देश के संविधान पर उपराष्ट्रपति से लेकर भारत के कानून मंत्री तक टिप्पणी कर रहे हैं। लेकिन हाल ही में उपराष्ट्रपति का बयान या हमला गंभीरता से लिया जाना चाहिए। आखिर सरकार की मंशा क्या है। जानी-मानी पत्रकार वंदिता मिश्रा ने उपराष्ट्रपति के बयान से जारी विवाद के संदर्भ में सभी पहलुओं को समझाने की कोशिश की है।
देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है तो फिर सरकारी संस्थाओं में धार्मिक आधार पर भेदभाव क्यों? क्या संवैधानिक कृत्यों का निर्वहन धार्मिक दरवाजों से किया जा सकता है?
‘ब्रह्मकुमारीज’ के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने क्या नागरिक अधिकारों को कम करने या ख़त्म करने का संकेत दिया है? उन्होंने क्यों कहा कि 75 साल हम सिर्फ़ अधिकारों की बात कर अपना समय बर्बाद करते रहे?
संविधान और लोकतंत्र पर सत्तापक्ष और हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा जितना ही खुलकर हमला हो रहा है उतना ही डॉ. आंबेडकर और उनकी वैचारिकता की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है।
देश ने स्वतंत्रता के बाद सैद्धांतिक रूप से आत्मनिर्भरता, समृद्धि के जो भी बदलाव देखे हैं वह डॉ. भीमराव आम्बेडकर के संविधान को मूलरूप से अपनाने के बाद अनुभव किए हैं।