क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो महीने से अधिक समय से चल रहे किसान आन्दोलन और उसे स्थानीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिलने वाले समर्थन से बौखला गए हैं? क्या वे यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं कि लोग इससे जुड़ते जा रहे है?
कृषि क़ानून और किसान आन्दोलन पर क्यों सरकार ढिठाई से बिना पलक झपकाए उस सदन में झूठ बोल रही है, जहाँ संसद को गुमराह करना जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार का हनन है?
किसान आन्दोलन पर सरकार यही सन्देश दे रही है कि किसान नागरिक अधिकारों से विहीन नागरिक बनते जा रहे हैं। उनके बारे में बिना चर्चा कानून बनाने से लेकर उनको इस स्थिति मेँ लाने तक यही चल रहा है।
विपक्ष ने किसान आन्दोलन पर लोकसभा में चल रही बहस के दौरान सरकार से कहा कि तीनों कृषि क़ानूनों को तुरन्त वापस ले लिया जाना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस के सदस्य डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि सरकार को इसके लिए एक विधेयक तैयार करना चाहिए।
कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर रहे किसानों से मिलने ग़ाज़ीपुर गए सांसदों के प्रतिनिधिमंडल को उत्तर प्रदेश पुलिस ने रोक दिया है। दूसरी ओर, संसद में कृषि क़ानूनों पर बहस चल रही है।
कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आन्दोलन का मुद्दा एक बार फिर संसद पहुँच गया है। मंगलवार को राज्यसभा में इस पर हंगामा हुआ और दो बार सदन की कार्यवाही स्थगित की गई।
कृषि क़ानूनों के वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन ने जाति और धर्म की बाधाओं को तोड़ कर लोगों को एकजुट कर दिया है। इसके अलावा, इन्होंने राजनेताओं को इस मामले से दूरी बनाये रखने के लिए कहा है।
उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद प्रशासन ने कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आन्दोलन से जुड़े संगठनों को ग़ाज़ीपुर बॉर्डर खाली करने का नोटिस दे दिया है।
16 विपक्षी दलों के नेताओं ने इसका एलान करते हुए कहा है कि वे आन्दोलनकारी किसानों के साथ है और उनके साथ एकजुटता प्रकट करने के लिए राष्ट्रपति के अभिभाषण का बायाकॉट करेंगे। इन दलों ने एक तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने की माँग सरकार से की है।
सरकार शुरू से कृषि क़ानून वापस नहीं लेने और किसान आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए फूट डालने की रणनीति पर चल रही थी। ट्रैक्टर परेड के बाद उसे बहाना मिल गया है।
छह महीने के राशन-पानी और चलित चौके-चक्की की तैयारी के साथ राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पहुँचे किसान अपने धैर्य की पहली सरकारी परीक्षा में ही असफल हो गए हैं, क्या ऐसा मान लिया जाए?
क्या केंद्र सरकार कृषि क़ानूनों पर पहले से अधिक सख़्त रुख अपनाएगी और बातचीत फिर शुरू करने में दिलचस्पी नहीं लेगी? क्या किसान संगठन ट्रैक्टर रैली और हिंसा के बाद अपने स्टैंड से पीछे हटेंगे?