संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई में भारतीयों द्वारा 'इसलामोफ़ोबिया' वाले पोस्ट डाले जाने पर तीन लोगों को या तो नौकरी से निकाल दिया गया है या फिर निलंबित कर दिया गया है।
जिस हिन्दू-मुसलिम नस्लवाद की आग से भारत, बीते कई वर्षों से झुलस रहा है, उसकी लपटें अब खाड़ी के देशों तक पहुँच गयी हैं। इतिहास गवाह है कि नस्लवाद की प्रतिक्रियाएँ होती ही हैं।
कोरोना संकट के समय देश में तालाबंदी है लेकिन धार्मिक नफ़रत और हिंसा की खिड़कियाँ खुली हुई हैं। दिल्ली जैसे महानगरों से लेकर छोटे शहरों में सब्जी और फल बेचने वालों से उनका नाम पूछा गया। उनका आधार कार्ड देखा गया।
देश भर में फैलाई जा रही धार्मिक नफ़रत के बीच मुंबई में भी एक ऐसा ही मामला आया है। एक व्यक्ति ने डेलिवरी लेने से कथित तौर पर इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि डेलिवरी देने वाला व्यक्ति मुसलिम था।
भारत में कोरोना महामारी की आड़ में मुसलिम समुदाय के ख़िलाफ़ जिस तरह सरकारी और ग़ैर-सरकारी स्तर पर सुनियोजित नफ़रत-अभियान और मीडिया ट्रायल चलाया जा रहा है, उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रिया होने लगी है।
कोरोना महामारी के बीच धार्मिक आधार पर भेदभाव किए जाने और इसे साम्प्रदायिक रूप दिए जाने की चर्चाओं के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है कि कोरोना महामारी निशाना बनाने से पहले जाति, धर्म, रंग, पंथ, भाषा या सीमा नहीं देखती है।
मुरादाबाद में पत्थरबाज़ी का कोई बचाव या समर्थन नहीं हो सकता। लेकिन मरकज़, तबलीग और मुरादाबाद के नाम पर आम मुसलमान के खिलाफ नफ़रत फैला रहे लोगों का क्या इलाज है? आलोक अड्डा में चर्चा ताहिरा हसन, अकु श्रीवास्तव और आशुतोष के साथ।
देश भर में नफ़रत का माहौल क्यों है? क्या ऐसा इसलिए है कि नफ़रत फैलाने वाली जमातों ने प्राथमिक शिक्षा को ही गाँधी के आदर्शों से भटकाने में सफलता हासिल करके समाज में नफ़रत का माहौल पैदा किया है?