आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लॉकडाउन खोलने को लेकर नागरिकों के मन में जैसी चिंताएँ हैं वैसी उन लोगों के मनों में बिलकुल नहीं हैं जो दुनिया भर में सरकारों में बैठे हुए हैं।
एक ख़बर सरकार के एक आधिकारिक प्रवक्ता द्वारा दी गई यह जानकारी है कि देश को अब कोरोना के वायरस के साथ ही जीना सीखना होगा। इस ख़बर को बहस में आने ही क्यों नहीं दिया गया?
हम जो कुछ भी इस समय अपने ईर्द-गिर्द घटता हुआ देख रहे हैं उसमें नया बहुत कम है, शासकों के अलावा। केवल सरकारें ही बदलती जा रही हैं, बाक़ी सब कुछ लगभग वैसा ही है जो पहले किसी समय था।
राज्यों की सीमाओं पर अभी ‘कच्ची’ दीवारें उठ रही हैं, प्रदेशों को जोड़ने वाली सड़कों पर अभी ‘अस्थायी’ गड्ढे खोदे जा रहे हैं। सब कुछ कोरोना से बचाव के नाम पर हो रहा है। कोई न तो सवाल कर रहा है और न कोई जवाब दे रहा है।
राजीव बजाज ने हाल ही में सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि लॉकडाउन बेमतलब का है। न सिर्फ़ किसी भी स्वास्थ्य समस्या का इससे समाधान नहीं निकलेगा, इससे आर्थिक संकट का भी निराकरण नहीं होगा।
ये कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जिनका कि रिकॉर्ड और याददाश्त दोनों ही में बने रहना ज़रूरी है। कोरोना को एक-न-एक दिन ख़त्म होना ही है, ज़िंदा तो अंततः इसी तरह की लाखों-करोड़ों कहानियाँ ही रहने वाली हैं।
आपात स्थितियाँ नागरिकों की तरह ही प्रजातंत्र और उससे सम्बद्ध संस्थानों की इम्युनिटी को भी किस हद तक प्रभावित या कमज़ोर कर देती हैं उसका पता वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं लगाया जा सकता।
इस कठिन समय में सरकार के समक्ष भी विकल्प चुनने का संकट है कि लोगों की ‘ज़िंदगी’ और ‘रोज़ी-रोटी’ में से पहले किसे बचाए? मौजूदा संकट को भी एक युद्ध ही बताया गया है।
इंदौर के टाटपट्टी-बाखल इलाक़े की ही तरह मुरादाबाद में भी स्वास्थ्य और पुलिसकर्मियों पर हमला हुआ। इसके बाद कई सवाल खड़े हो रहे हैं, जिनके जवाब मिलने बेहद ज़रूरी हैं।
केरल से दोगुना से ज़्यादा आबादी के राज्य मध्य प्रदेश में 3 मार्च के बाद से कथित तौर पर राजनीतिक-प्रशासनिक लॉकडाउन तो था ही 26 मार्च से बाक़ी देश के साथ कोरोना के लॉकडाउन में भी आ गया।
समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है कि राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री के चौथे सम्बोधन के बाद भी उम्मीदों की रोशनी किस तरह से ढूँढी जानी चाहिए? तीन सप्ताह के ‘लॉकडाउन’ को लगभग तीन सप्ताह (19 दिन) और बढ़ा दिया गया है।