यह कितने दुख और आश्चर्य की बात है कि अफ़ग़ानिस्तान भारत का पड़ोसी है और उसके भविष्य के निर्णय करने का काम अमेरिका कर रहा है? भारत की कोई राजनीतिक भूमिका ही नहीं है।
भारत की विदेश नीति के सामने एक बड़ी दुविधा आ फँसी है। भारत शीघ्र ही विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ का अध्यक्ष बननेवाला है। यहाँ भारत के लिए सवाल यह है कि इस मुद्दे पर वह किसका समर्थन करे, चीन का या ताइवान का?
कोरोना संकट का दंश भारत में रहने वाले ग़रीब-मजदूर झेल रहे हैं। जबकि संपन्न वर्ग के लोगों पर इसका ज़्यादा असर नहीं हुआ है और वे आराम से घरों में बैठे हैं।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक कहते हैं कि मुझे दर्जनों नेताओं ने फ़ोन किए, उनमें भाजपाई भी शामिल हैं कि प्रधानमंत्री का भाषण इतना उबाऊ और अप्रासंगिक था कि 20-25 मिनट बाद उन्होंने उसे बंद करके अपना भोजन करना ज़्यादा ठीक समझा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के भोजन-सुरक्षा विशेषज्ञ पीटर एंवारेक ने कहा है कि मांसाहार से कोरोना के फैलने का ख़तरा ज़रूर है लेकिन हम लोगों को यह कैसे कहें कि आप मांस, मछली, अंडे मत खाइए?
विदेशों से जिन लोगों को लाया गया है, उनको मुफ्त की हवाई-यात्रा, मुफ्त का खाना और भारत पहुँचने पर मुफ्त में रहने की सुविधाएँ भी दी गई हैं। लेकिन इनके मुक़ाबले हमारे नंगे-भूखे मज़दूरों से सरकार रेल-किराया वसूल कर रही है।
देश कोरोना के संकट में फँसा है और आप लोगों से थालियाँ और तालियाँ बजवा रहे हैं। एक तरफ़ राहत कार्यों के लिए आप लोगों से दान माँग रहे हैं और दूसरी तरफ़ फ़ौजी नौटंकियाँ में करोड़ों रुपये बर्बाद करने पर उतारू हैं।
कोरोना संकट की सबसे ज्यादा मार ग़रीबों पर पड़ी है। लाखों प्रवासी मजदूर जहां-तहां फंसे हुए हैं, सरकारों को उन्हें उनके गांव तक पहुंचाने का इंतजाम करना चाहिए।
कांग्रेस-अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने 7 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर पाँच सुझाव दिए थे, उनमें से ज़्यादातर बहुत अच्छे थे। मैंने उनका समर्थन किया था लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उन्होंने जो कुछ बोला है, वह ठीक नहीं।
अब तालाबंदी में ढील की घोषणा तो हो गई लेकिन ज़मीनी असलियत क्या है? लोगों में मौत का डर इतना गहरा बैठ गया है कि कारखानेदार, दुकानदार और बड़े अफ़सर अपने कर्मचारियों को अपने दफ्तरों में बुला रहे हैं लेकिन वे आने को ही तैयार नहीं हैं।
कोरोना का युद्ध इतना गंभीर है कि यह पूरा पिछला एक महीना हम सब लोग अंदरुनी सवालों से ही जूझते रहे। फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि इस कोरोना-संकट के दौरान भारत की विश्व-छवि बेहतर ही हुई है।
इससे ज़्यादा शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि कोरोना के मसले को भी हिंदू-मुसलमान का रंग दिया जा रहा है। इंदौर और मुरादाबाद में डाॅक्टरों और नर्सों पर जो हमले किए गए हैं, उनकी जितनी निंदा की जाए, कम है।
केंद्र सरकार के दफ्तरों में मंत्री लोग और बड़े अफ़सर दिखाई पड़े हैं, उससे आप पक्का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अब यही साहस राज्यों की सरकारें भी दिखाना शुरू कर देंगी।
अंदाज़ लग रहा है कि तालाबंदी अभी दो सप्ताह तक और बढ़ सकती है। इस नई तालाबंदी में कहाँ कितनी सख्ती बरती जाए और कहाँ कितनी छूट दी जाए, यह भी सरकारों को अभी से सोचकर रखना चाहिए।
अगर लॉकडाउन लंबे समय तक जारी रहा तो इससे करोड़ों लोगों के बेरोज़गार होने का ख़तरा है। लेकिन इसे हटा लें तो तो कहीं भारत में भी इटली और अमेरिका-जैसा विस्फोट न हो जाए।