आज़ादी के बाद से ही आदिवासियों की भलाई की चिंता की जाती रही है, लेकिन कितना भला किया जा सका है? क्या आज़ादी के बाद पहली आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बनने के बाद हालात पहले से बदलेंगे?
प्रधानमंत्री के बिहार दौरे के दौरान जेडीयू और आरजेडी का रूख उनके प्रति इतना नरम क्यों रहा? जातीय जनगणना, विशेष राज्य की माँग जैसे अहम मुद्दों पर भी ये दल चुप रहे। लेकिन क्यों?
बिहार में जाति जनगणना के मुद्दे पर नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की एक राय क्या बनती दिखी, कयास लगाए जाने लगे कि क्या अब बीजेपी और जेडीयू गठबंधन टूटने वाला है? आख़िर बार-बार गठबंधन पर ऐसे सवाल क्यों उठते हैं?
बीजेपी की मदद से सरकार चलाने के वावजूद नीतीश इफ़्तार पार्टी कर सकते हैं और लालू परिवार को उसमें आमंत्रित कर सकते हैं। इसका क्या मतलब है और बीजेपी के लिए क्या संदेश है?
बिहार में बीजेपी और जेडीयू की गठबंधन सरकार बनने के बाद से ही अनबन की ख़बरें आती रही हैं तो क्या विधानसभा में अध्यक्ष के साथ नीतीश कुमार का बयान उस खटास को दिखाता है? क्या दोनों दलों के बीच में सबकुछ ठीक नहीं है?
उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में विधानसभा चुनावों से पहले नेहरू जैसी शख्सियतों पर हमला क्यों किया जा रहा है और क्यों धर्म निरपेक्ष नज़रिए को छोड़ हिंदू नज़रिए से इतिहास को समझने की कोशिश हो रही है?
सम्राट मिहिर भोज पर गुर्जर व राजपूत समाज के लोगों के बीच और सुहेल देव को लेकर राजभर और राजपूत समाज के लोगों के बीच विवाद क्यों है? पहले तो ऐसा विवाद नहीं था तो आख़िर अब ऐसा क्या हो गया है?
उत्तर प्रदेश में अगले कुछ महीनों बाद चुनाव होने हैं, लेकिन काफ़ी पहले से ही राजनीतिक दल ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिश में जुट गए हैं। चाहे वह मायावती हों या अखिलेश यादव। बीएसपी के बाद बीजेपी भी प्रबुद्ध सम्मेलन के लिए जुटी हुई है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जाति जनगणना की माँग क्यों की? क्या वह इसके ज़रिए अति पिछड़ों और अति दलितों को फिर से अपनों खेमे में लाने का दाँव चल रहे हैं?
पत्रकार संतोष भारतीय की नयी किताब देश की राजनीति के उस दौर की गवाह है जिस दौर में कांग्रेस पार्टी संसदीय राजनीति के शिखर तक पहुँची और जल्दी ही अपने भीतर की कमज़ोरियों के कारण पतन के रास्ते पर चल पड़ी।
पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह को याद करत हुए पत्रकार शैलेश बताते हैं कि किस तरह उन्होंने किसी ख़बर के लिए सबूत जुटाने का सबक एक ग़लती से सीखा और किस तरह 'रविवार' के संपादक उनके साथ खड़े रहे।
मुझे आज भी इस बात पर अचरज होता है कि एक बहुत कम उम्र के छात्र से प्रशासन इतना क्यों डरा हुआ था कि परीक्षा देने के लिए भी कॉलेज तक ले जाने के लिए तैयार नहीं था।
फ़िल्म की तरह चिराग़ पासवान का राजनीतिक भविष्य सुपर फ़्लॉप साबित होगा या फिर वह पार्टी में बग़ावत की आँधी के बीच अपने पिता राम विलास पासवान की राजनीतिक विरासत को संजो कर रख पाएँगे?