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वाजिद अली शाह: सच्ची दास्तानों के आगे कहाँ टिकते हैं झूठे क़िस्से?

इतिहास को विकृत करने की, एक नया और फर्ज़ी इतिहास बनाने की जो कोशिशें बीते कुछ दिनों से लगातार चल रही हैं, क्या किस्सों-कहानियों और दास्तानों से उनका जवाब दिया जा सकता है? यह सवाल या ख़याल इस शनिवार हिमांशु वाजपेयी और प्रज्ञा शर्मा की दास्तानगोई सुनते हुए आया। दास्ताने जाने आलम नाम से पेश यह दास्तान अवध के नवाब वाजिद अली शाह की है जिनको लेकर अतीत में बहुत सारे झूठे-सच्चे किस्से बुन दिए गए हैं। मसलन, यह माना जाता है कि वाजिद अली शाह बहुत रंगीन तबीयत वाले अय्याश नवाब थे और इसी अय्याशी की वजह से वे गिरफ़्तार कर लिए गए। लेकिन हिमांशु और प्रज्ञा शर्मा की दास्तान बताती है कि वे नृत्य और संगीत के शौकीन और संरक्षक ज़रूर थे, लेकिन अपनी रियाया का भी पूरा खयाल रखते थे। दूसरी बात यह कि उन्हें कभी गिरफ़्तार नहीं किया गया था। तीसरी बात यह कि वे अंग्रेज़ों की शर्त मानने को तैयार नहीं थे। चौथी बात, यह दास्तान बताती है कि ब्रिटिश शासन किस बेईमानी और धोखे से भारत में फैला था। नवाब वाजिद अली शाह के ख़िलाफ़ भी कैसी साज़िशें हुईं और उनके अपने लोग उसमें कैसे शरीक थे।

जो सबसे महत्वपूर्ण बात इस दास्तान में उभर कर आई, वह उस गंगा-जमनी तहज़ीब से जुड़ी थी जिसे नवाब वाजिद अली शाह ने और गहराई दी। उन्होंने राधा और कृष्ण की कथा पर नाटक लिखा जिसे उर्दू का पहला नाटक माना जा सकता है, इस नाटक के लिए हिदायतें लिखीं जो उन्हें पहला निर्देशक भी ठहराती हैं और इसके मंचन के लिए उन्होंने प्रेक्षागृह बनवाया जिसे उर्दू का पहला थिएटर कहा जा सकता है। हिमांशु एक दिलचस्प किस्सा यह बताते हैं कि इस नाटक की तैयारी देखते हुए नवाब वाजिद अली शाह कृष्ण का मुकुट देखकर हैरान रह गए- वह सोने और चांदी का प्रभाव पैदा करने के लिए उन दिनों के प्रचलन के मुताबिक़ तांबे और अबरख से तैयार किया गया था। नवाब ने फौरन हुक़्म दिया कि जो दुनिया के बादशाहों का बादशाह है, उसका मुकुट तांबे-अबरख का नहीं हो सकता। इसके बाद ये मुकुट असली रत्नों का बनवाया गया। 

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हिमांशु की यह दूसरी दास्तान थी जो मैंने सुनी थी। इसके पहले साहिर लुधियानवी पर तैयार उनकी दास्तान सुनने का अवसर कानोता कैंप में मनीषा कुलश्रेष्ठ के कथा-कहन कार्यक्रम के दौरान मिला था। उस दास्तान ने भी मुझे प्रभावित किया था- लेकिन इसे देखते हुए लगा कि हिमांशु अपने फ़न में कुछ और माहिर हुए हैं और इसकी तैयारी में ख़ासी मेहनत लगी है। हिमांशु ने बताया भी कि तीन साल तक वे अलग-अलग किताबों के अध्ययन से सारी जानकारी जुटाते रहे, उन्हें दास्तान में ढालने से पहले मुकम्मिल तौर पर अपने भीतर जज़्ब होने दिया और फिर इसे दास्तान की शक्ल दी। उनका दावा है कि उन्होंने जो पेश किया है वह बिल्कुल प्रामाणिक इतिहास है जिसकी पुष्टि उस समय पर लिखे इतिहास और साहित्य से होती है।

हिमांशु के अलावा दिल्ली में महमूद फ़ारूक़ी और उनकी टीम की दास्तानें देखने का मौक़ा मिलता रहा है। फ़ारूक़ी को दरअसल भारत में दास्तानगोई की गुम हुई विधा को फिर से जीवित और खड़ा करने का श्रेय दिया जा सकता है। उन्होंने दास्तानगोई को लगभग आंदोलन में बदल दिया जिसके साथ बहुत सारी और धाराएं जुड़ती चली गईं। उनकी दास्तानों की किताबें भी अब हिंदी में प्रकाशित हो चुकी हैं।

इन सब दास्तानों से गुज़रते हुए बरबस यह ख़याल आता है कि दास्तानगोई अपनी विरासत और अपने शिल्प की वजह से मौजूदा समय में प्रतिरोध की सबसे कारगर विधा है। 

दास्तानगोई हिंदुस्तानी तहज़ीब के उस सबसे रोशनखयाल हिस्से को सामने ला रही है जिस पर इन दिनों सांप्रदायिक ताक़तें सबसे ज़्यादा हमले कर रही हैं। इस ढंग से सोचें तो दास्तानें फिर से अपनी ऐतिहासिक भूमिका में हैं। तहज़ीब के बिल्कुल शुरुआती दौर में- जब भाषा बन ही रही थी और संवाद शुरू ही हुआ था- तब अलावों के आसपास साझा किए जाने वाले क़िस्सों के जाल ने रिश्तों की पहली नींव रखी, तसव्वुर का वह जादू बुना जिसने हमें आपस में जोड़ा और आने वाले दिनों की इमारत की तामीर की। ये कहानियां शक़्लें बदल-बदल कर इंसान के सफ़र में हमेशा साथ चलती रही हैं- कभी लिखे हुए अफसानों की शक्ल में, कभी नाटकों के तौर पर, कभी उपन्यासों के रूप में और कभी फिल्मों के ज़रिए। 
अब ये कहानियां दास्तानगोई की मार्फ़त नए सिरे से हमारे सामने हैं और हमें अपनी यादों, अपनी विरासत, अपने अतीत से जोड़ते हुए वह असली इतिहास याद दिला रही हैं जिसे मिटाने-बदलने की कोशिश बिल्कुल सत्ता के शिखर से हो रही है।

कई बातें हैं जो दास्तानगोई को इस प्रतिरोध की सबसे कारगर विधा में बदलती हैं। ख़ासकर अपने आधुनिक अवतार में यह हिंदी-उर्दू की साझा कोख से- हिंदुस्तानी ज़ुबान से- निकली हुई विधा है। इसमें जो कहानियां चुनी या तैयार की जा रही हैं, वे समकालीन समय से मुठभेड़ करती दिखाई पड़ती हैं। हिमांशु की साहिर की दास्तान हो या वाजिद अली शाह की- दोनों में यह बात साझा तौर पर रेखांकित किए जाने लायक है कि इनको बनाने में आपसी मेलजोल और मोहब्बत की मिट्टी लगी है, ये कहानियां देवताओं को बांटती नहीं, जोड़ती हैं- इनमें ‘एक होकर सेफ होने’ की चालाकी नहीं, सारी विविधताओं का सम्मान करते उनके बीच सांस लेने की जगह बनाए रखने की मनुष्यता है।

महमूद भी नए मिज़ाज और नए दौर की दास्तानें ही कहते रहे हैं। दास्तानों में क़िस्सों और घटनाओं के बीच चुटीली टिप्पणियां डाल देना, समकालीन स्थितियों पर एक चोट कर देना या अतीत से कोई सबक उठा लेना या दुनिया भर के अनुभव और अदब के हिस्सों को पिरो देना वह दूसरा कौशल है जो इन सारी दास्तानों को आधुनिक बनाता है।

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सबसे बड़ी बात यह है कि इन दास्तानों के लिए बहुत साधन और तामझाम नहीं चाहिए- बस मेहनत, लगन और समर्पण चाहिए। इन्हें कहीं भी पेश किया जा सकता है।

इन सबके बीच यह खयाल भी चला आ रहा है कि अब तक ये दास्तानें मोटे तौर पर कुलीन दर्शकों के बीच ही कही जाती रही हैं- बेशक, साहित्य समारोहों में या जश्ने रेख्ता जैसे आयोजनों में बहुत सारे आम लोग और छात्र भी होते हैं- लेकिन इनको और ज़्यादा दूर तक फैलाने की ज़रूरत है। हमारे समय में जब दमन के नए-नए तरीक़े निकाले जा रहे हैं तो हमें भी प्रतिरोध के नए-नए तरीक़े सोचने होंगे। मेरी समझ में दास्तानगोई इनमें से एक है।

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प्रियदर्शन
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