पूर्णिमा दास
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कल्पना सोरेन
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दोस्तों, कल रात प्रभु राम मेरे सपने में आए। मैं उनका दिव्य रूप देखकर चकित था, हतप्रभ था। मुझे लगा मैं सपना देख रहा हूँ। मैंने खुद को चिकोटी काटकर चेक करना चाहा... तभी उनकी वाणी गूँजी… क्या सोच रहे हो वत्स... मैंने मान लिया कि हो न हो प्रभु राम साक्षात मेरे समक्ष खड़े हैं। मैंने उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद दिया- सत्यमार्गी भव।
फिर पूछा- अयोध्या जा रहे हो। मैं पसोपेश में पड़ गया। अगर सच बोल दूँ तो कहीं नाराज़ न हो जाएं। और अभी उन्होंने सत्यमार्गी होने का आशीर्वाद दिया है तो झूठ कैसे बोलूं। लेकिन वे ठहरे अंतर्यामी… मेरी दुविधा समझ गए।
पूछा- नहीं जा रहे हो न? मैंने थोड़ा हिचकिचाते हुए कहा... जी।
मुझे लगा भगवान नाराज़ हो रहे हैं… इसलिए थोड़ी खुशामद के स्वर में बोला- बधाई हो भगवन… इतने सालों बाद आपको आख़िर आपकी नगरी में छत मिल गई… और छत क्या वह तो बहुत ही विशाल, भव्य और दर्शनीय मंदिर है जहाँ आपकी प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है।
राम बोले- वह मेरा मंदिर नहीं है।
मुझ एक सदमा सा लगा… मैंने हठात् कहा- क्या बात कर रहे हैं। वह आपका ही मंदिर है। पूरी दुनिया जानती है कि आपके नाम पर ही मंदिर बनाया गया है।
वह मेरे नाम पर बनाया गया है, मगर मेरा नहीं है...।
वो कैसे भगवन्?
वह राजनीति का मंदिर है… वह मंदिर नहीं है, चुनावी दाँव है। उसकी भव्यता में सत्ता का मद दिखता है… शक्ति प्रदर्शन दिखता है… वह मंदिर आतंकित करने वाला है...।
मैं भौंचक्का उन्हें देख रहा था… उनके स्वर में खिन्नता का भाव था। वे दुखी थे, क्षुब्ध थे।
वे बोले- तुम लोग क्या मुझे मूर्ख समझते हो। मैं जानता नहीं कि मेरे नाम पर क्या किया जा रहा है। मेरे भक्तों को बरगलाकर वोटबैंक बनाया जा रहा है। ये राम भक्ति नहीं, सत्ता की साधना है।
नहीं, भगवन् ऐसा नहीं है।
ऐसा ही है… मैं देख रहा हूँ कि किस तरह छल-कपट से मंदिर बनाया जा रहा है। पहले चोरी-छिपे मूर्तियाँ रखी गईं… फिर एक मस्जिद ढहा दी गई और फिर न्यायालय से एक फैसला दिलवा दिया गया। ऐसे मंदिर को देखकर मैं कैसे प्रसन्न हो सकता हूँ।
लेकिन भगवान, अयोध्या आपकी जन्मस्थली है, वहां तो आपका भव्य मंदिर होना ही चाहिए न?
मैं राम, त्रिलोकदर्शी, त्रिभुवन का स्वामी, मैं तो कण कण में व्याप्त हूँ… मेरे लाखों मंदिर हैं। जिस मन में मेरा वास है वही मेरा मंदिर है… क्या तुम लोग मुझे अयोध्या के एक मंदिर में क़ैद कर देना चाहते हो?
ये लोगों की नहीं, एक राजनीतिक दल की, उसके नेताओं की भावना है… उनकी महत्वाकांक्षा है… और सबसे बुरी बात ये है कि इसके लिए नफ़रत और हिंसा का सहारा लिया गया… क्या यही राम का चरित है… राम प्रेम के प्रतीक हैं या घृणा के… राम न्याय के प्रतीक हैं या अन्याय के…?
मेरे पास उनके प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था इसलिए मैंने पूछा—तो मैं अयोध्या न जाऊँ?
अगर तुम भी किसी की चुनावी रणनीति का हिस्सा बनना चाहते हो तो ज़रूर जाओ। किसी एक नेता के सत्ता लोभ को पूरा करने में सहयोग देना चाहते हो तो ज़रूर जाओ… अगर मेरी भक्ति के कारोबार से फ़ायदा उठाना चाहते हो तो ज़रूर जाओ।
मैंने कहा- देखिए… वहाँ कितने बड़े-बड़े लोग जा रहे हैं। सेलेब्रिटियों से लदे सौ चार्टर्ड प्लेन पहुँच रहे हैं। ये राम के नाम को विश्व भर में फैलाने का बहुत बड़ा अवसर भी है।
इन बड़े बड़े लोगों को, सेलेब्रिटियों को मैं अच्छे से जानता हूँ। उनके सारे धतकरमों का हिसाब किताब चित्रगुप्त के पास से देखकर आया हूँ। ये लोग भी मेरे लिए नहीं जा रहे हैं...। वे जा रहे हैं एक नेता की चापलूसी के लिए...अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए...।
आप कहना क्या चाहते हैं… साफ़-साफ़ कहिए...।
मैं उस मंदिर में नहीं रहना चाहता… मैं ऐसे भव्य मंदिर में कैसे रह सकता हूँ जिस देश में करोड़ों लोगों के सिर पर छत न हो, वहाँ इस तरह की विलासिता अश्लील है... जिस देश में अस्सी करोड़ लोग सरकारी दया पर निर्भर हों, वहाँ मेरे नाम पर पंडे ऐश करें इसे मैं कैसे बर्दाश्त कर सकता हूँ… इस मंदिर से किसी का भला नहीं होगा… ये लोक कल्याण नहीं, एक वर्ग और वर्ण विशेष का कल्याण है।
नहीं, मैं ये नहीं करना चाहता… मैं चाहता हूँ कि जनता जागे और खुद तय करे कि वह राम के नाम का इस तरह से इस्तेमाल नहीं होने देगी।
तो मेरे लिए क्या आदेश है...
तुम पत्रकार हो… पत्रकार की तरह काम करो। तुम्हारे सपने में आने का फ़ैसला भी मैंने इसीलिए किया है। आज जो संवाद मैंने तुम्हारे साथ किया है उसका वीडियो बनाओ और उसे वायरल करवाओ ताकि वह हर भक्त तक पहुँचे और हर भक्त जान सके कि उनके भगवान राम क्या सोच रहे हैं और क्या चाहते हैं!
इतना कहकर राम अंतर्ध्यान हो गए। मैं इंतज़ार ही करता रह गया कि अब भगवान वरदान माँगने को कहेंगे। मैंने दो-चार चीज़ें सोची भी थीं, मगर उन्होंने मौक़ा ही नहीं दिया।
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