्याय नहीं दिया जा सकेगा। इसका यह अर्थ नहीं कि अपराध अगर महिला करे तो कानून उसे सजा न दे लेकिन कम से कम न्यायालयों को आपराधिक घटनाओं को महिलाओं के नजरिये से देखना चाहिए। किसी पुरुष की असुरक्षा, यौन मामलों को लेकर उसकी राय, उसकी परवरिश और इसके बाद घटी किसी अनहोनी के लिए महिला जिम्मेदार नहीं ठहरायी जा सकती है। 

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किसी का आचरण आपको पसंद नहीं तो उससे अलग हो जाइए , जो कानूनी रूप से बनता है उसे दीजिए, अगर कानून ख़राब लगता है तो कानून बदलने की माँग कीजिए लेकिन अपनी किसी कमजोरी के लिए किसी महिला को दोषी बनाना, जब तक वह सीधे सीधे दोषी ना हो, उचित नहीं है।     
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वंदिता मिश्रा
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