समाजवादी पार्टी (एसपी), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) और राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) का गठबंधन लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बुरी तरह फ़ेल रहा। अगर वोट प्रतिशत के हिसाब से देखें तो गठबंधन के प्रत्याशियों को एक-दूसरे दल के वोट ट्रांसफ़र हुए नज़र आते हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) उस मत प्रतिशत से कहीं आगे निकल गई और एक तरह से गठबंधन का सफाया हो गया।
अब बीएसपी और एसपी अलग-अलग चुनाव लड़कर सत्तासीन बीजेपी को टक्कर देने की राजनीति की ओर लौट रहे हैं। मायावती ने एसपी पर यादव मतों को भी न लुभा पाने का आरोप लगाकर और एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव व उनकी पत्नी डिंपल यादव की प्रशंसा करते हुए इसे एक खूबसूरत मोड़ देकर गठजोड़ का रिश्ता तोड़ दिया है।
बिहार में बीजेपी के ख़िलाफ़ बने राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) की 2015 के विधानसभा चुनाव में हुई प्रचंड जीत के बाद यूपी में विफल हुए ऐसे ही बने गठबंधन के बाद इन दलों में सिर-फुटौव्वल शुरू हो गई है। बीएसपी प्रमुख मायावती के यह बयान कि यादव वोटरों ने एसपी को वोट नहीं दिए, उससे लगता है कि उन्हें भरोसा था कि यादव, जाटव और मुसलिम मिलकर यूपी में अपार सफलता दिला सकते हैं।
यह तथ्य है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कुछ समय तक यूपी में हर चुनाव में पिटने वाली बीजेपी 2019 के लोकसभा चुनाव में तमाम सीटों पर 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा मत पाने में सफल रही है और गठबंधन होने के बावजूद बीजेपी को इतने मत मिले हैं। स्वाभाविक है कि बीजेपी को वही वोट मिल रहे हैं, जो पहले एसपी और बीएसपी को मिला करते थे।
अब मायावती के सामने संकट है। बीजेपी के प्रचंड बहुमत की बड़ी वजह यह है कि एसपी-बीएसपी-आरएलडी के कोर वोट ही गठबंधन को ट्रांसफ़र हुए। ज़्यादा संभव यह है कि एसपी के तमाम वोटर ऐसे रहे होंगे, जिन्हें बीएसपी से इतनी चिढ़ होगी कि उन्होंने गठबंधन के बजाय बीजेपी को वोट दिए हों। इसी तरह से बीएसपी के तमाम वोटर ऐसे रहे होंगे, जिन्हें एसपी से इतनी चिढ़ रही होगी कि उन्होंने भी गठबंधन के बजाय बीजेपी को वोट दे दिया हो।
गठबंधन में वोट ट्रांसफ़र तो हुआ, लेकिन इन दलों के जो फ़्लोटिंग वोट थे, जो पिछले क़रीब 27 साल तक कभी एसपी और कभी बीएसपी के पाले में बैठकर बदल-बदलकर एसपी-बीएसपी को सत्ता दिलाते रहे हैं, वे एकमुश्त बीजेपी में चले गए हैं।
इसमें कौन से वोटर हो सकते हैं? ऐसे फ़्लोटिंग वोटों में अपर कास्ट यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय भी हैं, जो पूरी तरह से बीजेपी के साथ जुड़ चुके हैं। ओबीसी की ग़ैर यादव जातियाँ जैसे कुर्मी, कोइरी, लोध, निषाद आदि और अनुसूचित जाति की ग़ैर जाटव जातियाँ जैसे कोरी, खटीक, पासी आदि ने भी बीजेपी का दामन थाम लिया है। बीजेपी ने बाक़ायदा इसके लिए रणनीति तैयार की और ख़ासकर दलितों के मामले में उसने पासी और खटीक को अधिकतम सीट देकर दलित मतों का बड़ा हिस्सा झटक लिया।
एसपी-बीएसपी के गठबंधन की टूट में मायावती ने अब तक बड़ी शालीनता दिखाई है। हालाँकि उन्होंने एसपी को यादव मतों तक समेटकर एक तरह से उसे जनाधारविहीन और एक जाति की पार्टी घोषित कर दिया। इसके बावजूद उन्होंने अखिलेश यादव और डिंपल यादव का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया और संबंध बरक़रार रखने की बात कही।
उपचुनाव लड़ने का भी फ़ैसला
इसमें सबसे ज़्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक बीएसपी कोई भी उपचुनाव नहीं लड़ती थी। उसकी यह अघोषित नीति थी कि जिस दल का शासन होता है, वह उपचुनाव जीत लेता है ऐसे में पार्टी की ऊर्जा उपचुनावों में न बर्बाद की जाए। लेकिन गठबंधन तोड़ने के साथ ही मायावती ने उपचुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। बीएसपी आने वाले विधानसभा उपचुनाव में 11 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी।
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उपचुनाव अलग लड़ने का मक़सद साफ़-साफ़ यह नज़र आता है कि बीएसपी यह आजमाना चाहती है कि एसपी से बुरी तरह खफ़ा कितने मतदाता बीएसपी के साथ आ सकते हैं। इसी तरह से अगर एसपी अलग चुनाव लड़ती है तो उसके प्रत्याशियों को मिले वोट से यह पता चलेगा कि बीएसपी से बुरी तरह खफ़ा और गठबंधन की स्थिति में बीजेपी को मतदान करने वाले कितने मतदाताओं ने एसपी का विकल्प चुना है।
जाति का कार्ड खेलना आसान नहीं
हालाँकि एसपी-बीएसपी के लिए जातीय कार्ड खेलकर जीतना अब उतना आसान नहीं रह गया है, जितना पहले हुआ करता था। अब राज्य में बीजेपी नई खिलाड़ी है। वह उन जातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व और सम्मान देने के लिए तैयार है, जो यूपी में पॉवरफ़ुल तो हैं, लेकिन एसपी और बीएसपी में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व या पर्याप्त सम्मान नहीं मिल पाता था।
मायावती संभवतः उपचुनाव में मतों की संख्या देखकर यह आजमाना चाहती हैं कि अलग-अलग चुनाव लड़ने पर क्या असर पड़ता है।
उपचुनाव में अगर एसपी और बीएसपी अपने कोर वोटर्स को खींचने में सफल रहते हैं, जो उन्हें सत्ता में लाती रही हैं, तो यह ज़्यादा संभव है कि एसपी और बीएसपी राजनीतिक रूप से चतुराई भरा समझौता करके और अलग-अलग चुनाव लड़कर उत्तर प्रदेश में दाँव आजमाएँ।
अस्तित्व पर आ रहा संकट
क़रीब 3 दशक तक यूपी की सत्ता या विपक्ष में रहने वाली एसपी और बीएसपी के अस्तित्व पर अब संकट मंडराता दिख रहा है। राज्य में वंचित तबक़े ने शासन अपने हाथ में लेने का जो सपना देखा था, वह पिछले एक दशक में जाति और कुनबे का वोट बैंक बन गया। इससे सारे मसले पीछे छूट गए हैं। समावेशी विकास और हर वंचित तबक़े को उचित प्रतिनिधित्व मिलने की बात करने को ये दल अब तैयार नहीं हैं। ऐसे में अलग-अलग लड़कर अपने वोटरों को लुभाने की क़वायद ज़मीनी स्तर पर कितना मूर्त रूप ले पाएगी, इसके लिए चुनाव परिणामों का इंतजार करना होगा।
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