तालिबान की कट्टरता अफग़ानिस्तान को कहाँ ले जाएगी? वे पिछली बार की तरह ही जुल्म ढाएंगे या फिर इस बार बदले हुए होंगे? मुकेश कुमार के साथ चर्चा में हिस्सा ले रहे हैं- क़मर आग़ा, शिवकांत (लंदन), क़ुरबान अली, सज्जाद पीरज़ादा (लाहौर) और शीबा असलम फ़हमी
भारत में अफ़ग़ान राजदूत फ़रीद मामंदज़ई ने कहा है कि यदि तालिबान से चल रही बातचीत टूट ही गई और अमेरिका की सेना लौट गई तो उनका देश भारत से सैनिक सहायता मांगेगा।
भारत की विदेश नीति कैसी है? अफ़ग़ानिस्तान में भारत की हालत अजीब-सी हो गई है। तीन अरब डॉलर वहाँ खपानेवाला और अपने कर्मचारियों की जान कुर्बान करनेवाला भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा है।
अमेरिका ने आतंकवादियों को पनाह देने वाले जिस इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान संगठन की जड़ें उखाड़ने के लिए सितंबर 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई की थी वह अब उसी से अपना पिंड छुड़ा रहा है। भारत अब वहाँ किस रूप में दिखेगा?
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना की वापसी से तालिबान और अलक़ायदा को नई ज़िंदगी मिल गई है। अब यहाँ हिंसा की नई इबारत लिखी जा रही हैं। ऐसा लग रहा है कि 11 सितंबर तक सेना की पूरी वापसी हो जाने तक हालात बेकाबू हो जाएंगे।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से कल तीन महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं। एक तो अलास्का में अमेरिकी और चीनी विदेश मंत्रियों की झड़प, दूसरी मास्को में तालिबान-समस्या पर बहुराष्ट्रीय बैठक और तीसरी अमेरिकी रक्षा मंत्री की भारत-यात्रा।
पठानों से भिड़कर पहले रुसी पस्त हुए और अब अमेरिकियों का दम फूल रहा है। अमेरिका अपनी जान छुड़ाने के लिए कहीं भारत को वहाँ न फँसा दे? अमेरिका तो चाहता है कि भारत अब चीन के ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोल दे और एशिया में अमेरिका का पप्पू बन जाए।
अफ़ग़ानिस्तान तालिबान वार्ता दोहा में जब अंतिम दौर में है तो इसमें भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर भी वीडियो लिंक से शामिल हुए। इस बार तालिबान और काबुल सरकार के बीच समझौते की बड़ी उम्मीद है।
यह कितने दुख और आश्चर्य की बात है कि अफ़ग़ानिस्तान भारत का पड़ोसी है और उसके भविष्य के निर्णय करने का काम अमेरिका कर रहा है? भारत की कोई राजनीतिक भूमिका ही नहीं है।