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फोटो साभार: फ़ेसबुक/सरिता माली

मुंबई में ट्रैफिक सिग्नल पर फूल बेचती थीं, अब कैलिफोर्निया में पढ़ाएँगी

मेरा अमेरिका के दो विश्वविद्यालयों में चयन हुआ है- यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया और यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंग्टन। मैंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया को वरीयता दी है। मुझे इस यूनिवर्सिटी ने मेरी मेरिट और अकादमिक रिकॉर्ड के आधार पर अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित फ़ेलोशिप में से एक 'चांसलर फ़ेलोशिप' दी है।

मुंबई की झोपड़पट्टी, जेएनयू , कैलिफ़ोर्निया, चांसलर फ़ेलोशिप, अमेरिका और हिंदी साहित्य... कुछ सफ़र के अंत में  हम भावुक हो उठते हैं क्योंकि ये ऐसा सफ़र है जहाँ मंजिल की चाह से अधिक उसके साथ की चाह अधिक सुकून देती हैं। हो सकता है कि आपको यह कहानी अविश्वसनीय लगे लेकिन यह मेरी कहानी है, मेरी अपनी कहानी।

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मैं मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले से हूँ लेकिन मेरा जन्म और मेरी परवरिश मुंबई में हुयी। मैं भारत के जिस वंचित समाज से आई हूँ वह भारत के करोड़ों लोगों की नियति है लेकिन आज यह एक सफल कहानी इसलिए बन पाई है क्योंकि मैं यहाँ तक पहुंची हूँ। जब आप किसी अंधकारमय समाज में पैदा होते हैं तो उम्मीद की वह मध्यम रौशनी जो दूर से रह -रहकर आपके जीवन में टिमटिमाती रहती है वही आपका सहारा बनती है। मैं भी उसी टिमटिमाती हुई शिक्षा रूपी रौशनी के पीछे चल पड़ी। 

मैं ऐसे समाज में पैदा हुई जहाँ भुखमरी, हिंसा, अपराध, गरीबी और व्यवस्था का अत्याचार हमारे जीवन का सामान्य हिस्सा था। हमें कीड़े-मकोड़ों के अतिरिक्त कुछ नहीं समझा जाता था, ऐसे समाज में मेरी उम्मीद थे मेरे माता-पिता और मेरी पढ़ाई। 

मेरे पिताजी मुंबई के सिग्नल्स पर खड़े होकर फूल बेचते हैं। मैं आज भी जब दिल्ली के सिग्नल्स पर ग़रीब बच्चों को गाड़ी के पीछे भागते हुए कुछ बेचते हुए देखती हूँ तो मुझे मेरा बचपन याद आता और मन में यह सवाल उठता है कि क्या ये बच्चे कभी पढ़ पाएंगे? इनका आनेवाला भविष्य कैसा होगा? 
जब हम सब भाई- बहन त्यौहारों पर पापा के साथ सड़क के किनारे बैठकर फूल बेचते थे तब हम भी गाड़ी वालों के पीछे ऐसे ही फूल लेकर दौड़ते थे। पापा उस समय हमें समझाते थे कि हमारी पढ़ाई ही हमें इस श्राप से मुक्ति दिला सकती है।

अगर हम नहीं पढ़ेंगे तो हमारा पूरा जीवन खुद को जिन्दा रखने के लिए संघर्ष करने और भोजन की व्यवस्था करने में बीत जायेगा। हम इस देश और समाज को कुछ नहीं दे पायेंगे और उनकी तरह अनपढ़ रहकर समाज में अपमानित होते रहेंगे। मैं यह सब नहीं कहना चाहती हूँ लेकिन मैं यह भी नहीं चाहती कि सड़क किनारे फूल बेचते किसी बच्चे की उम्मीद टूटे उसका हौसला ख़त्म हो।

jnu sarita mali university of california research scholar - Satya Hindi

इसी भूख, अत्याचार, अपमान और आसपास होते अपराध को देखते हुए 2014 में मैं जेएनयू हिंदी साहित्य में मास्टर्स करने आई। सही पढ़ा आपने 'जेएनयू' वही जेएनयू जिसे कई लोग बंद करने की मांग करते हैं, जिसे आतंकवादी, देशद्रोही, देशविरोधी, पता नहीं क्या क्या कहते हैं, लेकिन जब मैं इन शब्दों को सुनती हूँ तो भीतर एक उम्मीद टूटती है। कुछ ऐसी ज़िंदगियाँ यहाँ आकर बदल सकती हैं और बाहर जाकर अपने समाज को कुछ दे सकती हैं यह सुनने के बाद मैं उनको ख़त्म होते हुए देखती हूँ।

यहाँ के शानदार अकादमिक जगत, शिक्षकों और प्रगतिशील छात्र राजनीति ने मुझे इस देश को सही अर्थों में समझने और मेरे अपने समाज को देखने की नई दृष्टि दी। जेएनयू ने मुझे सबसे पहले इंसान बनाया। यहाँ की प्रगतिशील छात्र राजनीति जो न केवल किसान-मज़दूर, पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों, ग़रीबों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के हक़ के लिए आवाज़ उठाती है बल्कि इसके साथ -साथ उनके लिए अहिंसक प्रतिरोध करने का साहस भी देती है। 

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जेएनयू ने मुझे वह इंसान बनाया, जो समाज में व्याप्त हर तरह के शोषण के ख़िलाफ़ बोल सके। मैं बेहद उत्साहित हूँ कि जेएनयू ने अब तक जो कुछ सिखाया उसे आगे अपने शोध के माध्यम से पूरे विश्व को देने का एक मौक़ा मुझे मिला है। 2014 में 20 साल की उम्र में मैं जेएनयू मास्टर्स करने आई थी और अब यहाँ से एमए, एम.फिल की डिग्री लेकर इस वर्ष पीएडडी जमा करने के बाद मुझे अमेरिका में दोबारा पीएचडी करने और वहाँ पढ़ाने का मौक़ा मिला है। पढ़ाई को लेकर हमेशा मेरे भीतर एक जूनून रहा है। 22 साल की उम्र में मैंने शोध की दुनिया में क़दम रखा था। खुश हूँ कि यह सफ़र आगे 7 वर्षों के लिए अनवरत जारी रहेगा।

(सरिता माली के फेसबुक वाल से)

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सरिता माली
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