यूपी आत्मनिर्भर रोज़गार अभियान को प्रधानमंत्री मोदी ने लॉन्च किया है। क्या इससे उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में रोज़गार उत्पन्न होंगे और बेरोज़गारी कम होगी?
चंबल में डाकुओं की बंदूक़ें गरजती रही हैं। मिल्खा सिंह सौभाग्यशाली था जो पंजाब में पैदा हुआ, चंबल के बीहड़ों में जन्म लेता तो एनकाउंटर में मारा जाता। पानसिंह तोमर दुर्भाग्यशाली था जो चम्बल में पैदा हुआ!
चंबल के बीहड़ में क्या फिर से डाकुओं की हलचल होगी? अगर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो इनमें से कइयों की तीसरी पीढ़ी के ‘चम्बल में कूदने' की संभावना हर समय बनी रहेगी।
8 साल बाद फ़िल्म 'पानसिंह तोमर' एक बार फिर नए सिरे से ‘पुनर्जीवित’ होने वाली है। इस बार चर्चा के केंद्र में है पानसिंह का भतीजा। फ़िल्मकारों के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने वाला है।
कोविड 19 की चपेट में आये देश के पहले पत्रकार आगरा के पंकज कुलश्रेष्ठ की मृत्यु का एक माह गुज़र जाने के बावजूद न तो राज्य सरकार और न केंद्र ने एक ढेले की सहायता राशि देने की कोई ज़रूरत समझी।
उत्तर प्रदेश सरकार को भली भाँति पता है कि निरंतर गिरती आर्थिक दशा और बेरोज़गारी का चढ़ता ग्राफ़ आने वाले समय में सूबे को ऐसे भूचाल में ले जाकर छोड़ेगा, जिसका सामना सिर्फ़ दमन से ही किया जा सकता है।
गुज़रे रविवार डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कोविड सम्बन्धी बायो मेडिकल कचरे के निबटान का विवरण माँगा है। उनका कहना है कि कचरे का निबटान ठीक से नहीं हो पा रहा है।
कुम्भकर्णी नींद में ग़ाफ़िल होने के चलते अपनी शुरुआती नाकामयाबियों से बौखलाई सरकार और बीजेपी ने कोविड-19 के प्रारम्भिक प्रसार का ठीकरा जमातियों के मत्थे फोड़ दिया। अब किसकी बारी है?
प्रधानमंत्री के लॉकडाउन राहत कोष से दी जाने वाली भामाशाही रहमतें, औद्योगिक अस्पताल के बाहरी बरामदे के टूटे-फूटे बेड पर लेटे नज़ीर अहमद के फ़ुटवियर उद्योग के लिए 'वेंटिलेटर' का इंतज़ाम कर पाएँगी?
लंबे संघर्षों के बाद आख़िरकार कामगारों के 8 घंटा काम के जिस अधिकार को 'अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ (आईएलओ) ने 1919 में मान्यता दी थी, ठीक एक सदी बाद क्या इस तरह अपनी आँखों के सामने उन्हें 'उड़नछू' हो जाते वह देखता रहेगा?
विगत गुरुवार हिंदी के प्रमुख अख़बार 'दैनिक जागरण' के आगरा संस्करण के चीफ़ सब एडिटर पंकज कुलश्रेष्ठ कोरोना के विरुद्ध युद्ध हार गए। लेकिन क्या प्रशासनिक लापरवाही नहीं होती तो वह इतनी आसानी से वह हार मानते?