जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने राज्य विधानसभा को भंग करने के पक्ष में यह दलील दी है कि प्रदेश में मिलीजुली सरकार बनाने के लिए जो पार्टियाँ सामने आ रही थीं, वे एक-दूसरे की घोर विरोधी हैं और वे स्थायी सरकार नहीं दे सकती थीं।गवर्नर का तर्क पहली नज़र में ही अजीब है, ख़ास कर उस राज्य के लिए जहाँ पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी जैसे उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पिछले चार सालों में दो-दो सरकारें बना और चला चुके हैं। देश के दूसरे हिस्से में भी ऐसा कई बार हुआ है जब एक-दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाली पार्टियों ने त्रिशंकु नतीजा आने पर एक-दूसरे के साथ मिल कर सरकार बनाई। सबसे ताज़ा उदाहरण कर्नाटक का है जहाँ कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर की मिलीजुली सरकार चल रही है। उससे पहले गोवा और मेघालय में बीजेपी ने अपनी प्रतिस्पर्धी पार्टियों के साथ मिल कर सरकारें बनाईं। अतीत में भी बीजेपी उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ तीन-तीन बार सरकारें बना चुकी है जबकि चुनाव में दोनों एक-दूसरे के ख़िलाफ़ उतरी थीं और दोनों दलों की नीतियों और विचारधारा में कोई साम्य नहीं।जब भी किसी प्रदेश में त्रिशंकु चुनाव परिणाम आता है तो सरकार बनाने लायक बहुमत जुटाने के लिए पार्टियों द्वारा दूसरे दलों से विधायक तोड़ने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं जिसके लिए पैसे और पदों की ख़ूब बंदरबाँट होती है। पैसों या पदों के लिए ही किसी दल के साथ जुड़ने वाले विधायकों के बल पर बनी सरकार के मुक़ाबले वह सरकार ज़्यादा सही मानी जाती है जो दो या अधिक दलों के सहयोग से बनी हों। जम्मू-कश्मीर में यही हो रहा था।लेकिन राज्यपाल ने ऐसा होने नहीं दिया क्योंकि वह पूर्व में बीजेपी के नेता रह चुके हैं और अब भी उसी के प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे थे। जब तक बीजेपी पीपल्स कॉन्फ़्रेंस के नेता सज्जाद ग़नी लोन के नेतृत्व में सरकार बनाने की कोशिश कर रही थी और इसके लिए पीडीपी के असंतुष्ट विधायकों को चारा डाल रही थी, तब तक राज्यपाल को विधानसभा भंग करने की नहीं सूझी जबकि नैशनल कॉन्फ़्रेंस और पीडीपी महीनों से ऐसी माँग कर रहे थीं। लेकिन जैसे ही राज्य के दोनों क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाने के संकेत दिए, राज्यपाल ने विधानसभा भंग कर दी। स्पष्ट है कि अब तक विधानसभा इसीलिए भंग नहीं की गई थी कि किसी तरह बीजेपी की या उसके द्वारा समर्थिक सरकार राज्य में गठित कर दी जाए। जब ऐसा होता नहीं दिखा और लगा कि तीन विरोधी दल मिल कर कहीं राज्य में सरकार न बना लें, उन्होंने विधानसभा भंग कर दी।राज्यपाल की मंशा इससे और स्पष्ट होती है कि वह महबूबा मुफ़्ती को न मिलने का समय दे रहे थे न ही उनके दावे का पत्र स्वीकार कर रहे थे। बताया यह गया कि ईद की छुट्टी के कारण राज्यपाल दफ़्तर का फ़ैक्स बंद था। नतीजतन महबूबा को ट्वीट के माध्यम से अपना दावा पेश करना पड़ा। लेकिन उससे कुछ होना नहीं था क्योंकि राज्यपाल अपना इरादा पहले से ही बना चुके थे।राजनीतिक विशेषज्ञ हालाँकि कह रहे हैं कि महबूबा मुफ़्ती और उमर अब्दुल्ला कभी भी मिलीजुली सरकार चलाने के मूड में नहीं थे और यह चाल उन्होंने केवल इसलिए चली थी ताकि ग़ैर-बीजेपी सरकार बनने से रोकने के लिए राज्यपाल विधानसभा भंग कर दें और इसमें वे कामयाब रहे। लेकिन राज्यपाल ने विधानसभा भंग करने के समर्थन में जो दलील दी है कि परस्पर विरोधी दलों की सरकार लंबी नहीं चल सकती, उसकी गवाही न तो इतिहास देता है न वह अदालत में ही यह दलील ठहर पाएगी।यह अलग बात है कि शायद ही कोई दल राज्यपाल के आदेश को चुनौती दे क्योंकि बीजेपी और उसके समर्थकों के अलावा सभी चाहते थे कि विधानसभा भंग हो और नए चुनावों का रास्ता साफ़ हो।
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