बिरजा एक महिला चरित्र है। धर्मवीर भारती की कहानी `बंद गली का आखिरी मकान’ की। वो कोई हिंदी साहित्य के कहानी जगत की बड़ी या यादगार चरित्र नहीं है। परित्यक्ता है। दो बेटों की मां है जिसे उसे पति ने घर से निकाल दिया है। पति के घर से निकाले जाने के बाद उसे अपने घर में पनाह देते हैं मुंशी जी, जो कचहरी में ताईदी करते हैं। मुंशी जी कायस्थ और बिरजा ब्राह्मण। मुंशी जी अविवाहित और उम्र प्रौढ़ता प्राप्त। स्वाभाविक है पारंपरिक भारतीय समाज में बिरजा और मुंशी के बारे में कई सवाल उठते हैं। फिर भी मुंशी जी का बड़प्पन कि बिरजा और उसके दोनों बेटों की अच्छी परवरिश करने की कोशिश करते हैं। पर बीमारी ग्रस्त बुढ़ापा धीरे धीरे घेरता जाता हैं। रिश्तेदारों के लांछन भी बढ़ते जाते हैं। और जब मुंशी जी के भीतर का पंछी उड़ता है तो उस आखिरी वक्त में बिरजा भी उनके पास नहीं होती।
ये एक जटिल कहानी का अति संक्षिप्त संस्करण है और फिलहाल इस बात को समझने के लिए पेश किया गया है कि पिछले दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल ने देवेंद्र राज अंकुर के निर्दशन में इसका मंचन हुआ। अंकुर, जो कहानियों के मंचन के लिए जाने जाते हैं, ने इस बार एक नया प्रयोग किया। उन्होंने इस कहानी के आधार पर दो नाट्य प्रस्तुतियां तैयार कीं। दो ढांचों में एक ही कहानी। पहले ढांचे में विस्तृत मंचसज्जा थी, प्रोसेनियम रंगमंच का पूरा व्याकरण था और दूसरे ढांचे में नुक्कड़ नाटक जैसी (हालांकि पूरी तरह वैसा नहीं) संरचना थी। कुछ ब्लॉक थे जो मंचन के दौरान अभिनेताओं द्वारा सुविधानुसार अलग अलग जगहों पर रखे जाते हैं। पहले वाले ढांचे में एक ठहराव था और दूसरे में क्षिप्रता। दोनों के अलग अलग प्रभाव। एक ही कहानी की अलग अलग भंगिमाएं। दोनों ढांचों के दृश्य विधानों में भी भिन्नता। पर एक स्तर पर एक दूसरे के पूरक भी। इस अर्थ में कि जो एक में छूट गया था वो दूसरे में उभरा। वो क्या था?
वो था बिरजा का चरित्र। दोनों ढांचों में इसे अलग अलग अंदाज में पेश किया गया। या कहें कि दो अलग अलग अभिनेत्रियों ने बिरजा के चरित्र के दो रूप दिखा दिए। पहली वाली यानी प्रोसेनियम ढांचे वाले में बिरजा का किरदार निभाया शिल्पा भारती ने और दूसरे में पूनम दहिया ने। दोनों अपने में उत्कृष्ट। बिरजा के अंदर एक तूफान है जो उसे भीतर ही भीतर अस्त-व्यस्त किए हुए है क्योंकि उसका जीवन पारंपरिकता के मूल्यों के मुताबिक़ नहीं है और निजी जीवन में वो इन मूल्यों के बाहर जाकर जी रही है। उसके सामने विकल्पहीनता है क्योंकि अपने को जीवित रखना है और बच्चों को पालना भी है।
मुंशी जी के यहाँ रहते उसके जीवन में एक स्तर पर तो स्थिरता आ गई है लेकिन बाहर की दुनिया उसे लगातार कोंचती भी रहती है। ऐसे चरित्र को सामने लाने के लिए शिल्पा ने अलग तकनीक अपनाई और पूनम ने अलग। शिल्पा की जो बिरजा है वो कभी कभार उफनती है लेकिन ज्यादातर अवसरों पर भीतर से उद्वेलित रहने के बावजूद बाहर से शांत दिखती है। मुंशी के लिए उसका नियंत्रित यौन लगाव भी दिखता है। लेकिन पूनम ने जिस बिरजा को निभाया है वो ज्यादातर बेचैन आत्मा बनी रहती है। एक स्थायी गुस्सा उसके ऊपर हावी रहता है हालांकि बीच बीच वो उसे दबा भी लेती है। ये एक ही चरित्र की दो व्याख्याएं हैं और दोनों ही अपनी अपनी जगह सही हैं।
ये कहानी और ये नाटकीय प्रस्तुति एक और बात की तरफ इशारा करते हैं। और वो है हरिराम का चरित्र। हरिराम सारंगी बजाता है। कलाकार है। लेकिन न मुंशी जी को ये बात पसंद है और न परिवार को। उसकी नानी जरूर उसे मौन समर्थन देती है। लेकिन हरिराम अपने परिवार में और समाज में अर्ध- बहिष्कृत सा रहता है। इसी कारण वो तंत्रमंत्र के लंदफंद में भी फँस जाता है। क्या ये सिर्फ हरिराम की त्रासदी है? शायद ये पूरे उत्तर भारत में कला की त्रासदी है। खासकर, संगीत और नृत्य की। आज भी उत्तर भारतीय समाज में सामान्य घरों में नृत्य के प्रति और शास्त्रीय के कुछ हद तक छोड़ दें तो संगीत के प्रति उपहास का भाव है। हरिराम की ये पीड़ा शायद तब बेहतर ढंग से दिखेगी जब `बंद गली का आखिरी मकान’ की कोई उत्तर – आधुनिक प्रस्तुति हो जिसमें फोकस मुख्य कलाकारों पर न होकर हरिराम जैसे अकेंद्रीय कलाकर पर हो। बिरजा और मुंशी जी व्यक्ति हैं, हरिराम एक सामाजिक परिघटना है।
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