जिस समय अमेरिकी राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और सीनेट साइबर सिक्योरिटी और आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स को लेकर तनाव में है और अपने देश की तमाम टेक कंपनियों के सीईओ से बातचीत और विमर्श में है तब भारत में प्रधानमंत्री और उनकी पूरी सरकार चुनावी मोड से ही बाहर निकलने को तैयार नहीं। टेक्नोक्रेट के भरोसे देश की साइबर सिक्योरिटी को छोड़कर सरकार ‘चुनाव-मग्न’ है। भाजपा का आईटी सेल सिर्फ यह बात साबित करने में लगा है कि अडानी समूह की तरफ से कोई धांधली नहीं हुई और यह कि विपक्ष के कद्दावर नेता राहुल गाँधी झूठे हैं।
21वीं सदी में भारत में सरकारों का संचालन सिर्फ चुनावी तैयारी और संबंधित हार-जीत पर टिक गया है। जबकि असलियत यह है कि टेक्नॉलजी के इस दौर में राजनैतिक सतर्कता और सक्रियता में कमी, राष्ट्रों की लोकतान्त्रिक कश्ती में छेद करने के लिए पर्याप्त लक्षण है। बीते 9 वर्षों के दौरान अधूरी तैयारी के साथ तकनीक आधारित वित्तीय उपायों और पहलों ने भारत के लिए एक शर्मनाक स्थिति पैदा की है। ऐसी ही एक पहल ‘आधार कार्ड’ भी है।
हाल में द हिन्दू अखबार में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार ‘आधार सक्षम भुगतान प्रणाली’ अर्थात AePS के माध्यम से करोड़ों रुपये की धांधली और चोरी का मामला सामने आया है। AePSभारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम(NPCI), भारतीय रिजर्व बैंक और भारतीय बैंक संघ की एक संयुक्त परियोजना है। यह परियोजना बिना किसी मोबाइल एप्लीकेशन की सहायता से वित्तीय लेनदेन को संभव बनाती है। इस वित्तीय लेनदेन के लिए सिर्फ बैंक का नाम, आधार संख्या और फिंगरप्रिन्ट की ही आवश्यकता होती है। चूंकि यह व्यवस्था बिना किसी मोबाइल के पूर्ण रूप से आधार संख्या के माध्यम से ही लेनदेन करने में सक्षम है इसलिए इसमें ‘वन टाइम पासवर्ड’ जैसी सुरक्षात्मक प्रणालियों का अभाव है। इस तकनीकी कमजोरी का फायदा साइबर अपराधियों द्वारा उठाया जा रहा है। ये अपराधी ‘सिलिकॉन थंब’ का इस्तेमाल करके बायोमेट्रिक POS डिवाइस और बायोमेट्रिक ATMs के माध्यम से गरीब लोगों का पैसा उनके खातों से आसानी से निकाल रहे हैं।
AePS प्रणाली का दुरुपयोग कोई नई घटना नहीं है इससे पहले भी 2021 और 2022 में भी ऐसी शिकायत आती रही हैं लेकिन 2023 में फिर से यह समस्या आना इस बात का प्रतीक है कि सरकार गरीबों के धन को लेकर पर्याप्त सुरक्षा उपाय करने में नाकाम रही है।
सरकार की इस नाकामी के बीज 2014 में आई नई सरकार की कार्य प्रणाली में छिपे हुए हैं। वित्तीय समावेशन को ध्यान में रखकर 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ की शुरुआत की। उद्देश्य यह था कि देश के सभी व्यक्तियों के पास उनका अपना बैंक खाता हो। यह वास्तव में एक सराहनीय कदम था। इसके बाद 2015 में ‘डिजिटल इंडिया मिशन’ की शुरुआत की गई ताकि भारत की अर्थव्यवस्था को डिजिटल पटरी पर उतारा जा सके।
वर्ष 2016 में आधार अधिनियम, 2016 को धन विधेयक के रूप में संसद से पारित किया गया ताकि ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण’(UIDAI) को वैधानिक दर्जा दिया जा सके। यह सभी कदम देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को प्रगतिशील दिशा प्रदान करने के लिए शुरू किए गए थे लेकिन इन सभी कार्यक्रमों में अंतर्निहित खामियाँ और राजनैतिक अदूरदर्शिता धीरे धीरे सामने आना शुरू हो गई। वर्ष 2009 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने आधार योजना की शुरुआत इन्फोसिस के पूर्व सीईओ और सह-संस्थापक नंदन नीलकेणी के नेतृत्व में की। इसके लिए UIDAI का गठन किया गया। UIDAI ने अपना कार्य तत्कालीन योजना आयोग के विस्तार के रूप में शुरू किया था। काफी मेहनत के बाद भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए 12 अंकों की आधार संख्या का प्रतिपादन किया गया।
शुरुआत में आधार का उद्देश्य यह बिल्कुल नहीं था कि यह संख्या नागरिकों को उपलब्ध अन्य पहचान पत्रों को प्रतिस्थापित कर देगी। आधार संख्या प्रदान करने का उद्देश्य मात्र इतना था कि आसानी से भारत के जरुरतमन्द नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा के लाभ जैसे- प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण, सब्सिडी व अन्य सहायिकी सुविधाएं आसानी से प्रदान की जा सकें। नंदन नीलकेणी की अध्यक्षता में इसी दिशा में काम किया गया था। इसे भारत के नागरिकों की सर्वोत्तम पहचान पत्र मानने पर जोर नहीं दिया जाना था इसलिए इसके लिए वैसे सुरक्षा उपायों का भी प्रबंध नहीं किया गया। लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने आधार कार्ड को विस्तार देने की योजना बनाई जिसमें कोई बुराई नहीं थी।
भारत को नई सरकार मिली थी यह संभव था कि उसके पास नया विज़न होगा लेकिन आधार के उपयोग को विस्तार देने और उसमें जरूरी सुरक्षा उपायों के बीच सामंजस्य को तोड़ दिया गया। सरकार हड़बड़ी में आधार को ‘सबसे जरूरी नागरिक पहचान पत्र’ बनाने की दिशा में काम करने लगी। हर जरूरी चीज जैसे- ड्राइविंग लाइसेन्स, स्कूल छात्रवृत्ति, रसोई गैस सब्सिडी, पासपोर्ट, पेंशन और प्राविडन्ट फंड आदि को आधार से जोड़ा जाने लगा। आनन-फानन में आधार ऐक्ट भी संसद से पारित करवा लिया गया।
विपक्ष इस मुद्दे पर बहस न करने पाए और राज्यसभा में इस मुद्दे को लेकर सरकार को असुविधा न हो इसलिए इस विधेयक को ‘धन विधेयक’ के रूप में पेश किया गया जिसमें लोकसभा को ही सर्वोच्च शक्ति प्राप्त है जहां उस समय सरकार को बहुमत प्राप्त था। यह कदम भी इतना जल्दबाजी में लिया गया कि अब 2023 में सर्वोच्च न्यायालय धन विधेयक के संबंध में लोकसभा अध्यक्ष की शक्तियों और संबंधित सर्वसत्ता को लेकर 7 जजों की संवैधानिक बेंच के माध्यम से सुनवाई को तैयार हो गया है। जो कि इस बात का सबूत है कि किसी विधेयक को जबरदस्ती धन विधेयक साबित करके संसद में उपस्थित विपक्ष के लिए अवसरों को लोकसभा अध्यक्ष के माध्यम से बाधित किए जाने के आरोपों पर सर्वोच्च न्यायालय प्रथम दृष्ट्या सहमत है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने आधार कार्ड को वैधानिकता प्रदान करके इसे गति प्रदान तो कर दी लेकिन उनकी सरकार की अदूरदर्शिता की वजह से वित्तीय समावेशन का स्वप्न औंधे मुँह गिर पड़ा है। आधार सक्षम भुगतान प्रणाली की खामियों के पहले भी आधार में अन्य खामियाँ थीं। आधार को कभी भी आसानी से कॉपी किया जा सकता था। आसानी से करोड़ों भारतीयों के नाम, पता, बैंक खाता संख्या और बायोमेट्रिक डाटा को डाउनलोड किया जा सकता था। आधार में कभी भी कोई ऐसी सुरक्षा उपाय जैसे- होलोग्राम आदि नहीं किए गए जिससे इसे कॉपी और प्रिन्ट किया जाना असंभव हो जाता।
होलोग्राम का यह सुरक्षा उपाय तब किया गया जब भारत के करोड़ों नागरिकों का डाटा इंटरनेट में खुलेआम बिकने लगा। वर्ष 2018 में 200 सरकारी वेबसाइटों ने गलती से आधार डाटा पब्लिक डोमेन में उपलब्ध करवा दिया। यह डाटा पाना इतना आसान था कि सामान्य रूप से गूगल करके भी यह डाटा प्राप्त किया जा सकता था। लेकिन सरकार और UIDAI ने ऐसी किसी भी डाटा लीक से इंकार कर दिया। इसी साल द ट्रिब्यून के एक पत्रकार ने 500 रुपये में व्हाट्सएप्प में एक एजेंट के माध्यम से सारा आधार डाटा प्राप्त कर लिया साथ ही 300 रुपये में वह सॉफ्टवेयर भी प्राप्त कर लिया जिसकी मदद से आधार कार्ड को नकली तरीके से छापा जा सकता था। इसके बावजूद UIDAI ने अपनी गलती नहीं मानी और आधार डाटा गलत तरीके से पाने के आरोप में ट्रिब्यून के पत्रकार के खिलाफ ही FIR दर्ज करवा दी।
जिस लापरवाही के लिए UIDAI के खिलाफ आपराधिक मुक़द्दमा चलना चाहिए था वह उल्टे उस व्यक्ति के खिलाफ चलने लगा जिसने UIDAI की कमियों को दिखाया था, जिसने नागरिकों के हित की बात की थी। वास्तव में यह बेमानी और धोखाधड़ी इसलिए हो रही थी क्योंकि आधार का निर्माण इन चुनौतियों से निपटने के लिए नहीं किया गया था लेकिन सरकार की जिद और लापरवाही से करोड़ों भारतीयों का डाटा संकट में आ चुका था। यही हाल झारखंड में हुआ। वहाँ की एक सरकारी वेबसाइट ने 16 लाख पेंशन कर्मियों की सभी व्यक्तिगत जानकारियों को लीक कर दिया। इतने सबके बावजूद सरकार नहीं जागी और आधार को पर्याप्त सुरक्षा के बिना भी लोगों की मेहनत की कमाई और व्यक्तिगत जानकारियों से खेलने दिया गया।
सरकारी अनदेखी और लापरवाही का एक और नमूना सेबी के पूर्व प्रमुख और UIDAI के पहले महानिदेशक आर एस शर्मा के उतावलेपन के रूप में सामने आया जिसने पूरे विश्व में भारत की तकनीकी छवि को धूमिल कर दिया। शर्मा ने आत्म विश्वास के साथ अपनी आधार संख्या ट्विटर पर डालते हुए चुनौती दी कि यदि किसी में हिम्मत हो तो मेरे आधार संख्या से मेरा नुकसान करके दिखाए। खैर, परिणाम यह हुआ की उनके आधार संख्या पर गूगल ऐडसेन्स में फर्जी अकाउंट तैयार हो गया और शर्मा को शर्मसार होना पड़ा।
आधार की असुरक्षा को लेकर भारत सरकार को शर्मसार करने वाली रिपोर्ट विश्व आर्थिक मंच(WEF) के माध्यम से आई। WEF द्वारा जारी ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट-2019 में कहा गया कि “दुनिया में सबसे बड़ी डाटा चूक भारत में हुई जहां पहचान पत्र डाटाबेस, आधार, में बहुतायत में ऐसी चूक हुई जिसकी वजह से 110 करोड़ रजिस्टर्ड नागरिकों के रेकॉर्ड्स के साथ छेड़छाड़ हुई है...”।
WEF की यह रिपोर्ट वाकई चिंताजनक थी। लेकिन UIDAI वर्तमान मोदी सरकार की सच्ची प्रतिनिधि नजर आई। जैसे मोदी सरकार लगभग हर आरोप पर या तो चुप रह जाती है या फिर आरोपों को नकार देती है वैसे ही UIDAI भी 2018, 2019 और 2022 में आधार डाटा में छेड़छाड़ के बावजूद लगातार पूरी तत्परता से इसे नकारती रही। लेकिन आधार से संबंधित साइबर अपराधों में तेजी इतनी अधिक है कि 27 मई 2022 को UIDAI के बैंगलुरु स्थित क्षेत्रीय कार्यालय द्वारा एक प्रेस विज्ञप्ति में चेतावनी देते हुए कहा गया कि “अपने आधार कार्ड की फोटोकापी किसी संगठन के साथ शेयर न करें क्योंकि इसका दुरुपयोग हो सकता है...”। यह चेतावनी आधार की अपनी खामियों की ओर आधार प्राधिकरण की तरफ से ही स्वीकारोक्ति है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ऐसी चेतावनियाँ देरी से और यदाकदा ही आती हैं जिसकी वजह से आम नागरिक सचेत नहीं हो पाते।
सुप्रीम कोर्ट में आधार मामले में सुनवाई के दौरान भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने एक हास्यास्पद दावा करते हुए कहा था कि “आधार डाटा एक 13 फुट ऊंचे और 5 फुट चौड़ी दीवार वाले भवन के अंदर पूरी तरह से सुरक्षित है”। आज के दौर के कंप्युटर में सुरक्षित आंकड़ा सिर्फ किसी दीवार के भरोसे खुद को हमेशा नहीं बचाए रह सकता। इसे लगातार सुरक्षित रखने के लिए 24@7 तकनीकी सहयोग के साथ साथ समस्याओं को सुनने और स्वीकारने वाला तंत्र भी चाहिए जो कि भारत में लगभग हर संस्था से विलुप्त हो चुका है।
जिस दुनिया में डाटा ही मुद्रा बन चुका हो वहाँ भारत जैसा देश जहां 140 करोड़ आबादी निवास करती है वहाँ की मुद्रा खुलेआम इंटरनेट में बिकती रही और सरकार व उसकी एजेंसियाँ कुछ नहीं कर पाईं। आधार सक्षम भुगतान प्रणाली में उपस्थित समस्याओं की वजह से उन गरीब नागरिकों का पैसा चोरी हो रहा है जिन्होंने प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया अभियान और जनधन योजना पर पूरा भरोसा जताते हुए अपनी गाढ़ी कमाई को उन खातों में रखा जिनकी सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त करने की जिम्मेदारी सरकार ने नहीं निभाई। अभी वर्ष 2022 में ही तेलंगाना सरकार ने AePS के माध्यम से धोखाधड़ी को लेकर शिकायत दर्ज की थी इसके बावजूद UIDAI द्वारा कोई सुधार नहीं किया गया। सरकारी लापरवाही और नाकामी से न सिर्फ देश के नागरिकों का पैसा चोरी हो रहा है बल्कि सरकार का यह रवैया धीरे-धीरे वित्तीय संस्थाओं से लोगों के टूटते भरोसे का भी कारण बन रहा है।
नेतृत्व में व्याप्त दूरदर्शिता के अभाव से अली और बजरंगबली तो मुद्दे बन जाते हैं लेकिन देश में व्याप्त ‘डिजिटल-डिवाइड’ और ‘डिजिटल-लिटरेसी’ कभी मुद्दा नहीं बन पाती। आधार का कानून और और आधार की उपयोगिता तो जोर शोर से बताई जाती है लेकिन सरकार में कोई यह नहीं बताता कि सिनेमा हाल और होटलों द्वारा नागरिकों के आधार कार्ड की डीटेल रखना एक अपराध है। जिस देश में सिर्फ 20% लोग ही इंटरनेट उपयोग कर पाते हैं(INSO) वहाँ बहुत बड़ी जनसंख्या यह कभी पता ही नहीं कर पाएगी की उसके आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ हुई या नहीं! वह यह भी नहीं जान पाएगा कि इस छेड़छाड़ का क्या और कितना नुकसान होगा और इससे उसका और उसके परिवार का भविष्य कैसे और कितना प्रभावित होगा?
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