दुनिया की कुछ बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अभी भले ही ऐसी गोलबंदी को समर्थन दे रही हों पर उन देशों के नागरिक समाज में अगर इसे लेकर किसी तरह का संशय या सवाल उठने लगे तो क्या होगा? ऐसे सवालों पर हमारी राजनीति या मीडिया में ज़्यादा गंभीरता नहीं दिख रही है।
एल्विस प्रेस्ली से पीएम मोदी की तुलना
अभी प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका में थे। अमेरिकी राष्ट्रपति और अपने ‘प्रगाढ़ मित्र’ डोनाल्ड ट्रंप के साथ उन्होंने ह्यूस्टन में ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम में गजब का समां बांधा। ट्रंप उनकी जोशीली शख्सियत और लोगों को प्रभावित करने की क्षमता से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने हमारे प्रधानमंत्री की तुलना पिछली शताब्दी के छठें-सातवें दशक के मशहूर रॉकस्टार एल्विस प्रेस्ली से कर दी। पर एल्विस अपने गीत-संगीत से लोगों को मुग्ध करते थे! उसमें किसी तरह की सियासी उत्तेजना या किसी परिघटना या प्रक्रिया के सतहीकरण जैसी चीज नहीं होती थी।
इस वक़्त मेरे दिमाग में एक सवाल उठ रहा है, कल अमेरिका में कोई सरकार (और वह ट्रंप भी हो सकते हैं!) अगर स्थानीय नागरिक समूहों के दबाव या अपनी नीतियों के तहत भारतीयों के लिए एच-1बी वीजा नीति में तब्दीली कर दे, उसे ज़्यादा सीमित कर दे तो ह्यूस्टन में दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के भाषणों पर झूमते प्रवासी भारतीयों और हमारे प्रधानमंत्री मोदी की क्या प्रतिक्रिया होगी?
कोई स्थानीय सिरफिरा अमेरिका में अगर एनआरसी जैसी किसी सरकारी परियोजना लाने की मांग करने लगे तो क्या होगा? वहां ‘एंटी-एशियन उग्रता’ उभरने लगे तो क्या होगा?
ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ, जब स्वयं ट्रंप ने आउटसोर्सिंग में कटौती और भारतीय प्रोफ़ेशनल्स को काम के लिए अमेरिकी वीजा पाने के नियमों में कड़ाई के ठोस संकेत दिये थे। प्रोफ़ेशनल्स की नई उभरती पीढ़ी के लिए भारत में पर्याप्त रोज़गार न होने या फिर जीवन में ज़्यादा बेहतर हासिल करने के लिए विकसित देशों में स्थानांतरित होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति के चलते भारत के लाखों लोग अमेरिका सहित दुनिया के अलग-अलग देशों में काम करते हैं। यही हाल चीन का भी है। वहां के भी लाखों लोग दुनिया भर में बसे हुए हैं।
प्रवासी भारतीय और भारत मूल के अन्य लोगों को जोड़कर देखें तो भारतीय प्रवासियों की (इंडियन डायस्पोरा) 3 करोड़ से भी कुछ ज़्यादा आबादी मानी जाती है। एंग्लो-अमेरिकी जगत के अलावा ये लोग खाड़ी के देशों में भी बड़ी तादाद में हैं। अमेरिका में इनकी प्रभावशाली उपस्थिति है। टेक्सास, कैलिफ़ोर्निया और न्यूयार्क जैसे राज्यों में ये ज़्यादा अच्छी स्थिति में हैं।
प्रधानमंत्री राजीव गाँधी, नरसिंह राव और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकारों ने डायस्पोरा को महत्व देना शुरू किया। इससे भारत की आर्थिक-राजनीतिक हैसियत पर कुछ प्रभाव पड़ा। आर्थिक सुधारों के दौर में इस प्रक्रिया को बल मिला। सिर्फ़ श्रम का नहीं, पूंजी का दायरा भी बढ़ा। लेकिन आज परिस्थितियों में थोड़ा बदलाव नज़र आ रहा है और अगर कुछ पक्ष सकारात्मक हैं तो कुछ तीख़े और नकारात्मक भी।
भारतीय प्रवासी समाज से देश के लिए रचनात्मक सहयोग लेने की बजाय कुछ राजनीतिक दल सत्ता या संकीर्ण सियासी स्वार्थ में उनका इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। इस स्वार्थ में उनके इस्तेमाल की मानो होड़ सी मची हुई है।
थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिए, जिस तरह की रंगभेदी नफ़रत और अन्य किस्म के उपेक्षा भरे भाव यदाकदा अमेरिका, आस्ट्रेलिया या कुछेक अन्य विकसित देशों में अश्वेतों या भारतीय प्रवासियों के प्रति दिखते रहते हैं, अगर मौजूदा नेताओं के तौर-तरीक़ों के चलते उसका विस्फोटक रूप सामने आने लगा तो क्या होगा?
ह्यूस्टन के मोदी-ट्रंप मेले (हाउडी मोदी) पर अपने देश में बहुत बड़ी आबादी गदगद और गौरवान्वित है। लेकिन इसके आलोचक भी कुछ कम नहीं हैं। सबसे ज़्यादा जिस बात के लिए प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना हुई है, वह है भारतीय प्रवासिय़ों के जमघट में ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा देने की वजह से! इसका क्या औचित्य था?
क्या ज़रूरत थी नारा देने की!
ज़्यादा वक्त नहीं हुआ, जब दुनिया के कई मुल्कों में चीनी प्रवासियों के बढ़ते प्रभाव पर उन देशों के ‘कथित’ स्थानीय लोगों की तीख़ी प्रतिक्रियाएं सामने आईं। ‘कथित’ इसलिए कि हमारी दुनिया का बड़ा हिस्सा लोगों के पलायन और प्रवास से विकसित हुआ है। इसलिए प्रवास की प्रवृत्ति या प्रवासियों को कहीं भी निशाने पर नहीं लिया जाना चाहिए।
प्रवासी चाहे चीन के हों, पाकिस्तान के या भारत के। अमेरिका और यूरोप के कई देशों में भारतीय प्रवासियों ने अपनी मेहनत से अपने लिए जगह बनाई है। भारत और पाकिस्तान के प्रवासियों के बीच बेहतरीन रिश्तों का हंसता-खेलता संसार देखा गया है। एक ही तरह के होटल-रेस्तरां, एक ही तरह का रंग-रूप, बोलचाल, मन और मिजाज में भी व्यापक समानता। ब्रिटेन से डेनमार्क तक, दुनिया के अनेक विकसित देशों में ‘इंडिया-पाकिस्तान-बांग्लादेश करी’ या ‘इंडिया-पाकिस्तान रेस्टोरेंट’ जैसे नाम दिखते हैं।
लेकिन हाल के वर्षों में विदेश में काम कर रहे आरएसएस-बीजेपी समर्थित संगठनों ने जिस तरह का माहौल बनाना शुरू किया है, उसमें घरेलू राजनीति के अंतर्विरोधों का परदेस में इस्तेमाल बढ़ा है।
उग्र हिन्दुत्व या दक्षिणपंथी ख़ेमे के शीर्ष नेताओं ने जिस तरह ध्रुवीकरण की राजनीति का अंतरराष्ट्रीयकरण किया है, उससे परदेस में भी इंडियन डायस्पोरा और दक्षिण एशियाई समाजों में विभाजन बढ़ रहा है। यह ख़तरनाक प्रवृत्ति है।
सांप्रदायिक उन्माद भरी नारेबाज़ी हुई
संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा के अधिवेशन के मौक़े पर न्यूयार्क जाने वाले भारतीय प्रधानमंत्रियों के स्वागत में पहले भी भारतीय प्रवासी संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय के सामने की सड़क पर इकट्ठा होते थे। लेकिन इस बार तो न्यूयार्क के उस इलाक़े में देर तक सांप्रदायिक उन्माद भरी नारेबाज़ी होती रही। एक तरफ़ मोदी-विरोधी भारतीय प्रवासियों और कुछ कश्मीरियों ने प्रधानमंत्री के विरुद्ध प्रदर्शन किये तो दूसरी तरफ़ भारतीय प्रवासियों के रंग-बिरंगे हुजूम न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के सामने ख़ूब जमकर नारे लगाते और मोदी की महिमा में भांगड़ा सहित अलग-अलग लोकनृत्य करते देखे गये।
बैंड-बाज़े के साथ रंगारंग जुलूस निकाले गए। कई समूहों के नारे सांप्रदायिक उग्रता से भरे हुए थे। कुछ दूरी पर पाकिस्तानियों ने भी अपने प्रधानमंत्री के पक्ष में नारेबाज़ी की। पर उनकी भीड़ खास असरदार नहीं थी। सवाल भीड़ या उसकी संख्या का नहीं है। असल सवाल है, आख़िर न्यूयार्क में ऐसे शक्ति प्रदर्शन से भारत या पाकिस्तान को क्या मिला या क्या मिलेगा?
कूटनीति में अपने प्रवासियों की गर्वीली गोलबंदी से ज़्यादा महत्वपूर्ण है - संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक मंचों पर ठोस तथ्य और विवेक सम्मत दलीलें! क्या यह सच नहीं कि हमारे दावों के बावजूद कि कश्मीर का अंतरराष्ट्रीयकरण नहीं होने देंगे, यूएन से लेकर अन्य मंचों पर कश्मीर का मसला बार-बार उछल रहा है।
यह सही है कि मोदी सरकार के कश्मीर से संबंधित फ़ैसलों पर इस वक़्त भारत को अमेरिका का बड़ा समर्थन मिला है। लेकिन चीन, पाकिस्तान और कुछ अन्य देश वैश्विक मंचों पर सवाल उठाने का कोई मौक़ा नहीं चूक रहे हैं।
बीते 27 सितम्बर को भी देखा गया कि संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की दक्षिण और मध्य एशिया मामलों की प्रभारी असिस्टेंट सेक्रेटरी एलिस वेल्स को भारत के बचाव में उतरना पड़ा। इसके कुछ ही देर पहले चीन और पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र के मंच से भारत सरकार की कश्मीर नीति पर आग उगली था। लेकिन एलिस ने अपने कुछ बयानों में भारत से यह अपेक्षा भी जताई कि वह कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करे। मानवाधिकार का सम्मान करे।
यह बात सही है कि ज़्यादातर विकसित देश कश्मीर के मुद्दे पर भारत को नाराज नहीं करना चाहते। उसकी सबसे बड़ी वजह है कि तमाम विकसित देशों के लिए पाकिस्तान या किसी भी अन्य देश के मुक़ाबले भारत बहुत बड़ा बाजार है। भारत को इससे वैश्विक मंचों पर ताक़त मिल रही है। लेकिन जम्मू-कश्मीर के अंदर या भारत-पाकिस्तान सरहद पर हालात ख़राब होने की स्थिति में भी शक्ति संतुलन ऐसा ही बना रहेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं! ऐसे में भारतीय उपमहाद्वीप या दक्षिण एशिया की तनावग्रस्त क्षेत्रीय राजनीति में भारतीय प्रवासियों का बेजा इस्तेमाल किसी के हक़ में नहीं रहेगा।
किसी भी विकसित देश में भारतीय प्रवासियों को वहां के परिवेश के मुताबिक़ अपने ढंग से जीने और रहने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए।
अगर भारतीय प्रवासी दुनिया के दूसरे देशों के सम्मानित नागरिक और मतदाता भी हैं तो उन्हें उनके राजनीतिक विचारों और चुनावी फ़ैसले की रणनीति तय करने के रास्ते में किसी भी भारतीय दल या नेता को बेवजह हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
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