यह तथ्य तो अब जगजाहिर हो चुका है कि भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण के बढ़ते मामलों के लिए एक संप्रदाय विशेष को संगठित और सुनियोजित रूप से ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।
भारत में कोरोना महामारी की आड़ में मुसलिम समुदाय के ख़िलाफ़ जिस तरह सरकारी और ग़ैर-सरकारी स्तर पर सुनियोजित नफ़रत-अभियान और मीडिया ट्रायल चलाया जा रहा है, उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रिया होने लगी है।
‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट-2020’ बताती है कि भारत खुशहाल देशों की सूची में पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल से पीछे है जबकि 2013 तक उसकी स्थिति ठीक थी। आख़िर ऐसा क्यों हुआ है।
प्रधानमंत्री ने दिये जलाने का आह्वान तो कर दिया लेकिन उन्होंने डॉक्टर्स-नर्स को ज़रूरी चीजों के मुद्दे पर, लॉकडाउन से ग़रीबों को हुई परेशानी के बारे में बात क्यों नहीं की।
न्यायपालिका आज भी हमारे लोकतंत्र का सबसे असरदार स्तंभ है, जिसे हर तरफ़ से आहत और हताश-लाचार आदमी अपनी उम्मीदों का आख़िरी सहारा समझता है। न्यायपालिका का क्षरण क्यों?
भारत में गांवों में आबादी लगातार घटती जा रही है और तेजी से शहरीकरण हो रहा है। यह संविधान की भावना के विपरीत तो है ही इससे गण और तंत्र के बीच की खाई लगातार गहरी होती जा रही है।
मौसम की अति के चलते असमय होने वाली सैकड़ों मौतें हमारे उस भारत की नग्न सच्चाइयाँ हैं जिसके बारे में दावा किया जाता है कि वह तेज़ी से विकास कर रहा है और जल्द ही दुनिया की एक आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा।
देश के पंद्रह से भी ज्यादा राज्यों के विभिन्न शहरों में बीस से भी अधिक बड़े विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा से संबंधित प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र सड़कों पर निकल आए हैं।
हमारे राज्यपाल सचमुच अपना विवेक दिल्ली में रखकर राज्यों के राजभवनों में रहते हैं। दिल्ली में उनके विवेक का इस्तेमाल वे लोग करते हैं जो व्यावहारिक तौर पर उनके 'नियोक्ता’ होते हैं।
9 नवंबर को पाकिस्तान और भारत के बीच बना करतारपुर गलियारा भारत के सिख श्रद्धालुओं के लिए खोल दिया गया। क्या यह दोनों देशों के लोगों के बीच उम्मीद की किरण लेकर आया है?
जब देश में आर्थिक हालात बेहद ख़राब हों तो दीपावली का जश्न फ़ीका लगता है। लेकिन मीडिया और सत्तारुढ़ वर्ग यह बताने की कोशिश कर रहा है कि देश में सब कुछ सामान्य है।
अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज़्यादा बुरे दौर से गुज़र रहा है।