सरकार के इस काले क़ानून और क्रूर क़दमों के ख़िलाफ़ जो लोग आज आवाज़ उठा रहे हैं, वे किसी एक समुदाय, जाति या बिरादरी की आवाज़ नहीं है, वह पूरे राष्ट्र और हर आम भारतीय नागरिक की आवाज़ है!
इस बार 81 सीटों वाली झारखंड विधानसभा के चुनाव में मोदी-शाह ने झारखंड के लिए ‘65-पार’ का नारा दिया था। पर झारखंड की अवाम ने बीजेपी को महज 25 पर सीमित कर दिया।
नागरिकता क़ानून के समर्थन-विरोध को हिन्दी भाषी प्रदेशों में ‘हिन्दू-मुसलमान’ में तब्दील करने के सत्ताधारी एजेंडे को लेकर विपक्ष सतर्क नज़र क्यों नहीं आ रहा है?
अभी हाल में देश के प्रतिष्ठित पत्रकार नितिन सेठी ने ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ के शासकीय फ्रॉड का जिन ठोस तथ्यों के साथ पर्दाफ़ाश किया, क्या वह महा-घोटाला नहीं है?
अयोध्या के मंदिर-मसजिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के एकमत फ़ैसले का आधार क्या वाक़ई सिर्फ़ क़ानून है, इसमें आस्था, विश्वास, कथा या इतिहास, किसी भी अन्य पहलू की कोई भूमिका नहीं है?
क्यों चाहिए, एक नयी पार्लियामेंट बिल्डिंग, नया सचिवालय और राजपथ का नया परिदृश्य! सवाल है- क्या नए चमकीले भवनों के निर्माण से हमारी डेमोक्रेसी चमकेगी या लोकतांत्रिक संविधान के तहत काम करने से?
यदि भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने के लिए गोपाल कांडा के समर्थन की ज़रूरत नहीं होती, तो क्या लोगों का ध्यान इस ओ गया होता? क्या इस तरह के कांड करने वाले अकेले व्यक्ति हैं गोपाल कांडा?
बीजेपी के अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह क्यों कहते हैं कि इतिहास को फिर से लिखे जाने की ज़रूरत है? क्या वे इतिहास तथ्यों के आधार लिखवाना चाहते हैं या अपनी मनमर्जी से?
कोई स्थानीय सिरफिरा अमेरिका में अगर एनआरसी जैसी किसी सरकारी परियोजना लाने की मांग करने लगे तो क्या होगा? वहां ‘एंटी-एशियन उग्रता’ उभरने लगे तो क्या होगा?
कश्मीर और कश्मीरी आज ख़बर के विषय हैं पर विडम्बना देखिये, उन्हें अपनी ख़बर भी नहीं मिल रही। क्या ऐसे हालात ‘इमरजेंसी’ में भी थे? तब सेंसरशिप का प्रतिरोध जारी था। आज जैसा संपूर्ण (सरेंडर) नहीं था!