नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश में हुए प्रदर्शनों के दौरान यूपी पुलिस पर बर्बरता करने के आरोप लगे तो न्यायपालिका की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। मुज़फ्फरनगर में ऐसा ही एक मामला सामने आया है। मुज़फ्फरनगर के एडिशनल जिला मजिस्ट्रेट (एडीएम) अमित सिंह ने बीते बुधवार को आदेश दिया है कि नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध में हुए प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा में संपत्ति को हुए नुक़सान के एवज में 53 लोगों को 23.41 लाख की राशि चुकानी होगी। एडीएम ने एक महीने पहले इन लोगों को नोटिस जारी किया था। मुज़फ्फरनगर में 20 दिसंबर, 2019 को हिंसक प्रदर्शन हुए थे। इन 53 में से 50 लोगों ने इन नोटिसों का जवाब दिया है। अंग्रेजी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, एडीएम के इस आदेश और पूरी क़ानूनी प्रक्रिया में कई ख़ामिया हैं।
अख़बार के मुताबिक़, जिन लोगों से पैसा जमा करने के लिये कहा गया है, एडीएम ने उन्हें अपने बचाव का मौक़ा नहीं दिया और पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ जो सबूत पेश किये थे, उसे लेकर उन्हें पुलिस से सवाल नहीं पूछने दिये। एडीएम ने अपने आदेश में अभियुक्तों द्वारा अपने बचाव में रखे गये सबूतों को भी जगह नहीं दी है। एडीएम के आदेश में बस यह लिखा गया है कि अभियुक्तों ने सभी आरोपों को नकार दिया है।
हैरानी की बात यह है कि अदालत की ओर से यह आदेश तब जारी किया गया जब इन नोटिस को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। गुरुवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी कानपुर में जारी किये गये ऐसे नोटिसों पर स्टे लगा दिया है।
अपने आदेश में एडीएम अमित सिंह ने कहा है कि 1 जनवरी, 2020 को सिविल लाइन पुलिस ने कहा है कि सीसीटीवी फ़ुटेज के आधार पर 27 लोग आगजनी करने, पत्थरबाज़ी और सरकारी संपत्तियों को नुक़सान पहुंचाने में शामिल रहे हैं। लेकिन इसमें इस बात का जिक्र नहीं है कि पुलिस ने दस दिन बाद इसमें 32 लोगों का नाम क्यों शामिल कर लिया। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की ओर से कई बार एडीएम सिंह से इसका जवाब देने का अनुरोध किया गया लेकिन उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। अभियुक्तों ने आरोप लगाया है कि एडीएम सिंह ने उनकी सुनवाई तक नहीं की। अख़बार की ओर से 53 लोगों में से कुछ से इसे लेकर बात की गई है।
इन 53 लोगों में से 14 साल का एक लड़का भी है जो बोर्ड एग्जाम की तैयारी कर रहा है। इस लड़के के पिता किराने की दुकान चलाते हैं। पिता ने एडीएम के सामने बेटे के स्कूल के कागज रखे हैं जिससे यह साबित हो सके कि उनका बेटा नाबालिग है। वह कहते हैं, ‘एफ़आईआर में मेरे बेटे के बारे में कोई जिक्र नहीं है। लेकिन हमें नोटिस जारी किया गया है। हमें एडीएम से सीधे बात करने नहीं दी गई। उन्होंने हमें सिर्फ़ अदालत के अंदर एक वीडियो दिखाया। मैंने उन्हें बताया कि मेरा बेटा इस वीडियो में नहीं है।’
वह आगे कहते हैं, ‘मेरा बेटा नाबालिग है और मैंने सबूतों के रूप में कागजात एडीएम के सामने रखे। लेकिन उन्होंने हमारे सिर्फ़ सिग्नेचर लिये और हमसे जाने के लिये कह दिया। इन सबूतों में से कुछ भी एडीएम के आदेश में दर्ज नहीं है।’ उन्होंने अपने बेटे का ट्यूशन छुड़ा दिया है और उसे दादा-दादी के घर भेज दिया है।
मुझे परीक्षा में बैठने देंगे?
इस लड़के ने अख़बार से कहा, ‘मैं शुक्रवार को मदीना चौक पर नमाज़ पढ़ने के लिये जाता था। जब मैं उस दिन मसजिद से वापस आया तो पुलिस को लाठीचार्ज करते हुए देखा। मैं डर गया और वहां से भाग गया। मैं प्रदर्शन में शामिल नहीं था, मेरा क्या कसूर है, क्या वे लोग मुझे परीक्षा में बैठने देंगे।’ लड़के ने कहा कि वह डॉक्टर बनना चाहता है। ऐसे ही कुछ और मामले भी हैं जिसमें अभियुक्तों ने कहा है कि उनकी ओर से दिये गये सबूतों को एडीएम ने अपने आदेश में शामिल ही नहीं किया।
ऐसा ही एक और मामला है। मुहम्मद शमशाद के बेटे फिरोज़, मुज़फ्फरनगर से 80 किमी. दूर हरियाणा के पानीपत में कपड़ों की दुकान चलाते हैं। फिरोज़ से भी पैसे चुकाने के लिये कहा गया है। मुहम्मद शमशाद सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। शमशाद का कहना है, ‘फिरोज़ 5 साल से पानीपत में अपने परिवार के साथ रह रहा है। वह अपने दस्तावेज़ों को जमा करने मुज़फ्फरनगर आया था। उसने सभी दस्तावेज़ जमा कर दिये थे। उसे जो वीडियो दिखाये गये थे, उनसे साफ़ है कि वह उनमें नहीं था।’ शमशाद ने कहा कि यह हैरानी भरा है कि इस सबके बाद भी उनके बेटे को निशाना बनाया जा रहा है। शमशाद कहते हैं कि वह इस आदेश को चुनौती देंगे। शमशाद ने कहा कि उन्हें सीसीटीवी फ़ुटेज की कॉपी भी नहीं दी गई है। उन्होंने मांग की कि इन फ़ुटेज को पब्लिक किया जाना चाहिए।
ख़बर को पढ़ने से साफ़ पता चलता है कि अभियुक्तों को उनकी बेगुनाही साबित करने का भी मौक़ा नहीं दिया गया है। एडीएम ने उनकी बात को सुनने की कोशिश तक नहीं की है। पुलिस जिन सबूतों की बात कर रही है, उनमें यह साफ़ नहीं है कि ये 53 लोग प्रदर्शन में शामिल थे या नहीं। इससे पहले उत्तर प्रदेश पुलिस इस बात पर फंस चुकी है कि उसके कितने जवान घायल हुए हैं। उत्तर प्रदेश में नागरिकता क़ानून के विरोध में 20 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है लेकिन पुलिस का कहना है कि सिर्फ़ एक शख़्स की मौत गोली से हुई है। पुलिस के बाद अगर अदालतें भी इस तरह का ग़ैर-जिम्मेदाराना व्यवहार करेंगी तो इंसाफ़ के मंदिरों से आम आदमी का भरोसा उठना तय है।
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