केशवानंद भारती मामले में सुनवाई के दौरान जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि संविधान के कुछ प्रावधान संविधान के मूल ढांचे से जुड़े हुए हैं और बिना इनके संविधान की मूल भावना ही खत्म हो सकती है तब तत्कालीन अटॉर्नी जनरल नीरेन डे का तर्क यह था कि ‘संविधान के सभी प्रावधान जरूरी हैं अन्यथा इन्हे संविधान में जगह न दी जाती’। अटॉर्नी जनरल का यह तर्क निश्चित रूप से सतही था। इस बातचीत का जिक्र तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायधीश एस. एम. सीकरी ने केशवानंद भारती मामले के अपने निर्णय में भी किया है। 700 पन्नों के इस निर्णय के पैराग्राफ 302 में न्यायमूर्ति सीकरी ने अटॉर्नी जनरल की बात का जवाब देते हुए लिखा कि “यह सही है कि संविधान के सभी प्रावधान जरूरी हैं लेकिन सिर्फ इतनी बात से संविधान के सभी प्रावधानों की अहमियत एक नहीं हो जाती और न ही उन सभी को एक ही धरातल पर रखा जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि संविधान के सभी प्रावधानों को संशोधित किया जा सकता है बशर्ते संविधान का मूल आधार और ढाँचा न बदले।” जस्टिस सीकरी केशवानंद भारती मामले में बनी अब तक की सबसे बड़ी संविधान पीठ, 13 सदस्यीय, की अध्यक्षता कर रहे थे।
चौथा- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण, पाँचवाँ- संविधान का संघीय स्वरूप। यह पाँच शुरुआती बातें थीं जिनका जिक्र संविधान के मूल ढांचे के रूप में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया गया था। संसद पर सीमा सिर्फ इतनी लगाई गई कि वह कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकती जो संविधान के मूल ढांचे को किसी भी रूप में ठेस पहुंचाता हो। अब यह बात समझ से परे है कि इनमें से ऐसी कौन सी बात थी जिसने भारत के वर्तमान उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के पदेनसभापति जगदीप धनखड़ को यह कहने पर बाध्य कर दिया कि “1973 के केशवानंद भारती मामले ने एक गलत परंपरा को जन्म दे दिया।”
उपराष्ट्रपति धनखड़ के लिए ‘संविधान के मूल ढांचे’ को लेकर एक और जबरदस्त संदेश केशवानंद भारती निर्णय में निहित है। पैराग्राफ 667 में जस्टिस हेगड़े और जस्टिस मुखर्जी ने लिखा कि “हमारे संविधान में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिन्हे न ही परिवर्तित किया जा सकता है और न ही खत्म किया जा सकता है।..कोई भी(सरकार) कानूनी रूप से संविधान को इस्तेमाल करके इसे खत्म नहीं कर सकती। अनुच्छेद-368 के तहत संशोधित संविधान वह ‘संविधान’ बना रहना चाहिए जो ‘मूल संविधान’ था।” केशवानंद की आवश्यक शर्त अर्थात ‘संविधान का मूल ढाँचा’ शायद उपराष्ट्रपति की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में असक्षम हो।
जब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने यह अवांछित बयान दिया तब वे जयपुर में आयोजित 83वीं ‘अखिल भारतीय पीठासीन सम्मेलन’ में बोल रहे थे। संसदीय सर्वोच्चता को सर्वोपरि रखते हुए उन्होंने कहा कि “एक लोकतांत्रिक समाज में, किसी भी बुनियादी ढांचे का आधार लोगों की सर्वोच्चता, संसद की संप्रभुता है। कार्यपालिका संसद की संप्रभुता पर फलती-फूलती है। परम शक्ति विधायिका के पास है। विधायिका यह भी तय करती है कि अन्य संस्थानों में कौन रहेगा। किसी को दूसरों के क्षेत्र में घुसपैठ नहीं करनी चाहिए।” स्पष्ट है कि संसद को पहले से ही सर्वोच्च मान चुके उपराष्ट्रपति महोदय को केशवानंद मामले से निकले सिद्धांत बिल्कुल पसंद नहीं आये।
भारत के दूसरे मुख्य न्यायधीश जस्टिस पतंजलि शास्त्री का न्यायिक पुनर्विलोकन और संसदीय कानूनों को लेकर लगभग यही रुख रहा है। मद्रास राज्य बनाम बी. जी. राव मामले(1952) में उन्होंने कहा था कि “हमारे संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित स्पष्ट उपबंध दिए गए हैं जो संविधान के अनुकूल हैं।…संविधान ने न्यायालय को ‘एक सजग प्रहरी’ के रूप में नियुक्त किया है।”
इसके बाद शंकरी प्रसाद और बाद में सज्जन सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिक अधिकारों को संसदीय विवेक पर छोड़ दिया। लेकिन इसके बाद गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य(1967) में सर्वोच्च न्यायालय की 11 सदस्यीय पीठ ने संसदीय विवेक को किनारे करके साफ शब्दों में अभिनिर्धारित किया कि संसद अनुच्छेद-368 के तहत संविधान के सभी प्रावधानों में संशोधन नहीं कर सकती। मतलब बिल्कुल साफ था कि संसद चाहे तो अनुच्छेद-368 के तहत संशोधन करे लेकिन अगर वो संशोधन भाग-3 में प्रदत्त अधिकारों से असंगत होने लगे तो उन्हे असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है। इस बार संसदीय एकाधिकार को 11 सदस्यीय पीठ से चुनौती मिली थी लेकिन तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार 24वें संविधान संशोधन के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय को चुनौती देने लगी। संसद ने एक ऐसा कानून बना दिया जिसमें अनुच्छेद-368 के तहत किए जाने वाले संशोधन को ‘विधि’ ही नहीं माना जाना था जबकि अनुच्छेद-13 में न्यायिक पुनर्विलोकन के लिए ‘विधि’ एक आवश्यक शर्त थी।
इसके बाद मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में सर्वोच्च न्यायालय की 5 सदस्यीय पीठ ने बिल्कुल साफ शब्दों में कहा कि संसद की कानून बनाने की शक्ति असीमित नहीं बल्कि सीमाओं में बंधी है। यह सीमा है ‘संविधान का आधारिक या मूल ढाँचा’। इसके बाद कभी किसी सरकार ने जब भी आधारिक ढांचे के बाहर जाकर किसी कानून को बनाने की कोशिश की तो उसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘असंवैधानिक’(Ultra-Vires) किया जाता रहा।
कानून मंत्री किरण रिजिजू लगातार कुछ न कुछ ऐसा बोल रहे हैं जिससे संघर्ष बढ़ सकता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय संभवतया उनके किसी अनौपचारिक बयान को ध्यान देने लायक तक नहीं समझ रहा है। वैसे यह संघर्ष को रोकने का एक बेहतर तरीका है। जिसे संविधान का अभिरक्षक घोषित किया गया है उसकी जिम्मेदारी है कि संविधान और उसकी मर्यादा को लगातार संरक्षित करे। एक कानून मंत्री से शायद ज्यादा आशा नहीं की जानी चाहिए।
हाल ही में कानून मंत्री रिजुजु ने कहा कि कॉलेजियम सिस्टम की वजह से न्यायपालिका के वरिष्ठ जजों का बहुत सारा समय बर्बाद होता है जबकि उनके ऊपर बहुत ज्यादा संवैधानिक दायित्व हैं ऐसे में कॉलेजियम सिस्टम पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। क्या किरण रिजुजु इस बात की चिंता करेंगे कि प्रधानमंत्री पर बहुत सारे दायित्व होते हैं, बहुत सा काम होता है,ऐसे में उन्हे चुनाव और चुनावी राजनीति से दूर रहना चाहिए और यह काम पार्टी और संगठन पर छोड़ देना चाहिए? शायद वो विचार भी नहीं करेंगे! क्योंकि फिलहाल पूरी सरकार और उसके अवयवों का ध्यान इस बात पर है कि कैसे न्यायपालिका के साथ संघर्ष को बढ़ावा दिया जाए और कैसे संविधान के मूल डीएनए को ‘म्यूटेट’ किया जाए!
क्या उपराष्ट्रपति बता सकते हैं कि यदि न्यायपालिका हस्तक्षेप न करती तो भारत के LGBTQ+ समूह को कब तक न्याय मिलने की संभावना होती? अगर न्यायपालिका हस्तक्षेप न करती तो UAPA कानून की गिरफ्त से कोई निर्दोष कभी बाहर ही नहीं पाता।
2019 में गठित 17वीं लोकसभा में लगभग 50% दागी लोग सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे। कल के दिन यह संख्या 60 या 70% भी हो सकती है! ऐसे में क्या संसद को कानून बनाने की अपनी दक्षता पर स्वयं विचार नहीं करना चाहिए? इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुख्तार अंसारी को लेकर कहा कि आश्चर्य यह है कि एक गैंगस्टर 6 बार जनप्रतिनिधि बनकर विधानमंडल में कैसे पहुँच जाता है। किसी व्यक्ति के चुनाव जीतने के पीछे कई कारण हो सकते हैं लेकिन कोई आवश्यक नहीं कि कानून का निर्माण करना उन्हीं कारणों की योग्यता को प्रबिम्बित करता हो!
क्या उपराष्ट्रपति बता सकते हैं कि यदि न्यायपालिका हस्तक्षेप न करती तो भारत के LGBTQ+ समूह को कब तक न्याय मिलने की संभावना होती? अगर न्यायपालिका हस्तक्षेप न करती तो UAPA कानून की गिरफ्त से कोई निर्दोष कभी बाहर ही नहीं पाता। ED के कानूनी अधिकारों की सीमाओं को कौन जाँचता? कानूनों का निर्माण और उनका न्यायसंगत होना; चुनाव, चुने हुए प्रतिनिधि और पार्टियों की वोट बैंक राजनीति से भिन्न अवस्था है।
इसलिए कोई चाहिए जो राजनीति और वोटबैंक से परे जाकर मौलिक कानूनी प्रश्नों पर विचार कर सके और उस संविधान की रक्षा कर सके जिसे सैकड़ों वर्षों की ग़ुलामी के बाद मुश्किल से तैयार किया गया था।
एक अन्य मौलिक प्रश्न यह है कि ‘न्यायशास्त्र’ के जिस प्रश्न पर भारत के प्रथम मुख्य न्यायधीश से लेकर आज तक के लगभग सभी न्यायविद सहमत हैं, जिस प्रश्न के लिए पहले 11 सदस्यीय फिर 13 सदस्यीय, इसके बाद एक और 5 सदस्यीय सर्वोच्च न्यायालय की पीठ एक ठोस विनिश्चय कर चुकी है उस पर प्रश्न उठाने के लिए क्या पूर्व उपराष्ट्रपति, वर्तमान उपराष्ट्रपति और वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष के पास आवश्यक कानूनी दक्षता उपलब्ध है? या प्रश्न उठाने का कार्य किसी अन्य दृष्टिकोण से किया जा रहा है? यदि देश के प्रतिष्ठित और गणमान्य न्यायविदों के किसी महत्वपूर्ण समूह द्वारा सभ्य भाषा में यह प्रश्न विचार के लिए लाया जाता तब तो इस पर बात किया जाना तर्कसंगत लगता वरना किसी भी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के पास यह स्वाभाविक योग्यता न तो संविधान ने दी है और न ही उसने अर्जित की है जिसके माध्यम से वह ‘संविधान के अभिरक्षक’ के द्वारा दशकों में निर्धारित किए गए किसी समाधान पर प्रश्न उठा सके।
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