जैन धर्म का मानव संस्कृति को योगदान ही माना जाएगा कि उसने क्षमायाचना को एक सामुदायिक या सार्वजनिक भाव के रूप में प्रतिष्ठित किया। पढ़ें अपूर्वानंद का लेख।
थाने पर भीड़ का इकट्ठा होना, उत्तेजित हो जाना, हिंसा पर उतर आना यह किसी भी तरह स्वीकार्य प्रतिक्रिया नहीं है। यह स्वाभाविक नहीं है, यह संगठित है और नियोजित है।
क्या हमें मान लेना चाहिए कि 2020 का 5 अगस्त भारतीय गणतंत्र के पहले संस्करण का अवसान और दूसरे संस्करण का जन्म दिवस है? क्या इसकी चमक दमक 15 अगस्त की आभा को धूमिल कर देगी?
प्रेमचंद को लेकर साहित्यवालों में कई बार दुविधा देखी जाती है। उनका साहित्य प्रासंगिक तो है लेकिन क्यों? क्या ‘गोदान’ इसलिए प्रासंगिक है कि भारत में अब तक किसान आत्महत्या कर रहे हैं?
माखनलाल चतुर्वेदी ठीक ही प्रेमचंद की ‘कठोर मज़दूरी को चिह्नित करते हैं। उनकी भाषा जो इतनी सहज जान पड़ती है, पानी की तरह बहती हुई, उसके पीछे शब्दों और भाषा की दीर्घ साधना तो है ही, ख़ुद का उनके साथ घोर परिश्रम है।
उमर अब्दुल्ला नाराज़ हैं। भारत के विपक्ष से, संसद से और अपने आप से। अपने साथ किए गए धोखे से वह नाराज़ हैं। वह क्षुब्ध हैं कि जम्मू और कश्मीर की रही-सही स्वायत्तता का अपहरण कर लिया गया और उसके दो टुकड़े कर दिए गए।
हिंदी साहित्य में किसी प्रेमचंद-युग की चर्चा नहीं होती, उर्दू साहित्य में भी शायद नहीं। लेकिन यह कहना बहुत ग़लत न होगा कि अज्ञेय हों या जैनेंद्र या और भी लेखक, वे प्रेमचंद-युग की संतान हैं।..प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर सत्य हिन्दी की विशेष श्रृंखला की सातवीं कड़ी।
प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर अपूर्वानंद बता रहे हैं कि ‘ईदगाह’ की याद इस प्रसंग में सहज ही आती है। प्रेमचंद का प्यारा हामिद हास्यपूर्ण युक्तियों का सहारा लेता है अपने दोस्तों से बदला लेने का।
प्रेमचंद के हास्य बोध, उनकी करुणा और गढ़ी गई भाषा पर यह लेख लिखा है कि अपूर्वानंद ने। प्रेमचंद के 140 साल पूरे होने पर यह सत्य हिन्दी की विशेष पेशकश है।
शायद अब वक़्त आ गया है कि इसे किसी एक ख़ास मुल्क या मज़हब या समुदाय को लगनेवाली बीमारी न मानकर वैसे ही महामारी माना जाए जैसे हम कोरोना वायरस के संक्रमण को मानते हैं।
प्रेमचंद 140 के हुए। नहीं, यह कहना पूरी तरह सही न होगा। प्रेमचंद तो कुल जमा 110 के हुआ चाहते हैं। इनकी पैदाइश 1910 की है। उसके पहले का अवतार था नवाब राय।