राजधर्म हर उस व्यक्ति का होता है जो राज करता है। यह बात बहुत पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को समझाई थी। मोदीजी ने यह बात इस तरह से गाँठ बाँध ली कि उनकी कुंडली में परमानेंट राजयोग आ गया। मोदी जी एक तरह से राजराजेश्वर हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के स्वामी यानी संपूर्ण पृथ्वी लोक के सबसे बड़े नेता। उनका दोबारा प्रधानमंत्री बनना यह बताता है कि वह अपना राजधर्म एकदम ठीक ढंग से निभा रहे हैं। अब सवाल यह है कि क्या मोदीजी ने अपने सभी मंत्रियों को भी राजधर्म की वही परिभाषा बताई है, जो अटलजी ने उन्हें बताई थी।
मैं सोचता हूँ कि क्या मोदीजी ने अपने नये-नवेले पशुपालन मंत्री गिरिराज सिंह से यह कहा होगा - ‘आप संपूर्ण पशु साम्राज्य के मुखिया हैं। राजा होने के नाते राजधर्म निभाइये। राजधर्म यह कहता है कि पशु-पशु में भेद नहीं हो सकता। गोमाता आपकी तरफ़ आशा से देख रही हैं तो ख़ैर मनाती बकरियाँ भी आपको पुकार रही हैं। उठिये, जाइये सबका कल्याण कीजिये।’ मेरा दिल कहता है कि मोदीजी ने गिरिराज सिंह से ऐसे शुभवचन ज़रूर कहे होंगे।
गिरिराज सिंह के पशुपालन मंत्री बनते ही सोशल मीडिया पर हंसी-ठिठोली शुरू हो गई। लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि मोदीजी पारखी आदमी हैं। अनुभव और अभिरूचि के हिसाब से पोर्टफ़ोलियो बाँटते हैं। अमित शाह को सीबीआई, वारंट, कोर्ट-कचहरी, जेल और बेल इन सबका सबसे ज़्यादा अनुभव है, इसलिए उन्हें होम मिनिस्टर बना दिया। इसके बाद हंसी-ठिठोली करने वाला अधूरी लाइन छोड़ देता है और लोग अगली लाइन अपने मन से पूरी करने में जुट जाते हैं। जो लोग कटाक्ष कर रहे हैं वे यह नहीं जानते कि गिरिराज सिंह को कितना महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपा गया है।
2012 की पशु गणना के हिसाब से भारत में जानवरों की तादाद 51 करोड़ है। इनमें आवारा पशु शामिल नहीं हैं। आवारा पशु बांग्लादेश या म्यांमार से आये घुसपैठियों की तरह होते हैं जबकि पालतू पशु वोटर की तरह होते हैं, जिन्हें समय-समय पर पुचकारा जाता है। तो कहने का मतलब गिरिराज उस जीव जगत के मालिक हैं, जिसकी संख्या मोदीजी को वोट देने वालों से भी कहीं ज़्यादा है। यह ताक़त मामूली नहीं है।
गिरिराज पर है बड़ी ज़िम्मेदारी
चुनावी राजनीति धनपशुओं के बिना नहीं चलती है लेकिन पशुधन के बिना इकॉनमी नहीं चलती। इकॉनमी और चुनावी राजनीति दोनों ज़रूरी हैं। तो गिरिराज सिंह जिनके कर्ता-धर्ता हैं, वे करोड़ों परिवारों का पेट पाल रहे हैं। इनमें रंभाती गायें हैं, दुधारू भैंसे हैं, मिमियाती बकरियाँ हैं। ऊन देने वाली भेड़ें हैं, जिनकी तादाद करोड़ों में हैं। अंडे देने वाली मुर्गियाँ हैं। गाँवों में मिट्टी ढोने वाले गर्दभ हैं और थूथन उठाकर जय बोलते कई कोटि वराह भी हैं। इन सबके उत्थान और उत्थान के ज़रिये करोड़ों पालकों के कल्याण की बड़ी जिम्मेदारी बाबू गिरिराज सिंह के कंधों पर है। सवाल यह है कि इतनी व्यस्तता के बीच गिरिराज सिंह ‘पाकिस्तान टूरिज्म’ वाली अपनी फ़ेवरेट हॉबी के लिए वक़्त कैसे निकाल पाएँगे?
पशुगणना की कहानी बड़ी दिलचस्प है। गाय हमारी माता है लेकिन पालकों को भैंस का साथ कहीं अधिक भाता है। भैंसों की तादाद कहीं ज़्यादा तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसे में भैंस को राष्ट्रमाता बनाने की माँग उठी तो गिरिराज सिंह क्या करेंगे?
संकट और बढ़ जाएगा अगर किसी ने गिरिराज सिंह को राजधर्म की याद दिला दी। पशु-पशु में भेद करना राजधर्म नहीं है। फिर क्या उपाय होगा? शायद बीच का रास्ता निकालकर मंत्रीजी भैंस को राष्ट्र मौसी बना दें। अब तक यह पदवी बिल्लियों ने ग्रहण कर रखी है और गिरिराज सिंह बिल्लियों के मंत्री नहीं हैं क्योंकि वे पशु गणना में नहीं आती हैं। इसलिए उनका अधिकार छीन लेना अनुचित नहीं होगा।
बीजेपी की पशु-प्रेमी नेता मेनका गाँधी का भी यही कहना है कि जो कोर वोटर ना हो, उसका काम मत करो। ऐसे में बिल्ली से मौसी का दर्जा छीनकर भैंस को देना गिरिराज जी के लिए राजनीतिक रूप से भी उचित फ़ैसला होगा।
गिरिराज सिंह के पशुपालन मंत्री बनने से किन पशुओं के दिन फिरेंगे इस पर भी अटकलें तेज़ हो गई हैं। गोमाता फ़ेवरेट रहेंगी यह तो तय है। गोमाता की वजह से सांड़ बप्पा और बैल काका की पौ-बारह है। योगी राज में उन्हें कोई टच भी नहीं कर सकता। गाय के नाम पर सांड़ उसी तरह इतराते फिरते हैं, जिस तरह महिला सरपंच का पति।
गिरिराज सिंह चाहें तो काउ फ़ैमिली की बेहतरी का क्रेडिट उसी तरह ले सकते हैं, जैसे किसी विकसित राज्य की सत्ता बदलने के बाद वहाँ का नया सीएम दावा करता है कि सब कुछ मैंने ही किया है। लेकिन गिरिराज सिंह ईमानदार आदमी हैं, वह ऐसा नहीं करेंगे। उनके पास करने के लिए बहुत ज़्यादा काम है। इस प्रजाति के लिए वह क्या-क्या कर सकते हैं, इस पर चर्चा बहुत लंबी हो जाएगी। विस्तार से बातें फिर कभी।
गधों में भी दौड़ी आशा की किरण
फिलहाल तो ख़बर बस इतनी है कि अपना नया मंत्री पाकर पशु समाज बहुत उत्साहित है। तबेलों से लेकर मुर्गीखाने तक हर जगह ‘फ़ील गुड’ है। आशा की किरण गधों में भी दौड़ी है। आख़िर उत्तर प्रदेश के चुनाव में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वह इस मेहनतकश कौम से प्रेरणा लेते हैं। ऐसी सरकार को इस समाज का कृतज्ञ होना चाहिए और उनकी बेहतरी के लिए कुछ करना चाहिए।
लेकिन गधों के लिए गिरिराज जी कोई ठोस कदम उठाएँगे इसकी संभावना फिलहाल कम है। वजह राजनीतिक है। गधों की ज़रूरत हमेशा विपक्ष वालों को पड़ती है, रैलियाँ निकालने और पुतले बैठाने के लिए। जहाँ सत्ता होती है, वहाँ तो गधे अपने आप घोड़े बन जाते हैं। ज़ाहिर है, गधों की ज़रूरत इस समय कांग्रेस को है, बीजेपी को नहीं। इसलिए गधों के लिए कुछ होने से रहा। अब देखना यह है कि गधों का कोई प्रतिनिधिमंडल गिरिराज जी से मिलकर उन्हें राजधर्म याद दिलाता है या नहीं?
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