भारत में अगर मीडिया और लोकतंत्र पर खतरे की बात अगर कही जा रही है तो वो यूं ही नहीं कही जा रही। मोदी सरकार ने चार महीने के अंदर तीसरे विदेशी पत्रकार को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। संयोग से इनें दो फ्रांस से हैं और एक ऑस्ट्रेलिया से। पिछले साल दिल्ली और अन्य स्थानों पर बीबीसी के दफ्तरों पर पड़े छापों को कोई भूला नहीं होगा। जानिए ताजा मामला क्या हैः
पुलवामा में मोदी सरकार की नाकामी पर जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक बहुत बड़ा खुलासा कर चुके हैं। लेकिन देश के मुख्यधारा के मीडिया ने सारे मामले पर ऐसे चुप्पी साध ली है, जैसे कुछ हुआ ही न हो। चिन्तक और सत्य हिन्दी के स्तंभकार अपूर्वानंद ने उसी खामोशी के अंदर झांकने की कोशिश की है।
विदेशी मीडिया में कोरोना की वजह से मोदी की तीखी आलोचना हो रही है । लेकिन भारतीय मीडिया चुप हैं । किससे डरता है । आशुतोष के साथ चर्चा में आलोक जोशी, शरत प्रधान, संजय सिंह, राजेश बादल, प्रेम कुमार ।
पत्रकारिता आज़ादी के दौर में मिशन थी, बाद में प्रोफ़ेशन बन गयी और अब टीवी चैनलों के शोर के दौर में प्रहसन हो चुकी है। इस पत्रकारिता का सूत्र वाक्य है - सनसनी सत्यं, ख़बर मिथ्या।
दक्षिण भारत के दो टीवी चैनलों पर प्रतिबंध लगाने के थोड़ी देर बाद ही प्रतिबंध हटा दिया गया। ऐसा आख़िर क्यों हुआ? क्या सरकार इन चैनलों के ज़रिए दूसरों को संकेत देना चाहती है कि वह सत्तारूढ़ दल और उससे जुड़ी संस्थाओं की आलोचना न करें? क्या मीडिया के लिए इमर्जेंसी जैसे हालात बन रहे हैं? सत्य हिन्दी के विशेष कार्यक्रम 'आशुतोष की बात' में देखें वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का विश्लेषण।