नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने बयान दिया है कि 'भारत में लोकतंत्र कुछ ज़्यादा ही है'। ऐसे में जब किसान आंदोलन को कुचला जा रहा है, विरोध की आवाज़ दबाई जा रही है, यह कितना सही है?
हमें देश में संसदीय प्रजातंत्र को क़ायम रखना है तो यह प्रावधान लागू करना होगा कि यदि कोई विधायक या सांसद दल बदल विरोधी क़ानून के अंतर्गत अयोग्य घोषित होता है तो उसकी अगले 5 वर्षों तक नियुक्ति नहीं होनी चाहिये।
देश जब दिक्कतों का सामना कर रहा हो, जनता या तो घरों में बंद हो या सड़कों पर पैदल चल रही हो, आपदा प्रबंधन के तहत सारी शक्तियाँ कुछ व्यक्ति-समूहों में केंद्रित हो गई हों, उस स्थिति में अदालतों, विपक्ष और मीडिया को क्या काम करने चाहिए?
क्या हम नब्बे दिन बाद ही पड़ने वाले इस बार के पंद्रह अगस्त पर लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के तिरंगा फहराने और सामने बैठकर उन्हें सुनने वाली जनता के परिदृश्य की कल्पना कर सकते हैं?
बीते एक साल में दुनिया भर में लोकतंत्र को लेकर बढ़ती चिंता ने राजनीति शास्त्र के एकेडेमिक्स में हलचल मचा दी है, पिछले साल ही कम से कम 5 ऐसी किताबें हारवर्ड से लेकर कैंब्रिज तक के विश्वविद्यालयों से आयी हैं जिन्होंने दुनिया भर में पाठकों को हिला कर रख दिया है।