सिर्फ 10 दिन पहले तक यह साफ नहीं था कि उत्तर प्रदेश में यादव राजनीति के दो दिग्गज चाचा-भतीजा यानी शिवपाल यादव और अखिलेश यादव में समझौता हो सकता है या नहीं। लेकिन आखिरकार शिवपाल यादव भतीजे का दामन थामने को मजबूर हुए।
दोनों का मेलमिलाप आप मजबूरियों का मेलमिलाप भी कह सकते हैं। शिवपाल अपनी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का बैनर लेकर पिछले दो महीने से यूपी का दौरा कर रहे थे।
दौरे में मिला संकेत
उन्होंने
यादव बहुल इटावा, एटा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, फिरोजाबाद, कन्नौज, बदायूं,
आजमगढ़, फैजाबाद, बलिया, संत कबीर नगर, जौनपुर और कुशीनगर जिलों का दौरा
किया।
उन्हें जिस तादाद में कार्यकर्ताओं और
यादव मतदाताओं के उमड़ने की उम्मीद थी, वो पूरी नहीं हुई। शिवपाल ने लंबे
समय तक सपा का संगठन संभाला है। वे संकेत समझने में माहिर हैं। उन्होंने
संकेत समझ लिया।
शिवपाल जहां भी गए, उन जिलों
के बुजुर्ग यादवों ने शिवपाल से यही कहा कि अगर वो अखिलेश से समझौता कर
लें या एक हो जाएं तो यादव बिखरेंगे नहीं। शिवपाल यह सुन-सुनकर तंग हो गए।
कई जिलों के बुजुर्ग यादवों ने शिवपाल से कहा कि अगर वो अखिलेश से समझौता कर लें तो यादव वोट बिखरेंगे नहीं।
22 नवंबर को सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव का जन्मदिन था। सैफई
में शिवपाल ने दंगल का आयोजन किया। शिवपाल को उम्मीद थी कि बड़ा भाई और
भतीजा इस कार्यक्रम में जरूर आएंगे। लेकिन दोनों ही नहीं आए।
शिवपाल ने
सैफई में अकेले ही मुलायम के फोटो को केक खिलाया। कार्यकर्ता भी कम ही आए।
शिवपाल 22 नवंबर के बाद निराशा की स्थिति में पहुंच गए।
आजम की सलाह
28 नवंबर को शिवपाल ने सीतापुर
जेल में जाकर सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान से मुलाकात की। सूत्रों का कहना
है कि आजम ने भी उन्हें फिलहाल अखिलेश से समझौता करने की सलाह दी।
बताते हैं कि आजम
ने शिवपाल से कहा कि अगर दोनों एक न हुए तो 2017 के विधानसभा चुनाव और
2019 के लोकसभा चुनाव की तरह यादव वोट बंट जाएंगे। इसके बाद ही शिवपाल ने
अखिलेश से मुलाकात का फैसला किया।
यादव वोटों का गणित
उत्तर प्रदेश के 44
जिलों में करीब 9 फीसदी यादव मतदाता हैं। 10 जिलों में यादव मतदाता 15
फीसदी से ज्यादा हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बृज वाले इलाके में यादव वोटर
सबसे ज्यादा हैं।
2017 में हालांकि भाजपा
भारी बहुमत से जीती। लेकिन सपा को अपने दम पर 21.82 फीसदी वोट मिले।
कांग्रेस से उसका गठबंधन था लेकिन दोनों ही दलों को इससे खास फायदा नहीं
हुआ।
2017 में शिवपाल भतीजे से नाराज थे।
परिवार की लड़ाई मीडिया में सुर्खियां बन चुकी। इसका नतीजा यह निकला कि
भाजपा भी काफी यादव वोट ट्रांसफर करा ले गई।
2017 में कुल 18 यादव विधायक बने, जिसमें 6 भाजपा से थे और 12 सपा से थे। अगर शिवपाल साथ होते तो सपा के कम से कम 20 विधायक बनते।
यादव
नेता लगभग हर पार्टी में हैं। लेकिन सपा को ही यादवों की पार्टी माना जाता
है। मुलायम के समय यादव-मुस्लिम गठजोड़ चुनावी राजनीति में भाजपा और
कांग्रेस को मात करता रहा है।
चुनावी भाषा में कहें तो यादव सपा का परंपरागत मतदाता है। शिवपाल-अखिलेश का मिलन इसे मजबूत करेगा और सपा को इसका जबरदस्त फायदा होगा।
हालांकि
दोनों का मिलन कब तक चलेगा, उस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। शिवपाल
के साथ कुछ विवादास्पद हस्तियां भी हैं। वो चाहते हैं कि अखिलेश उन्हें सपा
का टिकट दें, जबकि अखिलेश साफ-सुथरी छवि वालों को चाहते हैं। इसलिए दोनों
के राजनीतिक मिलन को फिलहाल मजबूरी ही कहा जा सकता है।
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