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किताबों का मेला, मेले में हम

तीन साल बाद दिल्ली में लगे अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में उमड़ी भीड़ बताती है कि पढ़ने की आदत भले कम हुई है, किताबों के प्रति लोगों का आकर्षण कम नहीं हुआ है। वे अब भी किताबों को देखना, छूना, ख़रीदना, समय मिले तो पढ़ना और अपनी आलमारियों में रखना चाहते हैं। यह जो अंदेशा जताया जा रहा है कि किताबें पुराने दौर की चीज़ होती जा रही हैं, कि अब उनके बहुत सारे विकल्प आ चुके हैं, कि नई पीढ़ी किताबें पढ़ने के मुक़ाबले यूट्यूब देखना और ऑनलाइन पढ़ाई करना ज़्यादा पसंद करती है, एक हद तक सच होते हुए भी बिल्कुल अंतिम नहीं है। 
जाने-माने इतालवी उपन्यासकार और बुद्धिजीवी उम्बेर्तो इको और फ्रेंच पटकथा लेखक जां क्लाद केरियर की बातचीत से बनी किताब 'दिस इज़ नॉट द एंड ऑफ द बुक' का खयाल आता है जिसमें दोनों विद्वान यह मानते हैं कि स्मृति के संरक्षण के लिए जो बहुत सारे तकनीकी और शाश्वत लगने वाले माध्यम आए, वे सब कुछ वर्षों के अंतराल पर नष्ट होते चले गए, जबकि किताबें मनुष्य के सबसे भरोसेमंद साथी की तरह अब भी बची हुई हैं। 
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लेकिन पुस्तक मेले की भीड़ के आधार पर हम पुस्तक-संस्कृति के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। यह सच है कि इंटरनेट के विस्तार और ऑनलाइन माध्यमों की सर्वसुलभता ने हमारे जीने, सोचने, पढ़ने और चीज़ों को याद रखने का ढंग चुपचाप बदल दिया है। अब हमारे पास पुरानी एकाग्रता नहीं बची है। हमारे पास सब कुछ बड़ी तेज़ी से आता है और उतनी ही तेज़ी से विलीन हो जाता है। बहसें बदल जाती हैं, उनके केंद्रीय चरित्र बदल जाते हैं, उनकी तकलीफ़ या त्रासदी जिस गति से घटित होती है, हमारी चेतना पर पड़ती है, उसी गति से भाप बनकर उड़ भी जाती है। 
पता चलता है कि हमारे सारे सरोकारों की उम्र दो-तीन दिन से ज़्यादा की नहीं है। फिर सोशल मीडिया हमें एक तरह की भावविहीनता में धकेलता चलता है। हम एक पोस्ट पर जन्मदिन की बधाई लिखते हैं, दूसरी पोस्ट पर किसी की मृत्यु का शोक जताते हैं और तीसरी पोस्ट पर विवाह की शुभकामना दे डालते हैं। एक मिनट के भीतर यह तीन तरह की प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि दरअसल हम कुछ भी महसूस करना भूल गए हैं। हम बस एक औपचारिकता की तरह अदृश्य संबंधों के निर्वाह में लगे हैं और उसी को अपनी थाती भी मान बैठे हैं। 

सामाजिक पर्यावरण से पैदा हुआ इकहरापन हमारी राजनीति को भी खोखला बना रहा है और हमारे सरोकारों को भी बहुत उथला छोड़ दे रहा है। देश या धर्म या किसी भी तरह के विचार को हमने बहुत इकहरे प्रतीकों में बदल डाला है और उसके साथ अपनी पहचान इस तरह जोड़ दी है कि उससे जरा भी विचलन या असहमति हमें मंज़ूर नहीं होती। हम बड़ी आसानी से हिंसक हो उठते हैं, बड़ी सहजता से सांप्रदायिक और दूसरों को पराया या अन्य मानने में हमें कोई दुविधा नहीं होती।


पुस्तक मेले पर लौटें। बहुत सारे लोगों के लिए यह मेला बरसों से दूर-दूर रहे लेखकों-पाठकों से मिलने का अवसर था। पहले मेले में किताब खरीदना भी एक अहम लक्ष्य हुआ करता था, क्योंकि हमारे शहरों में कोर्स की किताबों के अलावा दूसरी तरह की किताबों की दुकानें लगातार घटती जा रही हैं। लेकिन बीते वर्षों में ऑनलाइन खरीदारी की सहूलियत ने यह संकट भी मिटा दिया। तो बस किताबों खरीदने के लिए लोग पुस्तक मेले में नहीं आए, बेशक वे बस मेल-मिलाप के लिए भी नहीं आए, मेले में आने वालों में बहुत बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो शायद किताबों से अपनी पुरानी मोहब्बत को याद रखते हुए यहां तक खिंचे आए थे, जो शायद चाहते थे कि उनके बच्चे भी उन्हीं की तरह किताबें पढ़ें। मगर लोग जिस वजह से भी आए, जब किताबें सामने आ गई तो उन्होंने उन्हें ख़रीद भी लिया। 

ऐसा लगा कि मेले में बहुत सारे लोगों को किताबें ललचा रही हैं। अरसे बाद वह इतनी सारी किताबों के बीच थे। क्या इत्तिफ़ाक़ है कि मेले में बहुत शोर था, बहुत तरह की आवाज़ें थीं मगर सबसे कम आवाज़ें मोबाइल की घंटियों की थीं जो हमारे जीवन में बहुत आम हो चुकी हैं।


यह सच है कि वहां मोबाइल कनेक्शन आसानी से नहीं मिल रहे थे, लेकिन यह बात अमूमन किसी को ज़्यादा अखर नहीं रही थी। मोबाइल का इस्तेमाल कैमरों की तरह हो रहा था। लोग सेल्फी पर सेल्फी लिए जा रहे थे। मगर किताबों से यह मोहब्बत बची क्यों है? क्यों लोग चाहते हैं कि बच्चे किताबें पढ़ें? शायद इसलिए अब भी किताबें ज्ञान अर्जन का सबसे विश्वसनीय माध्यम बनी हुई हैं। मोबाइल देखने वालों या सोशल मीडिया पर समय बिताने वालों के मुकाबले किताब पढ़ने वाले कहीं ज़्यादा समझदार मान लिए जाते हैं। यह बस पढ़ाकू होने की छवि से जुड़ी बात नहीं है, किताबों के साथ हमारा जो मानसिक संबंध है, उसका भी मामला है। 

किताबों ने हमारे भीतर काफी कुछ बदला है- सिर्फ उस ज्ञान से नहीं, जो उनमें दर्ज होता है, बल्कि पठन-पाठन की उस प्रक्रिया से भी जिसमें आंख और मस्तिष्क के बीच बनने वाले अक्षर, शब्द, वाक्य और उनके अर्थ बहुत सहजता से हमारी चेतना का हिस्सा बन जाते हैं। ठोस तस्वीरों और छवियों में हम बस भोक्ता होते हैं, जबकि शब्दों में हमारी कल्पना का निवेश भी होता है। इसी प्रक्रिया में हम पाठक होते-होते लेखक भी होते चलते हैं।


हिंदी साहित्य में चलने वाला यह करुण मज़ाक अगर सच लगता है कि हिंदी में पाठक नहीं बस लेखक ही लेखक हैं, तो इसलिए भी कि हमारे पाठक धीरे-धीरे चेतना संपन्न होकर लेखक में बदल जाते हैं। करीब तीन सदी पहले अंग्रेजी निबंधकार फ्रांसिस बेकन ने कहा था- ‘reading maketh a good man, conference a ready man and writing a perfect man.’  यह हिसाब बार-बार लगाया जा रहा है कि पुस्तक मेले में कितनी किताबें बिकीं। लेकिन मेरे भीतर यह सवाल उठता है कि जो किताबें बिकीं, क्या वे सबके सब पढ़ी‌ जाएंगी? मेरी एक परिचित लेखिका ने मेले से करीब 100 किताबें खरीदीं। मैंने कहा कि इन सब को पढ़ते-पढ़ते तो दूसरा मेला आ जाएगा। लेकिन ये सिर्फ़ उनका नहीं हम तमाम लोगों का सच है। 
मेले आते-जाते रहते हैं, हमारे घरों में किताबें बढ़ती जाती हैं, उनको रखने की जगह नहीं मिलती, उनको पढ़ने का समय नहीं मिलता, उनका मोह उनको बांटने की भी इजाज़त नहीं देता,लेकिन फिर भी हम किताबें खरीदते रहते हैं। कुछ किताबें पूरी पढ़ लेते हैं, कुछ अधूरी पढ़ पाते हैं, कुछ के बस कुछ उद्धरण देख लेते हैं और कुछ किताबें तो हमें किताबों के बीच से ही देखती रह जाती हैं।
लेकिन इन किताबों का होना हमारे लिए एक आश्वस्ति है। इनका होना एक ऐसे दिन की उम्मीद है जब हम फ़ुरसत में होंगे और इन किताबों को पढ़ेंगे। ये किताबें नहीं बचीं तो उम्मीद भी नहीं बचेगी। इसलिए किताबों का मेला लगते रहना चाहिए, लेखक और पाठक उसने घूमते रहने चाहिए और अपनी मनचाही किताबें खरीदते रहने चाहिए।
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प्रियदर्शन
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