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‘ह्वाट् इज इन ए सरनेम’: जातिप्रथा और जातिगत आरक्षण

कभी कभी कुछ रचनाएँ भी अजीब तरह की यात्राएँ करती हैं। मिसाल के लिए चर्चित नाटककार अशोक लाल के एक नाटक को लीजिए। उन्होंने लगभग चालीस साल पहले एक नाटक लिखा `ह्वाट इज इन ए सरनेम’ और तब के अपने फिल्मकार मित्र रमेश तलवार को पढ़ने के लिए दिया। रमेश तलवार को ये रचना इतनी अच्छी लगी कि कहा कि मैं तो इसके ऊपर फिल्म बनाऊंगा, नाटक बाद में कर लेना। `तेरा नाम मेरा नाम’ नाम से फिल्म बन भी गई जो सराही भी गई और दूरदर्शन पर भी दिखाई गई। इस तरह एक लिखित नाटक मंचित होने के पहले ही फिल्मी रंग में ढल गया। 

बहरहाल, आगे चल कर ये नाटक मंचित भी हुआ और होता रहा। कई निर्देशकों ने इसे किया। पिछले सप्ताहांत `अंतराल थिएटर ग्रूप’ ने युवा निर्देशक फहद खान के निर्देशन में इसे खेला। स्थान था दिल्ली के हौज खास के इलाके में ‘एनएनबी इंडिया सेंटर फॉर ब्लाइंड वीमेन’ का सभागार। एक छोटा स्थल लेकिन आत्मीय माहौल वाला। 

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`ह्वाट इज इन ए सरनेम’ में दो मसलें हैं। पहला है जातिप्रथा और आरक्षण। भारतीय समाज में दलितों से सामाजिक स्तर पर भेदभाव का लंबा सिलसिला रहा है जो आज भी कायम है और आरक्षण की व्यवस्था होने के बावजूद उनके प्रति ऊंची जातियों का दृष्टिकोण नहीं बदला है, बदला भी है तो बहुत कम।  नाटक का दूसरा पहलू है हास्य। यानी इस नाटक में एक सामाजिक समस्या को कॉमेडी के शक्ल में पेश किया गया है। इन दोनों की वजह से नाटक की सामाजिक प्रासंगिता भी बनी रही और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन भी हुआ।

कुल क़िस्सा है कि दो दोस्त हैं-  रवि अग्निहोत्री (गुरिंदर सिंह) और रवि परमार (अमान अहमद)। उपनाम यानी सरनेम से जाहिर है एक ब्राह्मण है और दूसरा दलित। दोनों रवि गहरे मित्र हैं हालांकि उनके बीच जाति को लेकर कोई तनाव नहीं। ऐसे में तनाव लाने के लिए या ये कहें कि नाटक को आगे बढ़ाने के लिए एक लड़की भी होना चाहिए।  सो एक लड़की है अपर्णा शर्मा (सरिता उपाध्याय)।  वो भी ब्राह्मण है लेकिन प्रेम रवि परमार से करती है और दोनों शादी करना चाहते हैं। पर क्या उनका परिवार इसे स्वीकार करेगा? अपर्णा के माता –पिता (शिवानी उपाध्याय- अलख त्रिपाठी) चाहते हैं कि उनकी बेटी को कोई योग्य वर मिले पर अपनी जाति का। रवि अग्निहोत्री के माता पिता  (युक्ति पुरी और विपिन चौधरी) भी अपने बेटे के लिए अपनी जाति की लड़की चाहते हैं और रवि परमार के माता – पिता (दिया नागपाल और रोहित सोनी) भी यही चाहते हैं। लेकिन शादी के पहले नौकरी चाहिए और यही बात बाधा बन जाती है। 

रवि अग्निहोत्री को लगता है कि आरक्षण के कारण रवि परमार को तो नौकरी मिल जाएगी लेकिन उसे नहीं। दोनों दोस्त हैं इसलिए उनके बीच कटुता नहीं होती और वे जुगाड़ भिड़ाने में लग जाते हैं कि कैसे इस समस्या का समाधान निकाला जाए। अपर्णा भी इसमें उनका साथ देती है। जुगाड़ ये है कि रवि अग्निहोत्री अपने को रवि परमार बताकर नौकरी पा ले और रवि परमार अपने को रवि अग्निहोत्री बताकर अपर्णा से शादी कर ले। इसी जुगाड़ को लेकर सारा नाटक है। मामला कुछ कुछ शेक्सपीयर के नाटक `कॉमेडी ऑफ एरर्स’ जैसा है। शेक्सपीयर का नाम भी बार बार आता है। खासकर शेक्सपीयर का प्रसिद्ध एक वाक्य `ह्वाट इज इन ए नेम’ यानी `नाम में क्या रखा है’   का कई बार इस नाटक में उल्लेख होता है। दरअसल नाटक का नाम भी शेक्सपीयर की उस उक्ति से प्रेरित है।
देश में अभी जातिगत आरक्षण का मामला जोर शोर से उछल रहा है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भी ये मसला गर्म रहा। इस तरह आज की राजनीति की अनुगूंज भी इस नाटक में है।
निर्देशक फहद खान की एक बड़ी खूबी ये है कि उन्होंने दर्शक को हंसाते और  लोटपोट करते हुए इस संजीदा विषय को पेश किया है। औऱ आज के दौर में चर्चा में रहे सीबीआई, विजिलेंस जैसे सरकारी  विभागों को लेकर जो चर्चाएं चल रही हैं उनको भी इसमें प्रवेश करा दिया है। नाटक में एक चरित्र पीसी अग्निहोत्री (सुमित सिंह) है जो विजिलेंस महकमे में उच्च पद पर है और जिसको रवि अग्निहोत्री जबर्दस्ती अपना चाचा बनाता है ताकि उसे नौकरी मिल जाए। एक और चरित्र है मिस्टर खन्ना (आयुष पाल) जो एक सरकारी महकमे में जम कर भ्रष्टाचार करता है और पीसी अग्निहोत्री के दबाव में ब्राह्मण रवि को नौकरी भी देता है।
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नाटक में कोई ऐसा लम्हा नहीं है जो चुस्त न हो और दर्शक को बांधे न रखे। कई हिंदी फिल्मी गीतों का भी इस्तेमाल हुआ है। एक छोटे से सभागार में इन तत्वों को समेटना भी निर्देशकीय कौशल का सबूत है। नाटककार नाटक लिख देते हैं पर उसे किस रूप में दर्शकों के सामने पेश किया जाए ये निर्देशक का ही काम है। इसी से तय होता है कि नाटक कैसा हुआ।

सभी अभिनेता दमदार हैं। नाटक में कोई एक नहीं, बल्कि सभी पात्र महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए ऐसा नहीं था कि कोई एक अभिनेता कमजोर कड़ी की तरह शामिल किया गया हो। अगर ऐसा होता तो ये प्रस्तुति भरभराकर गिर जाती। पर हर अभिनेता अपने संवाद और कॉमिक टाइमिंग में मंजा हुआ है। लगभग सवा घंटे का ये नाटक पूरी तरह कसा हुआ है और कहीं कोई विचलन नहीं होता। जब किसी बड़े प्रेक्षागृह में इसका मंचन होगा तो ये और भी सफल होगा क्योंकि इसका संगीत और इसमें जो नृत्य है उनका समग्र और समन्वित प्रभाव और भी निखर कर आएगा। जिसको आज के मनोरंजन उद्योग की भाषा में हिट कहा जाता है वैसी सफलता के सारे तत्व इसमें मौजूद हैं।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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