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अंकिया भावना में `राम विजय’

भारत में कई स्थानीय और क्षेत्रीय नाट्य परंपराएँ रही हैं जिन्होंने इतिहास के लंबे कालखंड में भारतीय नाट्य कला को विस्तार और गहराई दी है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) का एक रिवाज रहा है कि वो अपने विद्यार्थियों को देश के ऐसे कुछ हिस्सों में कुछ दिनों के लिए भेजता रहा है ताकि वे स्थानीय गुरुओं या विशेषज्ञों से इन स्थानीय परंपराओं को भी सीख सकें और बाद में यानी रानावि से निकलने के बाद इन शैलियों का अपने नाटकों में प्रयोग कर सकें। पिछले हफ्ते रानावि के प्रथम वर्ष के छात्रों ने अभिमंच सभागार में असम की `अंकिया भावना’ रंग परंपरा का प्रशिक्षण पाने के बाद `राम विजय’ नाटक का मंचन किया। अध्यापक भबानंद बरबायन के निर्देशन में ये प्रशिक्षण कार्यक्रम चला था। लगभग दो घंटे का ये नाटक ये भी याद दिलानेवाला था कि भारत में कई उत्कृष्ट नाट्य परंपराएं ऐसी भी हैं जिनके बारे में देश के दूसरे हिस्सों में कम लोग जानते हैं।

इस प्रस्तुति पर बात करने के पहले `अंकिया भावना’ के इतिहास को जान लिया जाए। अतिसंक्षेप में ये कि ये सिर्फ नाट्य कला नहीं है। ये मध्यकाल के भारत की भक्ति परपंरा का भी हिस्सा रहा है जो आज भी अटूट और अबाधित रूप से जारी है। हालांकि भारत में भक्ति परंपरा के भीतर भी कई परंपराएं रहीं। 

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अलग अलग राज्यों या कहें कि विभिन्न क्षेत्रीय इलाकों और भाषाओं में जो भक्ति परंपराएं विकसित हुईं उनकी रंगतें भी अलग अलग रही हैं। असम में श्रीमंत शंकर देव (1449- 1568) की पहल से भक्ति की जो धारा बही उसमें अन्य चीजों के अलावा नाटक, संगीत और नृत्य को भी परिष्कृत किया और नए रूप विधान में बांधा। `अंकिया भावना’ उसी की एक अभिव्यक्ति है। कई धर्मों में मठों की परंपरा रही है। उसी तरह असम में भी वैष्णव मठ होते हैं जहां अलग अलग इलाकों से बच्चे आते हैं और `अंकिया भावना’ सीखते हैं। लेकिन ये सिर्फ कला नहीं है बल्कि भक्ति भी है। यानी दर्शक सिर्फ नाटक नहीं देख रहा होता है बल्कि भक्ति के आयोजन में भाग भी ले रहा होता है। पर इससे नाटक का सौंदर्य कहीं कम नहीं होता। अर्थात् कला की उत्कृष्टता बरकरार रहती है।

जहां `अंकिया भावना’ वाले नाटक होते हैं असम में उनको नामघर (कीर्तन घर) कहते हैं। वहां के गांव गांव में नाम घर हैं। वैसे `अंकिया भावना’ का एक बड़ा केंद्र असम के माजुली द्वीप में है जहां कई वैष्णव मठ है जिनको सत्रा कहा जाता है। ये सत्रा धार्मिक के अलावा सांस्कृतिक केंद्र भी होते हैं। यहाँ एक और खास बात ये है कि सत्रों में जिस `अंकिया भावना’ का प्रशिक्षण दिया जाता है उसके प्रशिक्षु मुख्यत:  पुरुष होते हैं। लेकिन इस बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की छात्राओं ने भी इसका प्रशिक्षण पाया। कह सकते हैं कि ये `अंकिया भावना’ की जमीन का विस्तार भी है। एक लगभग पांच सौ साल पुरानी परंपरा अपने क्षितिज का विस्तार कर रही है। 

`राम विजय’ नाटय में संपूर्ण रामायण नहीं है। इसमें राम और लक्ष्मण का विश्वामित्र के साथ असुरों के संहार के लिए वन जाने और फिर सीता स्वंयवर तक के ही दृश्य है। लेकिन इस प्रसंग को यहाँ जिस तरह दिखाया गया उसमें माधुर्य भी था और हास्य भी। सीता के स्वयंवर में जो अलग-अलग राजा गये थे और जो सीता से विवाह करने के लिए शिव-धनुष तोड़ना चाहते थे उनका क्या हश्र हुआ वो बड़े ही मनोरंजक और नाटकीय तरीक़े से दिखाया गया। कुछ स्थल तो हंसा हंसा कर पेट फुलानवाले थे। 
परशुराम के क्रोध वाला प्रसंग भी हिंदी भाषा में प्रचलित कुछ रामायणों से अलग था। तुलसीदास के `राम चरित मानस’ में परशुराम के साथ लक्ष्मण के साथ बहस होती है लेकिन इस नाटक में राम और परशुराम के बीच युद्ध होता है। लक्ष्मण कुछ देर के लिए बाजू में चले जाते हैं और राम परशुराम को हरा देते हैं।
नाटक में बीच बीच में नृत्य और संगीत के तत्व भी थे। नाटक की भाषा ब्रजावली थी जिसे शंकर देव जी ने खुद सीखा था और फिर अपने नाटकों में प्रयोग किया था। उन्होंने कई नाटक लिखे। `अंकिया भावना’ में मुखौटों का प्रयोग भी होता है। `राम विजय’ में अलग अलग राक्षस अलग मुखौटों में थे। मुखौटा बनाने में भी सृजनात्मकता का प्रयोग होता है। यानी विभिन्न चरित्रों के लिए भिन्न प्रकार के मुखौटे प्रयोग में लाए जाते हैं। वेशभूषा में कई तरह के रंगों का प्रयोग होता है। रंगीन से लेकर सफेद कपड़े भी। `अंकिया भावना’ में मुख्य रूप  मृदंग वाद्य प्रयोग में लाया जाता है। साथ में एक गायन मंडली भी होती है जो पदों को गाती है। 
nsd students plays ram vijay in assam 500-year-old theatre tradition  - Satya Hindi
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इस तरह `अंकिया भावना’ में सिर्फ अभिनय नहीं है, बल्कि नाटक के हर तत्व यहां होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भरत के `नाट्य शास्त्र‘ में नाट्य- कला के तहत जिन जिन तत्वों का उल्लेख हुआ लगभग वे सब नाट्य शैली है। विद्वानों के बीच ये धारणा रही है कि `नाट्य शास्त्र’ व्यावहारिक रूप से भारत में प्रयोग में नहीं लाया जा रहा था। हालांकि ये धारणा अब टूट रही है कि केरल के चाकियार `कुटिअट्टम’ में इसका प्रयोग करते रहे हैं ये सर्वविदित सा हो गया है।  अब पूरे देश को ये भी जानना चाहिए कि असम में भी ये पांच सौ साल से प्रयोग में लाया जाता रहा है।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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