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कहां गया विकास और रोज़गार का वादा, बदहाली की ओर बढ़ रहा भारत?

वैश्विक सूचकांक के आंकड़ों के मुताबिक़, दुनिया के तमाम ग़रीब और बदहाल लोगों का 28 फ़ीसदी हिस्सा भारत में रहता है। लेकिन एक राष्ट्र के रूप में अपनी इस दयनीय स्थिति पर क्या हमारी सरकार या समाज के स्तर पर किसी तरह की गंभीर चर्चा दिखती है? संपूर्ण राष्ट्र को नागरिकता और एनपीआर-एनआरसी के सवाल में उलझा दिया गया है। लोग अपने देश और समाज की बदहाली पर सत्ताधीशों से उनके कामकाज का हिसाब-किताब पूछने के बजाय स्वयं के भारतीय होने का सबूत इकट्ठा करने में जुटे हुए हैं!
उर्मिेलेश
2019 के मई महीने में दोबारा जनादेश हासिल करने के बाद नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार के शीर्ष नेताओं और मंत्रियों ने जिन दो शब्दों का उल्लेख सबसे कम किया है, वे हैं - विकास और रोज़गार!। जबकि 2014 में मोदी सरकार के दो सबसे प्रमुख नारे थे- ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘दो करोड़ लोगों को रोज़गार!’। कुछ समय बाद ही प्रधानमंत्री और अन्य सत्ताधारी नेताओं ने अपनी सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए 2022 का लक्ष्य तय कर दिया था। सरकार सिर्फ पांच साल यानी 2019 के लिए बनी थी पर प्रधानमंत्री सहित सभी प्रमुख नेता अपनी अगली चुनावी-जीत को लेकर इतने आश्वस्त थे कि वे अक्सर ही 2022 के लक्ष्य का उल्लेख करते रहते थे। 
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मई, 2019 में वे भारी बहुमत हासिल कर फिर सत्ता में वापस आ गए। लेकिन विकास और रोज़गार का लक्ष्य गायब हो गया। ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा लगाने वाली सरकार के पौने छह साल के शासन के बाद भारत विकास के अंर्तराष्ट्रीय मानकों पर दुनिया के सबसे बदहाल और दरिद्र मुल्कों की सूची में आज भी बरक़रार है। बीते महीने दिसम्बर की 9 तारीख़ को मानव विकास का वैश्विक सूचकांक जारी किया गया। उस वक्त भारत तमाम तरह की ग़ैर-ज़रूरी-वाहियात किस्म की बहसों में उलझा हुआ था और आज वह उलझाव पहले से भी ज्यादा खतरनाक शक्ल ले चुका है। इसलिए इस बार के सूचकांक पर लोगों को चर्चा करने का मौक़ा ही नहीं मिला। 

मानव विकास के वैश्विक सूचकांक में इस बार भारत का नंबर दुनिया के कुल 189 देशों में 129 वां है। चाहे तो हम इस पर खुश होकर यज्ञ-हवन या भांगड़ा कर सकते हैं कि दुनिया में 60 देश हमसे भी दरिद्र और बदहाल हैं और इन मुल्कों में हमारा पड़ोसी और ‘प्रिय-शत्रु’ पाकिस्तान शामिल है!

नागरिकता के सवाल में उलझाया 

वैश्विक सूचकांक के आंकड़ों के मुताबिक़, दुनिया के तमाम ग़रीब और बदहाल लोगों का 28 फ़ीसदी हिस्सा भारत में रहता है। लेकिन एक राष्ट्र के रूप में अपनी इस दयनीय स्थिति पर क्या हमारी सरकार या समाज के स्तर पर किसी तरह की गंभीर चर्चा दिखती है? संपूर्ण राष्ट्र को नागरिकता और एनपीआर-एनआरसी के सवाल में उलझा दिया गया है। आम लोगों में दहशत है। अनेक राज्यों में लोग अभी से कागजात हासिल करने के लिए लाइनें लगा रहे हैं। सत्ताधीशों के मजे हैं। लोग अपने देश और समाज की बदहाली पर उनसे उनके कामकाज का हिसाब-किताब पूछने के बजाय स्वयं अपने भारतीय होने का सबूत इकट्ठा करने में जुटे हुए हैं! मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कोशिश करके भी आप पूरी दुनिया में किसी मुल्क की बदहाली और बदहवासी का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं खोज सकते! 

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निर्वाचकों से मांग रहे नागरिकता का सबूत 

हमारे सत्ताधीश अपने निर्वाचकों से ही उनकी नागरिकता का सबूत मांग रहे हैं। दूसरी तरफ वे अपनी सत्ता का नया भव्य सदरमुकाम बना रहे हैं। इसके लिए भी 2022 का लक्ष्य रखा गया है। तब तक भारत के पास नई पार्लियामेंट बिल्डिंग होगी, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और विभिन्न मंत्रालयों के नये भवन होंगे। 2022 का लक्ष्य क्यों रखा गया? क्योंकि वह हमारे स्वाधीन राष्ट्र होने का 75वां वर्ष होगा। पूरे साल हम अपनी आजादी का जलसा मनायेंगे! पर इस जलसे के समानांतर देश की बड़ी आबादी में कोलाहल भी होगा। 

एक तरफ जनगणना पूरी की जा चुकी होगी और एनपीआर के आंकड़ों की रोशनी में एनआरसी का खूंखार दौर भी शुरू हो चुका होगा, जिसे फिलवक्त हमारी सरकार यह कहकर छुपाने की कोशिश कर रही है कि अभी तक एनआरसी की बात तो हुई ही नहीं! पर जैसा पूरा देश जान चुका है, हमारे गृहमंत्री सबको बता चुके हैं, क्रोनोलाजी समझा चुके हैं कि पहले एनपीआर आयेगा फिर एनआरसी!

बीजेपी की मौजूदा सरकार को दूसरा जनादेश पूरे पांच साल यानी मई, 2024 तक के लिए मिला है। लेकिन सत्ताधारी दल के ‘कैलेंडर’ में 2024 से ज्यादा 2022 एक अहम मुकाम बनकर पेश होता दिखता है। क्या आजादी के पचहत्तरवें साल में हमारे मौजूदा सत्ताधीश भारतीय राष्ट्र-राज्य को ‘नयी सौगात’ देना चाहते हैं? वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता के पचहत्तरवें साल को किस प्रकार मनाना चाहते हैं - भारत को खुशहाली की सौगात देकर या बदहाली और बदनसीबी की सौगात देकर?

सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर अपनी विफलताओं से लोगों का ध्यान हटाने के लिए जिस तरह ‘विभेदकारी और आतंककारी एजेंडे’ का इस्तेमाल हो रहा है, इतने बड़े पैमाने और योजना के साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। इसके मुकाबले इंदिरा गाँधी के दौर की इमरजेंसी बहुत फूहड़ प्रयोग था!

एजेंडे के लिए क़ानून का सहारा! 

मौजूदा शासकों ने बहुत पहले गुजरात में सूबाई स्तर पर ऐसे हथकंडों को आजमाया। आज उसी तरह के ‘विभेदकारी और आतंककारी एजेंडे’ को पूरे देश में नये अंदाज और नये रूप में आजमाया जा रहा है। इस नये रूप में नया कंटेंट भी है। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे एजेंडे को आजमाने के लिए क़ानून का सहारा लिया गया है। इस तरह के एजेंडे के दो पक्ष नजर आ रहे हैं - एक तरफ निरंकुश किस्म का मनुवादी-हिन्दुत्व राष्ट्र-राज्य बनाना और दूसरी तरफ आम लोगों का ध्यान उनके वास्तविक मसलों से हटाने का। इससे वे रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा की मांग न कर सकें या किसी तरह की लोकतांत्रिक आवाज़ ही न उठा सकें! 

संभवतः वर्तमान शासकों को देश के भयानक कलह और टकराव की तरफ बढ़ने की भी चिंता नहीं है। वैसे भी उनकी पसंद यूरोप के आधुनिक लोकतांत्रिक देशों के मुकाबले हमेशा जर्मनी-इटली का पिछली शताब्दी के चौथे दशक का या इजरायल का मौजूदा मॉडल रहे हैं।

आरएसएस के तमाम बड़े नेता औपचारिक तौर पर भी जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर और इटली के बेनिटो मुसोलिनी का प्रशंसात्मक लहजे में उल्लेख करते रहे हैं। संघ-निर्देशित मौजूदा सरकार ने हाल के कुछ वर्षों में इजरायल के साथ भारत के कूटनीतिक रिश्तों को नई ऊंचाई दी है। कश्मीर में इस्तेमाल की जाने वाली पैलेट-गन्स भी इजरायल से आयातित बताई जाती हैं। 

ऐसा लगता है कि हमारे मौजूदा शासक भारत में बड़े पैमाने पर कलह, टकराव और संघर्ष के असंख्य मोर्चे (कन्फ़्लिक्ट जोन) खोलकर निरंकुश ढंग से सत्ता में बने रहने को प्राथमिकता दे रहे हैं। ऐसी रणनीति को वे अब अमलीजामा पहनाने में जुट गए हैं। ग़रीबी और बदहाली ख़त्म करके समानता, सौहार्द्र और खुशहाली भरा लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राज विकसित करने में उनकी कोई रूचि नहीं है। 

महज दो साल बाद आज़ादी के पचहत्तरवें साल में दाख़िल हो रहे भारत के करोडों लोग बहुत तेजी से इस खतरनाक और अफसोसनाक मंजर की तरफ बढ़ते दिख रहे हैं। अद्भुत संयोग है, उसके अगले दो साल बाद ही आरएसएस अपने गठन का सौवां साल मनाना शुरू करेगा, जो मौजूदा  संविधान के प्रति अपनी नापसंदगी और भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाने के अपने लक्ष्य को कभी छुपाता नहीं है!

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