दुनिया में कई ऐसी छोटी-छोटी भाषाएं हैं जो विलुप्त होने के कगार पर हैं। हो सकता है कि अगले कुछ वर्षों में उनको बोलनेवाला कोई न बचे। क्या ऐसी भाषा या भाषाओं को मृत होने से बचाया जा सकता है? जटिल सवाल है और उत्तर मुश्किल क्योंकि ये काम आसान नहीं है। फिर भी अगर किसी भाषा को बचाना है तो कोई लेखक ये राह चुन सकता है कि उस भाषा में वो खुद लिखे। शायद इससे उस भाषा की उम्र लंबी हो जाए।
रूस की लेखिका जरीना कनुकोवा ऐसा कर रही है। वे रूस की रहनेवाली हैं पर उनकी मातृभाषा कार्बादीन- चेरकास है जिसे आदिगाब्जा भी कहा जाता है। ये रूस के काकेशस इलाके में बोली जाती है। कनुकोवा रूसी भी जानती हैं। वे लिखती हैं– एक दिन मुझे पता चला कि मेरी मातृभाषा लुप्तप्राय भाषाओं में एक है। मुझे आश्चर्य हुआ कि ये कैसे संभव है? इतनी सुंदर भाषा कैसे लुप्त हो सकती है। ...एक व्यक्ति इसका विरोध नहीं कर सकता लेकिन एक लेखक किसी भाषा के जीवन को बढ़ा सकता है यदि उसका लेखन पुरानी और युवा – दोनों पीढ़ियों के लिए रुचिकर हो। इसलिए मैं अपनी मातृभाषा में लिखती हूं और विभिन्न विधाओ में लिखती हूं। …मैं इन कृतियों का रूसी में अनुवाद भी करती हूं।‘
इन्हीं कनुकोवा के चार नाटकों का संग्रह `दास्तान ए दिल’ नाम से हिंदी में अनुदित होकर आया है (कल्पतरू प्रकाशन से जो संभावना प्रकाशन का हिस्सा है)। अनुवादक हैं वेद कुमार शर्मा जो रूसी से बेहतर हिंदी अनुवाद करने वालों में कई साल पहले अपनी जगह बना चुके हैं। इसी संग्रह के एक नाटक `बात पुराने जमाने की है और हमेशा’ का मंचन पिछले हफ्ते दिल्ली के रूसी सांस्कृतिक केंद्र में हुआ। निर्देशक थे `जय रंगमंच’ नाट्य दल के रमेश खन्ना।
`बात पुराने जमाने की है और हमेशा’ भी तीन लघु नाटकों का समुच्चय है और तीनों में दो दो पात्र हैं। तीनों में एकसूत्रता भी है क्योंकि वो दो व्यक्तियों के बीच लगाव और प्रेम की गाथा कहती हैं। पहले में एक वृद्ध दंपति है। वृद्ध पुरुष डिमेंशिया (स्मृतिलोप) का शिकार हो चुका है। उसे कुछ चीजें याद रहती हैं और कुछ भूल चुका है। वृद्ध महिला उसे एक कहानी सुनाती है। किसी पुराने जमाने की। ये कहानी भी किसी वृद्ध दंपति की है। धीरे धीरे साफ होता जाता है कि ये उन दोनों की ही कहानी है जो लोककथा के अंदाज में सुनाई जा रही है। इसमें उनके बेटे- बहू और पोते का ज़िक्र भी होता है। वृद्ध पुरुष को बीते हुए समय की कुछ चीजों की याद आती है। उसे अपने गाड़ी और गैराज की याद आती है जो बिक चुके हैं। वृद्ध पुरुष हैरान होके रह जाता हैं कि ये क्यों हुआ? वृद्धा जवाब देती है और अंत में दोनों एक दूसरे की बांहों में सो जाते हैं।
दूसरे नाटक में पिता -पुत्र है। दोनों में आपसी तनाव हैं। पुत्र नशाखोरी का शिकार हो चुका है। धीरे धीरे पता चलता है कि जो बेटा यहां दिख रहा है वो पिता का जैविक पुत्र नहीं है। उसकी मां का पहले ही निधन हो चुका है और उसने उस शख्स से दूसरी शादी की थी जो यहां पिता के रूप में उपस्थित है। पिता और पुत्र के इस द्वंद्व के बीच ये बात भी उभरती है कि एक स्तर पर दोनों में तनाव है और दोनों एक दूसरे को चाहते भी हैं।
इन तीनों छोटे नाटकों में जीवन के अलग अलग मोड़ों के अनुभव भी हैं और मनोवैज्ञानिक गुत्थियां भी। डिमेंशिया वृद्ध लोगों में फैलती ऐसी बीमारी है जो विश्व भर में महामारी की शक्ल भी ले रही है।
इस प्रस्तुति की एक और खास बात ये रही कि हालांकि नाटक रूसी या ये कहें कि कार्बादीन- चेरकास भाषा का है पर भारतीय परिवेश में ढल गया। शायद इसलिए कि एक तो वेद कुमार शर्मा ने रूसी के माध्यम से जो अनुवाद किया उसमें वो सहजता है भारतीय दर्शक को भी अपना तजुर्बा लगे। दूसरे इस वजह से कि निर्दशक ने मंचन के दौरान ये खयाल रखा कि दर्शकों को ये न लगे कि वो कहीं दूर की कहानी देख रहे हैं। और हां, ये भी कहना पड़ेगा कि मूल नाटक में भी वो तत्व हैं तो सिर्फ रूस का नहीं, बल्कि सार्वदेशिक है।
जरीना कनुकोवा के इस संग्रह में एक नाटक है `सरिया’ जो लेखिका मूल स्थान अबगाजिया के दो इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तित्वों - सरिया अखमेदोव्ना लाकोबा (1904- 1939) औऱ नेस्तर अपोल्लोनोविच लाकोबा (1893- 1936) के जीवन से जुड़ा है। दो पत्नी-पति थे और नाटक पढ़ने से लगता है कि स्तालिनवाद के खिलाफ आवाज उठानेवालों में थे और स्तालिन के दमन तंत्र के शिकार बने। इस नाटक में यथार्थवाद भी है और अति यथार्थवाद भी। सोवियत संघ के विघटन के बाद स्तालिवादी वक्त के जुल्मों की कहानियां अब बाकी दुनिया के सामने आ रही हैं। `सरिया’ नाटक भी उसी कड़ी में है।
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