जेनेवा आधारित अंतरराष्ट्रीय संगठन विश्व आर्थिक मंच यानी डब्ल्यूईएफ़ (WEF) प्रत्येक वर्ष वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट जारी करता है। 2006 से जारी होने वाली इस रिपोर्ट के आधार पर लैंगिक असमानता को मापने के लिए WEF वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक भी जारी करता है। इस रिपोर्ट/सूचकांक का उद्देश्य विभिन्न देशों के 4 प्रमुख क्षेत्रों- स्वास्थ्य, शिक्षा, आर्थिकी तथा राजनीति- में महिलाओं और पुरुषों की पहुँच के अंतर को मापना है। वर्ष 2022 के लिए WEF ने 146 देशों के लैंगिक अंतराल का आकलन किया है। भारत को इसमें 135वाँ स्थान प्राप्त हुआ है। इस सूचकांक में भारत का स्कोर 0.629 है जोकि 2021 के स्कोर-0.625 के मुकाबले बेहतर है। लेकिन भारत के लिए यह सही तसवीर नहीं है। 2006 में जब इस सूचकांक की शुरुआत हुई थी तब भारत 115 देशों में 98वें स्थान पर था। 2012 में यह रैंकिंग 135 देशों के मुकाबले 105 थी। मात्र 6 वर्ष पहले, 2016 में भारत इस सूचकांक में 87वें स्थान पर था। 2006 में इस सूचकांक की शुरुआत के समय और आज भारत की अर्थव्यवस्था में जमीन आसमान का अंतर आ चुका है।
जहां 2006 में भारत की जीडीपी $940 बिलियन थी वहीं 2021 में बढ़कर यह लगभग $3173 बिलियन हो चुकी है। यह साफ़ है कि अर्थव्यवस्था तो लगातार बढ़ी लेकिन महिलाओं की स्थिति में उस अनुपात में बदलाव नहीं हो सका है। वैसे भी यह सूचकांक किसी देश की अर्थव्यवस्था के आकार और संसाधनों की संपन्नता को नहीं मापता बल्कि इसकी माप यह है कि उपलब्ध संसाधनों और अवसरों में महिलाओं की हिस्सेदारी कितनी है।
वर्ष 2008 की वैश्विक लैंगिक अंतराल की रिपोर्ट अपना उद्देश्य साफ़ करते हुए कहती है कि यह "देशों का आकलन इस तरह करती है कि वे इन संसाधनों और अवसरों के समग्र स्तरों की परवाह किए बिना अपने संसाधनों और अवसरों को अपनी पुरुष और महिला आबादी के बीच कितनी अच्छी तरह विभाजित कर रहे हैं।”
यह सूचकांक जिन चार स्तंभों पर खड़ा है वो हैं- राजनैतिक सशक्तिकरण, आर्थिक भागीदारी व अवसर, शैक्षणिक उपलब्धि और स्वास्थ्य व उत्तरजीविता। राजनैतिक सशक्तिकरण नाम के स्तम्भ में भारत की रैंकिंग 2022 में 48वीं है जोकि 2021 के 51वें स्थान से कुछ बेहतर ज़रूर है पर पर्याप्त नहीं। यद्यपि सूचकांक के इस आयाम में भले ही भारत की रैंक बेहतर लग रही हो लेकिन कोई भी निर्णय लेने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि जिस संकेतक में भारत 48वें (स्कोर-0.267) स्थान पर है उसी में पड़ोसी देश बांग्लादेश वैश्विक स्तर पर 9वें (स्कोर-0.546) स्थान पर है।
जब 2021 में इस वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक में भारत को 140वां स्थान मिला था तब भारत सरकार ने आपत्ति दर्ज की थी। सरकार का मानना था कि सूचकांक भारत की वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शा रहा है। सरकार की इस आपत्ति को जाँचने के लिए हमें कुछ आंकड़ों पर गौर करना चाहिए।
मार्च 2021 के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि भारत के 6 राज्यों में कोई भी महिला मंत्री नहीं थी। यही नहीं भारत का कोई भी राज्य एक तिहाई महिला मंत्री के आँकड़े के आसपास भी नहीं था। सिर्फ तमिलनाडु में ही सर्वाधिक 13% महिला मंत्री थीं।
देश के लगभग 70% राज्यों में 10% से भी कम संख्या महिला मंत्रियों की थी। इसमें सबसे ज़्यादा बुरी स्थिति वाले राज्यों में कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य शामिल हैं। देश की सबसे बड़ी पार्टी, बीजेपी में कभी कोई महिला राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं रही।
भलोत्रा और अय्यर, 2018 के अनुसार, एक महिला की चुनावी जीत के बाद नई महिला उम्मीदवारों के प्रवेश में गिरावट आई है। यह गिरावट सबसे अधिक लैंगिक भेदभाव वाले राज्यों में और पुरुष प्रधान राजनीतिक दलों में स्पष्ट है, जो गैर-पारंपरिक भूमिका निभाने वाली महिलाओं के ख़िलाफ़ पुरुष प्रतिक्रिया के अनुरूप है। बात सिर्फ़ परंपरा की नहीं है, वास्तव में यह मसला है ‘सक्षमता’ का। विभिन्न शोधों से साबित हो चुका है कि एक महिला एक पुरुष की अपेक्षा कहीं बेहतर नेतृत्व संभाल सकती है। इस बात की पुष्टि अफरीदी व अन्य, 2017 से भी हो जाती है। इनके अनुसार बिना किसी पूर्व अनुभव वाली महिला राजनेता शुरू में थोड़ा कम प्रदर्शन करती हैं, परंतु वह तेजी से सीखती हैं और अनारक्षित सीटों पर पुरुष नेताओं के साथ पूरी तरह से पकड़ बना लेती हैं। महिलाओं को पीछे रखने के सूत्र इसी सामाजिक ढांचे में छिपे हैं जिसमें पुरुष अपनी असक्षमता के बावजूद अपने वर्चस्व को बचाने के लिए शोषण के इस व्यापक तंत्र को अपनी खास स्थिति के कारण लगातार हवा दे रहा है।
इस सूचकांक के आर्थिक भागीदारी एवं अवसर, नाम के स्तम्भ में भारत विश्व में 143वें स्थान पर है। वर्तमान अनुमानों के अनुसार औपचारिक श्रम शक्ति में भारत की महिलाओं की भागीदारी की दर केवल 24 प्रतिशत है - विकासशील देशों में सबसे कम। अधिकांश भारतीय महिलाएँ अनौपचारिक क्षेत्र में सीमित सामाजिक सुरक्षा और कम वेतन वाली नौकरियों में काम करती हैं। यह अनुमान है कि यदि औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों के समान दर पर किया जाता है तो भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी जीडीपी में 2.9 ट्रिलियन डॉलर जोड़कर 2025 तक अतिरिक्त 60 प्रतिशत की वृद्धि कर सकती है।
एक तरफ़ जापान जैसे देश 2013 से ही महिलाओं की भागीदारी अर्थव्यवस्था में बढ़ाने के लिए ‘वुमनॉमिक्स’ जैसी पहल कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ भारत में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध, लचर कानून व्यवस्था, सुस्त न्याय प्रणाली और कमजोर राजनैतिक इच्छाशक्ति इस बात को पुख्ता करने में लगे हैं कि भले ही महिलाओं के लिए लाख योजनाएं लाई जाएं, रसोई गैस दी जाए, राशन बाटें जाएं लेकिन किसी भी हालत में ऐसा कुछ न हो जिससे महिलायें राजनैतिक और आर्थिक रूप से सशक्त होकर पुरुष सत्ता को चुनौती दे सकें।
ढाई दशक पहले गेस्ट हाउस में उभरती हुई नेता मायावती जी के साथ अभद्रता का मामला हो या उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों के दौरान चुनी हुई महिला प्रतिनिधियों की साड़ी खींचने का मामला हो, कुछ खास नहीं बदला है। बदले हैं तो सिर्फ नेता, उनके भाषण, जनता को लुभाने के उनके तरीके, अधिकारों को भी चैरिटी की तरह बांटने का नेताओं का हुनर, राशन की लंबी लाइनें, जमीन के एक टुकड़े के लिए जलाई जा रही आदिवासी महिलायें, लकवाग्रस्त महिला अधिकार आयोग और सुन्न हो चुका राजनैतिक और प्रशासनिक अमला।
सरकार और परिवार देश की महिलाओं का ख्याल कैसे और कितना रख रहे हैं वह इस बात से स्पष्ट है कि महिलायें पुरुषों की अपेक्षा 2.7 वर्ष अधिक जीवित तो रहती हैं लेकिन संतोषजनक स्वास्थ्य के साथ जीवन प्रत्याशा मात्र 0.1 वर्ष ही अधिक है।
रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा जारी आँकड़ों, 2017-19, के अनुसार भारत में मातृत्व मृत्यु दर (MMR) 103 है। जोकि वास्तव में संतोषजनक है। MMR का अर्थ है प्रति एक लाख जन्म लेने वाले बच्चों के दौरान मृत माताओं की संख्या। भारत के लिए 103 का आंकड़ा असल में कुछ राज्यों के शानदार प्रदर्शन से आया है। जबकि देश के आधे से अधिक हिस्से में महिलाओं की स्थिति अभी भी भयावह बनी हुई है। सात भारतीय राज्यों में मातृ मृत्यु दर बहुत अधिक है। ये राज्य हैं- राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा और असम। 'बहुत अधिक' एमएमआर का अर्थ है प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 130 या अधिक मातृ मृत्यु। पंजाब, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में एमएमआर 'उच्च' है। इसका अर्थ है प्रति 100,000 जीवित जन्मों पर 100-130 मातृ मृत्यु। भारत में महिलाओं में कुपोषण भी एक बड़ी समस्या है जोकि निश्चित रूप से लैंगिक अंतराल को बढ़ा रहा है। भारत में प्रजनन आयु (15-49 वर्ष) की लगभग एक चौथाई महिलाएं (23 प्रतिशत) दुबलेपन की शिकार हैं, जिनका बॉडी मास इंडेक्स 18.5 किलोग्राम प्रति वर्ग मीटर से कम है। यह अनुपात शहरी क्षेत्रों (16 प्रतिशत) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों (27 प्रतिशत) में अधिक है। कुपोषण की यह प्रवृत्ति परिवारों की संपत्ति के साथ घटने लगती है। सरकार पोषण अभियान, 2022 के माध्यम से इसे रोकने के प्रयास में है ताकि सतत विकास लक्ष्य-3 के टारगेट को भी पूरा किया जा सके। परंतु गति अत्यधिक धीमी और सरकार का डिनायल मोड बहुत तेज होने से समस्या विकराल हो रही है।
भारत वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक में कहाँ है इसे जाँचने के लिए बस यह जानना ज़रूरी है कि भारत से नीचे कौन-कौन से देश हैं। भारत से नीचे- मोरक्को, क़तर, बेनिन, ओमान, अल्जीरिया, माली, चाड, ईरान, कांगो, पाकिस्तान और अफगानिस्तान हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में महिलाओं की स्थिति मात्र इन देशों से ही बेहतर है जिनकी स्वयं की स्थिति दुनिया के लगभग सभी सभ्य सूचकांकों में निम्नतम है।
लेकिन टॉप 10 देशों में रवांडा, निकारागुआ और नामीबिया जैसे अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी देश शामिल हैं। सर्वाधिक बुरी स्थिति दक्षिण एशिया की ही है, जिसमें भारत भी आता है। WEF के अनुसार यदि सबकुछ इसी रफ्तार से चला तो दक्षिण एशिया में लैंगिक अंतराल को ख़त्म होने में 197 साल लग जाएंगे। यह जानकार आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस देरी में भारत की भी बड़ी भूमिका है। अगर फिर भी सरकार को लगता है कि भारत ने कम से कम पिछले साल की अपेक्षा तो बेहतर प्रदर्शन किया है तो उसे आईना दिखाने के लिए साल 2020 के इसी सूचकांक की ओर ले जाना चाहिए जहां भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर था लेकिन 2021 में 28 स्थान नीचे फिसलकर 140वें स्थान पर आ गया है।
राजनीति में बढ़ती धन की आवश्यकता, बाहुबलियों का आज भी तैनात वर्चस्व और विभिन्न प्रशासनिक संस्थाओं का लैंगिक पक्षपात कितनी महिलाओं को आगे बढ़ने देगा? क्या सिर्फ़ प्रतिभा पाटिल और द्रौपदी मुर्मू के माध्यम से भारत महिलाओं के आगे जाने के दावे की पुष्टि कर पाएगा?
विभिन्न राजनैतिक दलों को यह बताना चाहिए कि वो कब अपनी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष एक महिला को बनाएंगे? आखिर क्यों आजतक इंदिरा गाँधी के अलावा कोई अन्य महिला भारत की प्रधानमंत्री नहीं बन सकी? कितने उच्च प्रशासनिक पदों पर महिलायें हैं? कितनी महिलायें CAG जैसी शक्तिशाली पोजीशन में रही हैं? कितनी महिलायें आजतक DGP के पद तक पहुँच सकी हैं? अब तक क्यों कोई भी महिला सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश नहीं बनी? कितने उच्च न्यायालयों में महिला मुख्य न्यायाधीश रह चुकी हैं? ये सभी, ऐसे सवाल हैं जो सरकार और लोकतंत्र के विभिन्न अंगों को स्वयं से पूछने चाहिए।
सूचकांकों को जारी करने वालों के ख़िलाफ़ अभियान चलाना आसान है लेकिन आइसलैंड बनना मुश्किल है जो लगातार 14 वर्षों से अपने यहाँ महिलाओं को संसाधनों और संस्थाओं तक समान पहुँच प्रदान कर रहा है। सिर्फ रसोई गैस बांटकर ज़िम्मेदारी पूरी नहीं हो सकती, महिलाओं के लिए घर के अंदर और बाहर, दिन में और रात में हर तरीक़े से सुरक्षित माहौल बनाना सरकार की लोकतान्त्रिक ज़िम्मेदारी है।
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