राजनीति में झूठ बोलना क्या एक नये दौर में पहुँच गया है। अमेरिका में तो मीडिया ने ट्रम्प के झूठ की लंबी फेहरिस्त तक छापी है। इस पर शोध हुए हैं कि उनके लगातार झूठ और ग़लत तथ्यों की जानकारी देने की ख़बरें छपने के बावजूद जनता और झूठ क्यों माँगती है।
सीमा भारत और पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश या म्यांमार के बीच नहीं रह गई है, अब बिहार और उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात, असम और मेघालय या कर्नाटक और केरल के बीच खिंच गई है।
प्राथमिक भाव भय का था। फिर घृणा। और तब स्वाभाविक क्रम में हिंसा। यह कैसे हुआ जबकि घोषणा युद्ध की की गई थी प्रत्येक देशवासी को योद्धा की पदवी प्रदान की गई थी? तो योद्धा कौन था और वीरता को कहाँ देखा हमने?
प्रेस स्वतंत्रता दिवस गुज़र गया। भारत के सूचना विभाग के मंत्री ने इस मौक़े पर दिए गए रस्मी बयान में दावा किया कि भारत में प्रेस को पूरी आज़ादी है। इस बयान को किसी ने नोटिस लेने लायक़ नहीं समझा। क्यों?
बंबई उच्च न्यायालय ने सरकार को समाज के जाने माने लोगों की मदद लेने की सलाह दी। मैं बंबई उच्च न्यायालय को कहना चाहता था कि इस समाज में अब कोई ऐसा बचा नहीं। सबकी प्रतिष्ठा रौंद डाली गई है।
जो कम्पनी आज 5000 लोगों को खाना बाँट रही है, वह जब 1000 कामगारों की छँटनी करेगी तो हम जो उससे यह अनुदान लेकर लोगों को ज़िंदा रखने का संतोष लाभ कर रहे हैं, क्या उन कामगारों की तरफ़ से कुछ बोल पाएँगे?
पिछले महीने दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाक़े में जो हिंसा हुई, उसके गुनहगारों को पहचानने और पकड़ने में दिल्ली पुलिस जुटी हुई है। पुलिसकर्मी पूरी चुस्ती के साथ एक-एक कर उन्हें पकड़ रही है।
भूखे भजन न होई गोपाला। पुरानी कहावत है। जब मैं हर रात इस चिंता में रहूँ कि कल सुबह खाना नसीब होगा कि नहीं, कितने बजे आएगा, कितना मिलेगा, ठीक इसी घड़ी कोई मेरी आध्यात्मिक चिकित्सा करने आ धमके तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूँगा?
कोरोना वायरस के फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन किया गया तो हज़ारों लोग पैदल ही घर की ओर निकल गए। आख़िर ये चुपचाप निकल क्यों गए? इन्होंने आवाज़ क्यों नहीं उठाई?
युद्ध, महामारी, ये दो ऐसी स्थितियाँ हैं जिनमें हम सबको भेदभाव भुलाकर न सिर्फ़ एक हो जाने के लिए कहा जाता है, बल्कि राज्य से भी एक हो जाने के लिए कहा जाता है। इसलिए विद्रोह की बात तो कोई सोच ही नहीं सकता।
ऑश्वित्ज़ एक क़त्लगाह का नाम है। ऑश्वित्ज़ में कैद और अनिवार्य हत्या की प्रतीक्षा कर रहे लोगों में से जो बचे रह गए थे उन्हें आज से 75 साल पहले, 27 जनवरी, 1945 को सोवियत संघ की लाल सेना ने मुक्त किया।