समाज में कई तरह के नाटक होते हैं। कुछ लोगों के लिए नाटक कलात्मक अभिव्यक्ति है और वे इसमें सच और सौंदर्य़ का अनुसंधान करते हैं। पर कुछ निर्दशक अपने नाटकों में समाज या देश के किसी महापुरुष की महिमा या शौर्यगाथा को दिखाते है। वैसे ये भी रंगमंचीय अभिव्यक्ति का एक माध्यम हैं। पिछले दिनों दिल्ली के श्रीराम सेंटर में युवा रंगकर्मी व निर्देशक वरुण शर्मा के निर्देशन में हुआ `छत्रपति शिवाजी महाराज’ नाटक इसी दूसरी श्रेणी के तहत आता है जिसमें मराठा वीर शिवाजी के जीवन के कुछ अध्याय मंच पर दिखाए गए।
शिवाजी को भारतीय समाज में नायक माना जाता है। उनको और उनके पुत्र
संभाजी को लेकर मराठी में उपन्यास भी लिखे जा रहे है और नाटक भी हो रहे हैं।
हालांकि शिवाजी की भी दो छवियां हैं। एक छवि में वे मुगल और दूसरे मुसलिम शासकों के खिलाफ संघर्ष करने वाले वीर हिंदू योद्धा हैं
औऱ दूसरे में महाराष्ट्र के उस पिछड़े समाज को जगानेवाले हैं जिनको आज की शब्दवली
में बहुजन कहते हैं। शिवाजी और उनके मराठा सरदारों को लेकर फिल्म बनने का सिलसिला
आज भी जारी है। सिर्फ मराठी में नहीं बल्कि हिंदी में भी। कुछ समय पहले अजय देवगन केंद्रित
फिल्म `तान्हाजी’ भी उसी कड़ी में थी। ये फिल्म
शिवाजी पर नहीं थी पर उनके एक सरदार तान्हाजी या तानाजी पर थी।
बहरहाल, वरुण
शर्मा के निर्देशन में हुए `छत्रपति शिवाजी महाराज’ की बात करें तो इसका मकसद शिवाजी
की उस शौर्यगाथा को दिखाना था जिसका संबंध
शाइस्ता खान, औरंगजेब आदि से उनके युद्ध से जुड़ा रहा है। ये कहानियां भी जन मानस
में प्रचलित हैं। वरूण ऩे उन कहानियों और
प्रसंगों को जिस माहौल में पेश किया उसका स्वर मोटे तौर पर वही था जिसे हिंदी समाज
के लोग रीतिकाल के दौर के पर वीर काव्य के कवि भूषण की कविताओं में पढ़ते औऱ सुनते
रहे हैं।
उनकी कविताओं के कारण शिवाजी सिर्फ मराठा वीर नहीं रहे बल्कि हिंदी भाषा इलाके में भी उनकी कीर्ति फैल गई जो आज तक कायम है। आकस्मिक नही कि इस प्रस्तुति में भी भूषण की कविताओं का बार बार उल्लेख हुआ। इस कवि की ओजपूर्ण वाणी का यहां सिर्फ इस्तेमाल भर नहीं हुआ है बल्कि उसका मिजाज, उसकी भंगिमा और उसका भाव भी पूरे नाट्क में मौजूद है।
शिवाजी पर खेले गए नाटक का एक दृश्य
ये सही है कि इस तरह के नाटकों की अपनी लोकप्रियता
समाज में है और वरुण ने भी अपने हालिया रंगकर्म और लगातार सक्रियता से दिल्ली में
अपना एक दर्शक समूह बनाया है। लेकिन ये भी सही है कि हर रंगकर्मी या निर्देशक को
अपने रंगकर्म के बारे में गहराई से सोचते रहना चाहिए। इसलिए कि रंगमंच कई कला
विधाओं का समुच्चय होने के बावजूद अभिनय प्रधान कला माध्यम है और इसका एक आशय ये
है एक अभिनेता कई तरह का बारीकियां सीखता है और फिर मंच पर उनको प्रदर्शित करता
है। अगर किसी नाटक में अभिनय का एक ही
लहजा हर अभिनेता दिखाए तो धीरे धीरे नाटक एकरसता की तरफ बढ़ने लगता है और उसमें
शैलियों का वैविध्य नहीं रहता।
वरुण की इस प्रस्तुति में भी ये होता है और लगभग सभी अभिनेता वीरता से ओतप्रेत शैली में ही अपने संवाद बोलते हैं। हर समय। इस कारण वे लम्हें उनसे छूट जाते हैं जहां भावों की गहराई दिखाने की जरूरत होती है। वे हमेशा एक आक्रामक मुद्रा अपनाए रखते हैं।। हालांकि कुछ जगहों पर हास्य का भी इस्तेमाल हुआ है पर कुल मिलाकर हर अभिनेता एक लड़ाका की भूमिका ही निभाता हुआ लगता है। क्या शिवाजी या उनकी मां जीजा बाई के कुछ अपने ऐसे क्षण भी होंगे जिसमें वे कुछ सोचते, विचारते या भावपूर्ण मंत्रणा भी करते होंगे? या वे हर पल अपने तीर प्रत्यंचा पर ही चढाए रहते थे? निर्देशक को इन सबके बारे में भी सोचना चाहिए। जब हर अभिनेता एक ही लहजे में अपने को पेश करेगा तो उसका असर अभिनय के साथ साथ प्रकाश व्यवस्था औऱ संगीत पर भी पड़ता है।
इसके बावजूद ये भी कहना
होगा कि इसमे मूवमेट औऱ कोरियोग्राफी का भी बहुत अच्छा इस्तेमाल हुआ है। कुछ
अभिनेता भीड़ से बाहर निकलकर अपनी छाप
छोड़ते हैं। भीड़ इसलिए कि इसमें लगभग सौ के करीब रंगकर्मियों ने काम किया है।
ज्यादातर अभिनेता और बाकी प्रकाश- संगीत आदि में। जिन अभिनेताओं का काम याद में
बसा रह जाता है उनमें प्रमुख हैं बाजी प्रभु देशपांडे की भूमिता में राहुल शर्मा ।
राहुल अपनी भावभंगिमा और अपनी आंखों के सहारे भी कई स्थलों पर अपने को अभिव्यक्त
करते हैं । गोपीनाथ काका की भूमिका में प्रियांश भी कई स्थलों पर माहौल को बदलते
हैं।
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