नागरिकता संशोधन विधेयक केंद्रीय सरकार के मंत्रिमंडल ने पारित कर दिया है। सरकार इसे क्यों लाना चाहती है? क्या धार्मिक आधार पर ऐसे भेदभाव की इजाज़त संविधान देता है?
महाराष्ट्र में आख़िरकार भारतीय जनता पार्टी जीत गई। कैसे, यह प्रश्न अप्रासंगिक है। जीतना ही असल बात है। जीत ही परम सत्य है। जीत ही नैतिकता है। जो जीतता है, वही सच्चा और नैतिक है।
बीएचयू में डॉक्टर फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति को लेकर विश्वविद्यालय स्पष्ट कर चुका है कि उनकी नियुक्ति सारी प्रक्रियाओं का पालन करके की गई है लेकिन आंदोलनकारी मानने को तैयार नहीं हैं।
9 नवंबर, 2019 के बाद अब यह कहा जा रहा है कि ठहरे रहने का नहीं, आगे बढ़ने का वक़्त है। शायद उच्चतम न्यायालय ने अपने फ़ैसले से हमें आगे बढ़ने का अवसर दिया है।
‘मंदिर वहीँ बनाएँगे’, पिछले तीस साल से यह नारा लगाते हुए जिनके गले छिल गए हैं, उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा गया है, ‘इतना हलकान क्यों होते हो? मंदिर वहीं बनेगा।’
रिपोर्ट बताती है कि बहुत सारी दलित औरतों ने पाया कि ज़मीन के काग़ज़ पर से उनके नाम हट गए हैं और उनके मालिक अब गाँव के दबंग जातियों के लोग हैं। क्यों है ऐसी स्थिति?
पीलीभीत के एक स्कूल के हेडमास्टर का निलंबन इस आरोप के बाद हुआ कि वह छात्रों को एक धार्मिक प्रार्थना करने को मजबूर कर रहे थे। स्कूलों में प्रार्थना हो या नहीं?
विडंबना देखिए कि जिस साल गाँधी के जन्म के 150 साल पूरे होने का जश्न मनाया जा रहा था उसी साल गाँधी की हत्या के षड्यंत्र के सरगना को भारत रत्न बनाने की माँग की जा रही थी।
वर्धा के महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अजब-गज़ब हुआ। पीएम को चिट्ठी लिखने के लिए अजीब नियमों के तहत छह छात्रों को निकाला और अब आख़िरकार पलटना पड़ा।
दिल्ली विश्वविद्यालय मैथिली के अध्ययन के बारे में गंभीरता से विचार कर रहा है। उद्देश्य स्थानीय संस्कृति को बढ़ावा देना है। दिल्ली में मैथिली के अध्ययन से दिल्ली की स्थानीय संस्कृति के संवर्धन का संबंध है?
क्या 2 अक्टूबर गंदी आत्माओं का पर्व है? या उनका, जिनके हाथ भले तकली न हो, भले वे राम धुन न गा रहे हों, भले वे गाँधी का नामजाप भी न कर रहे हों, लेकिन उनके बताए मार्ग पर चल रहे हों?
एक विश्वविद्यालय की ख़बर सुर्ख़ियों में है, दूसरा ख़बर बन नहीं सका। हालाँकि यह दूसरा है जिसे देखकर हमें फ़िक्र होनी चाहिए। यह जादवपुर विश्वविद्यालय के साथ बिहार के गया स्थित दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय की बात है।
कौशलेंद्र प्रपन्न नहीं रहे। दिल के दौरे के बाद अस्पताल में मौत से जूझते हुए उन्हें हार माननी पड़ी। यह हार लेकिन कोई उनकी हार नहीं है। क्या उनकी मृत्यु का कोई ज़िम्मेदार नहीं?