टीसीएस हैदराबाद में बतौर इंजीनीयर कार्यरत 32 वर्षीय मनु तनेजा को कोरोना काल में उपजे लॉकडाउन ने वर्क फ्रॉम होम का तोहफा दे दिया। मनु के लिए यह हरियाणा की कहावत ‘बिल्ली के भागों छींका टूटा’ के चरितार्थ होने से कुछ कम तो नहीं था। मनु को वर्क फ्रॉम होम का स्वाद कंपनी द्वारा नॉर्वे पोस्टिंग में लग गया था। पर हिंदुस्तान और नॉर्वे में जो अंतर है उसके कई कारण हैं जिन्हें मनु समझ पाए।
बहरहाल, तकनीक ने इस लॉकडाउन में पूरी दुनिया पर गहरा असर डाला है या यूँ कहें कि शायद ही कोई वर्ग अब तकनीक से प्रभावित हुए बिना बचा है। भारत के संदर्भ में इस बदलाव को कई कसौटियों पर कस के देखा जा सकता है।
विविधताओं से भरे भारत देश में सामाजिक विविधता घर की दहलीज पार करने भर में दिख जाती है, जाहिर है तकनीक ने भी घर की दीवार या बिना दीवार के घर पर असर दीवार की मज़बूती के मुताबिक़ ही डाला है। लॉकडाउन में बच्चों के स्कूल से लेकर युवाओं के कॉलेज और दफ्तर बेशक बंद हो गए पर ज़ूम मीटिंग ऐप, गूगल मीट और अन्य तकनीकी सुविधाओं ने आभासी दुनिया को पटल पर ला कर एक क्रांति का ही आगाज कर दिया।
मनु जैसे प्रोफ़ेशनल जो लंबा रास्ता तय करके अपनी 5\5 की क्यूबिकमेज पर पहुँचते थे, वहीं कंपनी को एक क्यूबिक स्पेस के लिए हज़ारों रुपये प्रतिमाह ख़र्च करने पड़ते थे। ज़ूम मीट, गूगल मीट सरीखे ऐप ने जहाँ एक तरफ़ मनु का घर से निकल कर दफ्तर तक जाने का समय बचा दिया वहीं रास्ते के ट्रैफ़िक को भी कम करने की तरफ़ एक क़दम बढ़ाया है। कंपनियों ने भी कॉस्ट कटिंग की। जहाँ एक कर्मचारी के बैठने से लेकर उसपर ख़र्च होने वाली बिजली, कैफेटेरिया, कुर्सी, मेज से लेकर एक बड़ा स्पेस लेना पड़ता था वे सब तकनीक के कारण अब सीधे कर्मचारी की ज़िम्मेवारी बन गये हैं।
शुरुआती दौर में मनु जैसों को यह कॉन्सेप्ट बहुत पसंद आया पर यहाँ से शुरू हुआ नॉर्वे और हिंदुस्तान की सरकारों के रुख का अंतर। मनु जब नॉर्वे में थे तब वर्क फ्रॉम होम में भी काम के घंटे तय थे और साथ ही अतिरिक्त राशि इंटरनेट व स्पेस के लिए कंपनी दिया करती थी। यह सब कर्मचारियों के प्रति बने नॉर्वेजीयन सरकार की नीतियों से संभव हो सका। हिंदुस्तान में वर्क फ्रॉम होम में काम के घंटे तय नहीं, कंपनी मान कर चलती है कि घर पर ही तो हैं, जब चाहो काम दे दो। ऐसे में निजी जीवन अनियमितताओं से भर रहा है और साथ-साथ मानसिक तनाव बढ़ने लगा है।
ऐसा इसलिए हो रहा है कि हिंदुस्तान में नियमों को लागू करने वाली सरकारें और उसकी संस्थाएँ कर्मचारियों के हितों से लगभग मुँह फेरे खड़ी हैं।
मनु की ही तरह कक्षा 11 में पढ़ने वाली सौम्या दिल्ली के प्रतिष्ठित लेडी इर्विन स्कूल की छात्रा हैं। लॉकडाउन में सुबह उठ कर जाने से छुटकारा मिल गया पर तकनीक ने स्कूल को घर की मेज पर सज़ा दिया और क्लास लगने लगी। ठीक ऐसे ही अध्यापकों को घर से ज़ूम पर पढ़ाने की सुविधा मिलने लगी और स्कूल का प्रारूप ही लगभग बदलने लगा। एक बटन के क्लिक से लॉगिन हो जाना और पूरी क्लास से जुड़ जाना सभी के लिए अद्भुत अनुभव। पर सौम्या को लगता है कि स्कूल खुल जाते तो दोस्तों के साथ हंसी-ठिठोली होती, अपनी नई घड़ी दिखाती तो कोई अपना खाना बाँट के खा पाता। बेशक तकनीक ने क्लास रूम को घर में पहुँचा दिया पर खेल के मैदान और भावनात्मक जुड़ावों के बाहर निकलने की जगह कुछ कम हो गई है।
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घर संभालने वाले महिला-पुरुषों को बेशक लॉकडाउन में कैद होना पड़ा पर घर के राशन से लेकर शॉपिंग तक ग्रोफर्स, अमेज़न सरीखे प्लैटफ़ॉर्म पर उपलब्ध हो गया है। ऐसा नहीं था कि यह सब लॉकडाउन में ही अस्तित्व में आया पर लॉकडाउन ने जो आलस तकनीक और उससे जुड़ी सुविधाओं को लेकर आमजन में था उसे काफ़ी हद तक दूर कर दिया। डिजिटल पेमेंट के गेटवे लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
64 वर्षीय शोभा की शिक्षा पाँचवीं कक्षा तक है पर स्मार्ट फ़ोन ने उन्हें काफ़ी स्मार्ट बना दिया। लॉकडाउन में उन्होंने वीडियो काल करने से लेकर अकेलेपन का हल सोशल मीडिया से जुड़ कर निकाल लिया। मेट्रो कार्ड को पेटीएम से रिचार्ज कर लेती हैं और अस्पताल का अपना अपॉइंटमेंट भी फ़ोन पर ही बुक कर लेती हैं। इन सबको संभव बनाया तकनीक ने।
तकनीक की उपलब्धता और उसके इस्तेमाल की तसवीर से अलग एक और तसवीर है जिसने समाज के एक बहुत बड़े तबक़े को अन्य सबसे इतना दूर खड़ा कर दिया कि ऐसी विविधता किसी भी समाज और व्यवस्था के ऊपर गहरे दाग़ छोड़ जाएगी।
मनु का वर्क फ्रॉम होम अब अभिशाप बनने लगा है और उसे लगता है कि किसी भी समय पहुँच होने के नाते उसके जीवन की निजता लगभग समाप्त हो गई है। वैवाहिक जीवन और बच्चे के साथ आत्मीय मेलजोल घटता जा रहा है।
हाल ही में तेलंगाना की 19 वर्षीय ऐश्वर्या रेड्डी जो दिल्ली के लेडी श्री राम कॉलेज की छात्रा थीं सिर्फ़ इस कारण अपनी जान दे बैठीं क्योंकि लॉकडाउन में तकनीक से जुड़ कर पढ़ाई जारी रखने के लिए उनके पास लैपटॉप नहीं था। जबकि ऐश्वर्या हैदराबाद टॉप करके दिल्ली पहुँची थीं और आर्थिक रूप से ग़रीब पिता की संतान थीं। ऐश्वर्या की ही तरह लाखों बच्चे स्मार्ट फ़ोन की पहुँच से परे हैं और उनके ग़रीब अभिभावकों पर आर्थिक दबाव बढ़ता जा रहा है।
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शोभा के पास स्मार्ट फ़ोन है और अपने बच्चों से तकनीकी समझदारी हासिल कर वह अपना काम चला ले रही हैं। पर एक ग़रीब किसान या मज़दूर जो मेट्रो का सफर करता था लॉकडाउन के बाद अब मेट्रो टिकट न मिलने से कार्ड का ख़र्च डिजिटल माध्यम से करने की दशा में नहीं है। मेट्रो में अब पेमेंट नकद नहीं ली जा रही है। या तो डेबिट कार्ड या डिजिटल माध्यम से ही रिचार्ज हो सकता है, तो मज़दूर इन दोनों तकनीकों से बहुत दूर है।
यदि मध्यम वर्ग का जीवन तकनीक के इस्तेमाल से लॉकडाउन में निरंतर आगे बढ़ा है तो जो मज़दूर, किसान रिक्शे से निकल कर मेट्रो में पहुँचता था उसे फिर से रिक्शे पर बैठा दिया गया है।
तकनीक ने कोरोना महामारी से उपजे लॉकडाउन में समाज के अलग-अलग वर्गों पर अनुकूल व प्रतिकूल असर डाला है। पर सवाल है कि जब तक तकनीक की पहुँच और उसके इस्तेमाल का बौद्धिक ज्ञान समता के सिद्धांत के अनुरूप वर्गीकृत नहीं किया जाएगा तब तक तकनीक के नाम पर लिखे जाने वाले लेखों में ऐश्वर्या रेड्डी जैसे बच्चों के ही हस्ताक्षर होते रहेंगे।
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