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भगवान श्रीकृष्ण जिन्होंने ‘व्यवस्था’ को चुनौती दी, जुल्मी शासन का अंत किया

कृष्ण यानी हज़ारों वर्षों से व्यक्त-अव्यक्त रूप में भारतीय जनमानस में गहरे तक रचा-बसा एक कालजयी चरित्र, एक धीरोदात्त नायक, एक लीला-पुरुष, एक महान तत्वशास्त्री, एक आदर्श प्रेमी और सखा, एक महान विद्रोही, एक युगंधर… युगपुरुष।

हर समाज, देश और युग में कोई न कोई अवतार या महानायक हुआ है जिसने अन्याय और अत्याचार के तत्कालीन यथार्थ से जूझते हुए स्थापित व्यवस्था को चुनौती दी है और सामाजिक न्याय की स्थापना के प्रयास करते हुए न सिर्फ़ अपने समकालीन समाज को बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी गहरे तक प्रभावित किया है। भारत के संदर्भ में राम और कृष्ण ऐसे ही दो नाम हैं। विगत लगभग दो हज़ार वर्षों में इन दो अवतार पुरुषों ने भारतीय साहित्य और समाज को जितना प्रभावित किया है उतना शायद ही किसी अन्य कथा-नायक या अवतार पुरुष ने किया हो। राम और कृष्ण दोनों को ही विष्णु का अवतार माना गया है। राम अंशावतार माने गए हैं, जबकि कृष्ण को पूर्णावतार माना गया है। कृष्ण के चरित्र में सभी कलाओं का पूर्ण विकास हुआ है और राम के मुक़ाबले उनका व्यक्तित्व भी काफ़ी जटिल है। धर्म की रक्षा और विजय के लिए बड़े से बड़ा 'अधर्म' करने को तत्पर रहने के प्रतीक हैं कृष्ण।

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जितनी लीला, उतने नाम

कृष्ण की जितनी लीलाएँ हैं, उतने ही हैं उनके नाम भी। हर लीला के अनुरूप अलग-अलग नाम हैं। वे यशोदानंदन भी हैं और देवकीनंदन भी। नंदलाल भी हैं और वासुदेव भी। बालकृष्ण भी हैं और श्यामसुंदर भी। मुरलीधर भी हैं और गिरधारी भी। केशव भी हैं और माधव भी। गोविंद भी हैं और मिलिंद भी। नटवर भी हैं और अच्युत भी। रासबिहारी भी हैं और गोपिकावल्लभ भी। रुक्मिणीरमण भी हैं और राधारमण भी। मधुसूदन भी हैं और कंसनिषूदन भी। पार्थसारथी भी हैं और रणछोड़ भी। वे वृंदावनबिहारी भी हैं और द्वारकाधीश भी। जितना व्यापक और विविधतापूर्ण है कृष्ण का जीवन, उतनी ही व्यापक और वैविध्यपूर्ण हैं कृष्ण की लीलाएँ। किंतु कोई भी एक व्यक्ति न तो जीवन की संपूर्ण व्यापकता का अनुभव कर पाता है और न ही उसकी समग्र विविधता को आत्मसात कर पाता है। सभी अंश में जीते हैं और संपूर्ण के भ्रम में रहते हैं। तीव्रतम संवेदनाओं से युक्त कवि और भक्त भी इसके अपवाद नहीं रहे। सभी ने अपनी-अपनी मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं के अनुरूप कृष्ण-लीला चुनी, जिससे कृष्ण कथा की निधि समृद्ध होती चली गई। किसी को कृष्ण की बाल लीला ने रिझाया तो किसी को उनके प्रेमी रूप ने लुभाया।

पूर्व-पश्चिम की एकता के नायक

कृष्ण-चरित्र के अधिकृत संदर्भ मुख्यत: श्रीमद भागवत, महाभारत और हरिवंश, पद्म आदि पुराणों में मिलते हैं। इन सब ग्रंथों में वर्णित कृष्ण-चरित्र पर पिछले हज़ारों वर्षों से सापेक्ष विचारों की मनगढ़ंत परतें भी चढ़ती रही हैं। ऐसा अज्ञानतावश भी हुआ है और कृष्ण को चमत्कारी व्यक्तित्व निरुपित करने के कारण भी। फिर भी आमतौर पर उन्हें एक लोक कल्याणकारी व्यक्तित्व के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है। भागवत और पुराणों में कृष्ण भक्ति की महिमा गाई गई है तो महाभारत में उनके युगेश्वर रूप का दिग्दर्शन कराया गया है। आधुनिक भारतीय चिंतकों और विचारकों ने उन्हें राष्ट्र निर्माता युगपुरुष के रूप में प्रस्तुत किया। 

देश की स्वतंत्रता के बाद की स्वार्थसनी और समाजद्रोही राजनीति से चिंतित और उद्वेलित डॉ. राममनोहर लोहिया ने कृष्ण को भारत की पूर्व-पश्चिम (मणिपुर से द्वारका तक) की एकता का नायक माना और उनकी तुलना उदात्त और उन्मुक्त हृदय से की। जैसे हृदय अपने लिए नहीं, बल्कि शरीर के दूसरे अंगों के लिए धड़कता रहता है, उसी तरह कृष्ण का हर एक काम अपने लिए न होकर दूसरों के लिए था।

सामाजिक समरसता के प्रवक्ता

कृष्ण के बारे में कई आलोचकों ने गीता के एक श्लोक 'चातुर्वण्यम् मया सृष्टम्’ के आधार पर कृष्ण की निर्मम आलोचना की है और उन्हें वर्ण व्यवस्था का प्रणेता और पोषक निरुपित किया है। लेकिन यह आलोचना तथ्यपरक नहीं है। सच तो यह है कि कृष्ण ने सामाजिक अन्याय का प्रतिकार करने के लिए अपने जीवन में सिर्फ़ नाते-रिश्ते के बंधनों को ही नहीं तोड़ा बल्कि सामाजिक रूढ़ियों और जाति-वर्ण की बेड़ियों पर भी सुदर्शन चक्र चलाया। पौराणिक कथाओं के अनुसार कृष्ण की आठ रानियों में से एक आदिवासी थी- ऋक्षवान पर्वत के आदिवासी राजा जाम्बवान की बेटी जाम्बवती। प्रश्न उठता है कि एक आदिवासी स्त्री से विवाह करके उसे अपनी पत्नी का दर्जा देने वाला व्यक्ति भला वर्ण या जाति व्यवस्था का पोषक कैसे हो सकता है?

यही नहीं, जिसने अपना बचपन और किशोरावस्था ब्रज के ग्वाल-गोपालों के साथ बिताई हो, जिसने अवसर आने पर सारथी दारुक को रथ के भीतर बैठाकर स्वयं गरुडध्वज रथ का सारथ्य किया हो, जिसने पांडवों के राजसूय यज्ञ के दौरान आमंत्रितों के जूठे बर्तन उठाने का दायित्व स्वेच्छा से संभाला हो और जो जीवन में किसी भी कर्म को अपने लिए निषिद्ध न मानता हो, ऐसा कृष्ण आख़िर कैसे कह सकता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था का कर्ता मैं ही हूँ।

इंद्र की व्यवस्था को चुनौती

कृष्ण की एक अन्य छवि उभरती है सामाजिक क्रांति के योद्धा-नायक के रूप में। इस छवि के लिए आवश्यक सामग्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं में भी है और भागवत में भी यह उपलब्ध है। आख़िर क्रांति का नायक कौन होता है? वही, जिसके पास आदर्श समाज की कोई सुविचारित कल्पना हो और जो सड़ी-गली व्यवस्था को चुनौती देकर उसके स्थान पर नई वैकल्पिक व्यवस्था की नींव रखने की क्षमता रखता हो। तो क्या कृष्ण के पास ऐसी कोई कल्पना थी और ऐसा कोई प्रयास उन्होंने किया था या कि वे भी पुरातन व्यवस्था के ही पोषक संरक्षक या यथास्थितिवादी थे? इस सवाल का थोड़ा बहुत जवाब गोवर्धनलीला में मिलता है।

इंद्र प्रतीक थे पुरातन धार्मिक व्यवस्था के। वह व्यवस्था बंधी थी यज्ञ-याग और कर्मकांड से। ब्रजभूमि में भी इंद्र की पूजा का रिवाज़ था। माता यशोदा और बाबा नंद भी परंपरा के अनुसार इंद्र की पूजा कर उन्हें भोग लगाना चाहते थे, लेकिन बाल कृष्ण ने उनके ऐसा करने पर ऐतराज़ किया।

वे इंद्र को लगाया जाने वाला भोग ख़ुद खा गए और कहा, देखो माँ, इंद्र सिर्फ़ वास लेता है और मैं तो खाता हूँ। यशोदा और नंद बाबा ने कृष्ण को समझाया कि मेघराज इंद्र अपनी पूजा से प्रसन्न होते हैं… उनकी पूजा करो और उन्हें भोग लगाओ तो वे जल बरसाते हैं और ऐसा न करने पर वे नाराज़ हो जाते हैं। कृष्ण के गले में यह बात नहीं उतरी। उन्होंने आसमानी देवताओं के भरोसे चलने वाली इस व्यवस्था को चुनौती दी। गोपों की आजीविका को इंद्र की राज़ी-नाराज़ी पर निर्भर रहने देने के बजाय उसे उनके अपने ही कर्म के अधीन बताते हुए कृष्ण ने कहा था कि इस सबसे इंद्र का क्या लेना-देना। उन्होंने इंद्र को चढ़ाई जाने वाली पूजा यह कहते हुए गोवर्धन को चढ़ाई थी, हम गोपालक हैं, वनों में घूमते हुए गायों के ज़रिए ही अपनी जीविका चलाते हैं। गो, पर्वत और वन यही हमारे देव हैं।

तब रक्षक-प्रहरी बनकर उभरे थे कृष्ण

आसमानी देवताओं या आधुनिक संदर्भों में यूँ कहें कि शासक वर्ग और स्थापित सामाजिक मान्यताओं से जो टकराए और चुनौती दे उसे बड़ा पराक्रम दिखाने तथा तकलीफें झेलने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। अपनी पूजा बंद होने से नाराज़ इंद्र के कोप के चलते प्रलयंकारी मेघ गरज-गरजकर बरसे थे ब्रज पर। आकाश से वज्र की तरह ब्रजभूमि पर लपकी थीं बिजलियाँ। चप्पा-चप्पा पानी ने लील लिया था और जल प्रलय से त्रस्त हो त्राहिमाम कर उठे थे समूची ब्रज भूमि के गोप। अपने अनुयायियों पर आई इस विपदा की कठिन घड़ी में समर्थ और कुशल क्रांतिकारी की तरह रक्षक-प्रहरी बनकर आगे आए थे कृष्ण। उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से गोपों और गायों की रक्षा की थी।

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गोवर्धन धारण का अर्थ

कृष्ण के गोवर्धन धारण करने का एक ही अर्थ है कि जो व्यक्ति स्थापित व्यवस्था को चुनौती दे उसे मुक्त क्षेत्र का रक्षक-प्रहरी भी बनना पड़ता है। ब्रजभूमि के गोपों में इतना साहस कहाँ था कि वे इंद्र को चुनौती देते। किसी भी समाज में स्थापित मान्यताओं और व्यवस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह एकाएक ही नहीं फूट पड़ता। उसके पीछे सामाजिक चेतना और उससे प्रेरित संकल्प के अनेक छोटे-बड़े कृत्य होते हैं। कृष्ण की बाल लीला ऐसे ही कृत्यों से परिपूर्ण थी। नायक के अद्‌भुत साहस और पराक्रम को अलौकिक मानने वाली दृष्टि ने कृष्ण के इस रक्षक रूप को परम पुरुष की योगमाया या अवतार पुरुष के चमत्कार से जोड़ दिया।

लेकिन ज़्यादा संभावना यही है कि कंस के संगी-साथियों और सेवकों के अत्याचारों से पीड़ित ब्रजवासियों में कृष्ण ने अत्याचारों का प्रतिकार करने की सामर्थ्य जगाई हो। यह सामर्थ्य उपदेशों प्रवचनों से जाग्रत नहीं होती, बल्कि उसके लिए नायक को ख़ुद पराक्रम करते हुए दिखना पड़ता है।

गोप-ग्वालों में कहाँ से आई चेतना

कृष्ण लीला में जिन्हें पूतना, तृणावर्त, बकासुर, अधासुर, धनुकासुर कहकर आसुरी परंपरा से संबद्ध कर दिया गया है, वे सभी किसी न किसी रूप में क्रूरकर्मा कंस की अत्याचारी व्यवस्था से जुड़े हुए थे। वे सभी उस व्यवस्था की रक्षा के लिए और उसके दम पर ही लोगों पर अत्याचार करते थे। ऐसे सभी आततायियों से कृष्ण लड़े और जीते। इससे ही गोप-ग्वालों में इतनी जाग्रति आई कि वे देवराज इंद्र को भी चुनौती दे पाए और कंस की अत्याचारी व्यवस्था के विरुद्ध भी संगठित हो सके। क्रांति शास्त्र का सार्वकालिक और सर्वमान्य सिद्धांत है कि साहस का एक काम हज़ारों-हज़ार उपदेशों से ज़्यादा प्रभावी होता है।

कंस वध की युगांतरकारी घटना

कृष्ण के नेतृत्व में ब्रजवासियों के पराक्रम की पराकाष्ठा हुई कंस के वध में। कितनी युगांतरकारी घटना रही होगी वह जब कृष्ण ने अत्याचारी कंस के केश पकड़कर उसे सिंहासन से नीचे गिराकर उसका वध किया होगा और उसके जुल्मी शासन का अंत हुआ होगा। यशोदानंदन के साथ आए गोप-ग्वाल विजयोल्लास में झूम उठे थे और उन्होंने घोषणा की थी कि अब राज्य शक्ति हमारे हाथों में होगी। लेकिन कंस वध के पीछे कृष्ण का मक़सद उसकी सत्ता पर काबिज होना क़तई नहीं था। 

कृष्ण सत्ताकामी नहीं, क्रांतिकारी थे और यह उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व का ही प्रमाण है कि कंस वध के बाद उन्होंने ख़ुद राजसत्ता नहीं संभाली। महान उद्देश्यों के लिए संघर्षरत व्यक्तियों के लिए सत्ता कभी साध्य नहीं होती और न ही वे सत्ता को किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन का औज़ार मानते हैं।
यही वजह है कि कृष्ण ने राज सिंहासन पर ख़ुद बैठने के बजाय उस पर किसी और को बैठाया और ख़ुद शेष कामों को पूरा करने में जुट गए। इस परिप्रेक्ष्य में हम महात्मा गाँधी को कृष्ण-परंपरा का वाहक कह सकते हैं। ऐसे ही लोग एक के बाद दूसरे क्षेत्र में सामाजिक जड़ता और अन्याय की शक्तियों से जूझते हुए और जोखिमों से खेलते हुए परिवर्तन को दिशा दृष्टि देते रहे हैं। कृष्ण को भी यही दिशा-दृष्टि मथुरा से द्वारका ले गई।

द्वारका को बनाया शक्ति केंद्र

सेनारहित और संपत्तिविहीन कृष्ण-बलराम और उनका यदु कुल ब्रज से बहुत दूर द्वारका को अपने कौशल और पराक्रम के बल पर एक शक्ति केंद्र बनाने में सफल रहा। यह केंद्र इतना शक्तिशाली था कि उसने अपने सहयोगी पांडवों के साथ मिलकर न सिर्फ़ जरासंध और शिशुपाल जैसे दंभी और अन्यायी शासकों का अंत किया, बल्कि महाभारत के माध्यम से अन्याय के विरुद्ध न्याय का निर्णायक युद्ध भी लड़ा। यशोदानंदन से कंसनिषूदन तक की कृष्ण कथा तो प्रस्तावना मात्र थी। इसकी अंतिम परिणति थी अन्यायी कौरव साम्राज्य की जगह न्याय आधारित धर्म राज्य की स्थापना, भारत की पूर्व-पश्चिम एकता और योगेश्वर के रूप में कृष्ण को देवत्व की प्राप्ति में। अपनी इस लंबी संघर्ष यात्रा में कृष्ण ने मानव जीवन को उसकी संपूर्णता में समेटा है।

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अनिल जैन
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