योगी सरकार के 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के आदेश को केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत ने असंवैधानिक बताया है। राज्यसभा में मंगलवार को केंद्रीय मंत्री गहलोत ने कहा कि केंद्र ने राज्य सरकार को अनूसूचित जाति प्रमाणपत्र जारी करने से रोकने के लिए कहा है। गहलोत ने कहा कि यह क़दम सही नहीं है और ओबीसी को अनूसूचित जाति में शामिल करना संसद के अधिकार क्षेत्र में है। गहलोत ने राज्य सरकार से कहा है कि वह इस मामले में सही प्रक्रिया का पालन करे। बसपा सांसद सतीश चंद्र मिश्रा ने मंगलवार को राज्यसभा के शून्यकाल में इस मुद्दे को उठाया था। मिश्रा ने सरकार के इस क़दम को असंवैधानिक बताया था।
लोकसभा चुनावों में यूपी में बीजेपी की प्रचंड जीत का कारण बनी ग़ैर यादव अन्य अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र देने के योगी सरकार के फ़ैसले को राजनैतिक शिगूफ़ा माना जा रहा है। प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का फ़ैसला ख़ुद इन जाति के लोगों को रास नहीं आ रहा है। विपक्षी दलों ने भी इसे लेकर योगी सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। लंबे समय से पिछड़ी जातियों को मिल रहे 27 फ़ीसदी आरक्षण में वर्गीकरण की माँग उठाते रहे सुहेलदेव राजभर भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के ओमप्रकाश राजभर तो इसे आँखों में धूल झोंकने से ज़्यादा कुछ नहीं बता रहे हैं।
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राजभर का कहना है कि मुख्यमंत्री पहले इन 17 जातियों को पिछड़ी जाति से बाहर कर उनका कोटा निर्धारित करें तभी उन्हें अनुसूचित जातियों को मिलने वाला लाभ मिल सकेगा। ख़ुद ऐसे जिलाधिकारी जिन्हें शासन की ओर से अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का प्रमाण जारी करने का पत्र भेजा गया है, इस मामले पर सरकार से स्पष्टीकरण चाहते हैं। एनडीए सरकार में सहयोगी रिपब्लिकन पार्टी के मंत्री रामदास अठावले ने भी आदेश को तब तक नाकाफ़ी बताया है जब तक संसद इसे मंजूरी न दे दे और अनुसूचित जाति के आरक्षण की सीमा न बढ़ायी जाए।
अदालत से लेकर संसद तक रोड़ा
योगी सरकार ने जिन 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र देने का आदेश दिया है, उनमें निषाद, बिंद, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, प्रजापति, राजभर, कहार, कुम्हार, धीमर, माँझी, गौड़ व तुरहा शामिल हैं। इनकी आबादी उत्तर प्रदेश में क़रीब 13.70 फ़ीसदी है। हालाँकि प्रमुख सचिव समाज कल्याण की ओर से जिलाधिकारियों व मंडलायुक्तों को भेजे गए पत्र में कहा गया है कि इस बारे में इलाहाबाद हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश का अनुपालन सुनिश्चित किया जाए और जारी किया जाने वाला प्रमाणपत्र कोर्ट के अंतरिम आदेशों के अधीन होगा।जिलाधिकारियों का कहना है कि प्रमाणपत्र जारी करने से पहले इन जातियों को ओबीसी से बाहर करना होगा जिसके लिए कोई आदेश नहीं आया है। उनका कहना है कि इसके लिए अलग से निर्देशों की दरकार है। कोई भी व्यक्ति एक साथ दो आरक्षण का लाभ नहीं ले सकता।
दरअसल, इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए राज्य सरकार को केंद्र को प्रस्ताव भेजना होगा और इसे लोकसभा व राज्यसभा से पारित कराना होगा। इस मामले की सुनवाई इलाहाबाद हाई कोर्ट में भी चल रही है। कोर्ट ने केवल इस मामले में पूर्व में दिए फ़ैसले पर रोक को हटाया है और अंतिम फ़ैसला अभी आना बाक़ी है।
योगी सरकार की ओर से जारी आदेश के बाद भी इन 17 अति पिछड़ी जातियों को प्रमाणपत्र के नाम पर महज कागज का एक टुकड़ा ही मिल सकेगा और वह भी कई तरह के स्पष्टीकरण आने के बाद। अभी तक किसी भी जिले में इसकी प्रक्रिया तक शुरू नहीं हो पायी है।
हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश के बाद अति पिछड़े से अनुसूचित जाति में आने वाली 17 जातियों को केंद्रीय योजनाओं का कोई लाभ नहीं दिया जा सकेगा। इसके लिए केंद्र सरकार को इन्हें अनुसूचित जाति की सूची में डालना होगा। दरअसल, अनुसूचित जाति का दर्जा राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार तय करती है। लिहाजा इन 17 जातियों को जो प्रमाणपत्र जारी किए जाएँगे वह भी सशर्त होंगे। जानकारों का कहना है कि हाई कोर्ट में चल रहे वाद के चलते न तो योगी सरकार इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र को भेज सकती है न ही केंद्र इन्हें शामिल कर सकता है।
अधूरा है सरकार का आदेश
योगी सरकार के हालिया आदेशों को लेकर जिलाधिकारियों की चिंता काफ़ी हद तक जायज है। उनका कहना है कि आदेश अपने आप में पूरा नहीं है। इसमें इन अति पिछड़ी जातियों को ओबीसी की सूची से बाहर करने को लेकर निर्देश नहीं हैं। क़ानूनन एक ही व्यक्ति दो तरह के प्रमाणपत्र नहीं रख सकता है और न ही लाभ ले सकता है। कोर्ट के अंतरिम आदेश के तहत अगर इन जातियों को अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र जारी भी कर दिया जाता है तो अंतिम फ़ैसले के प्रतिकूल होने की दशा में क्या स्थिति होगी। यदि कोर्ट इन्हें फिर से पिछड़ी जाति में ही बनाए रखता है तो क्या इनको मिल चुके लाभ वापस ले लिए जाएँगे। उनका कहना है कि केंद्र की ओर से अनुसूचित जाति में अधिसूचित न होने पर भी राज्य सरकार अपनी योजनाओं का लाभ इन्हें दे सकती है पर हाई कोर्ट के प्रतिकूल फ़ैसले के बाद क्या वे लाभ वापस लिए जाएँगे।
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एसपी-बीएसपी को होगा नुक़सान
बीजेपी के रणनीतिकारों की मानें तो इस एक तीर से कई निशाने साधे गए हैं। बीजेपी के यूपी में सहयोगी रहे और अब अलग हो चुके ओमप्रकाश राजभर लंबे अरसे से यह माँग उठाते रहे हैं। बीजेपी इस आदेश से क़रीब 1.5 फ़ीसदी राजभर वोटों को साधना चाहती है। दूसरी ओर, एसपी से अलग होने के बाद अन्य पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने की मुहिम में बीएसपी सुप्रीमो मायावती भी जुट गयी हैं। उन्होंने फिर से अपनी जाति आधारित भाईचारा कमेंटियों को जीवित कर काम पर लगा दिया है। बीजेपी का मानना है कि अगर विधानसभा चुनावों में एसपी-बीएसपी गठबंधन फिर बना या मायावती की रणनीति काम आयी तो उसे नुक़सान हो सकता है।इन 17 जातियों के असर के चलते पहले एसपी व बीएसपी की सरकारें इन्हें अनुसूचित जाति में शामिल करने की कोशिश कर चुकी हैं। यह कवायद 2005 से चल रही है जब तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस बारे में आदेश जारी किया था जिस पर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी थी। फिर 2007 में माया सरकार में इन्हें अनुसूचित जाति में शामिल करने को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा था। पिछले विधानसभा चुनावों से पहले दिसंबर 2016 में एसपी सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी इस प्रस्ताव को कैबिनेट से मंजूरी दिलवा दी थी।
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