जम्मू-कश्मीर में कई तरह की पाबंदियाँ हैं। कश्मीर की स्थिति को लेकर केरल में अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने क्यों दिया इस्तीफ़ा? क्या आवाज़ दबाई जा रही है?
कश्मीर अभी फ़ौजी गिरफ़्त में है। आधिकारिक सूचना विभाग ने दुनिया के लिए वीडियो जारी किया है: देख लो! कश्मीर में सब कुछ ठीक है। क्या सच में सबकुछ ठीक है? बड़ी तादाद में सेना क्यों तैनात है?
मंगलेश डबराल ने क्यों लिखा कि हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है...इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है?
हाफ़िज़ अहमद की 'मैं एक मियाँ हूँ' कविता को पढ़कर क्या आप पुलिस स्टेशन के लिए रवाना हो जाएँगे? हाफ़िज़ को इन पंक्तियों को लिखने के लिए सज़ा क्यों मिल रही है?
इंसान होने का मतलब क्या है? क्या दकियानूसी विचार को आढ़े रहना या नये और तार्किक विचारों को अपनाना? यदि हम पृथ्वी को चपटी ही मानते रहते तो क्या हम इंसानों की तरक़्क़ी इतनी हो पाती? जानने की उत्सुकता के बिना इंसान कहाँ तक पहुँच पाता?
राहुल गाँधी की इसलिए तो प्रशंसा की ही जानी चाहिए कि उन्होंने बिना हिचकिचाहट के निर्द्वंद्व होकर सैम पित्रोदा के 1984 की सिख विरोधी हिंसा पर दिए गए बयान की सख़्त आलोचना की। 1984 की याद हिंदुओं के लिए भी आत्म परीक्षण का अवसर है।
अतिशी मरलेना को प्रेस के ज़रिए जनता को बताना पड़ा कि मेरा नाम अतिशी मरलेना है, लेकिन इससे भ्रम में न पड़ जाइए कि मैं ईसाई या यहूदी हूँ, मैं पूरी हिंदू हूँ, बल्कि और भी पक्की क्योंकि मैं क्षत्रिय हिंदू हूँ। दुष्प्रचार के झाँसे में न आइए।
बेगूसराय में बाहर से गए लोग यह देखकर लौट रहे हैं कि कन्हैया को उन्हीं का समर्थन नहीं मिले शायद जिन्हें पारंपरिक तौर पर अपना जन कहा जाता है। तो कन्हैया के जीतने की उम्मीद कितनी है?
आडवाणी ने कहा है कि बीजेपी अपने विरोधियों या आलोचकों को कभी राष्ट्रविरोधी नहीं कहती। लोग कहने लगे कि वह उदार नेता हैं, लेकिन क्या वे भूल गये कि आडवाणी का रथ जिधर से गुज़रा वहाँ ख़ून की लकीरें खिंच गयीं?
कन्हैया के चुनाव लड़ने की घोषणा होते ही कन्हैया के ख़िलाफ़ घृणा अभियान शुरू हो गया है। यह राष्ट्रवादियों की ओर से नहीं, ख़ुद को वामपंथी कहनेवाले और दलित या पिछड़े सामाजिक समुदायों की ओर से है। ऐसा क्यों?
प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार ने इसलामोफ़ोबिया शब्द के इस्तेमाल को ग़लत बताया। उनका कहना है कि यह शब्द उस मनोवृत्ति को व्यक्त नहीं करता जो अभी पूरी दुनिया में अलग-अलग रूप में प्रकट हो रही है। क्या सच में ऐसा है?
जैसे यहूदी विरोध आपके भीतर संस्कार की तरह सोया रहता है, वैसे ही मुसलमान विरोध भी। इसे इसलामोफ़ोबिया कहा गया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि लोगों के भीतर मुसलमानों को लेकर तरह-तरह के पूर्वग्रह हैं।