45 साल पहले आपातकाल के दौरान जब जेपी का नज़रबंदी आदेश निकला था तब प्रेस में खलबली मची थी। प्रेस सेंसरशिप भी लागू हो चुकी थी। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या होने वाला है।
अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज़्यादा बुरे दौर से गुज़र रहा है।