नई नियुक्तियों में सबसे अहम है - अमित शाह को गृह मंत्री बनाया जाना। गुजरात में नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल के सबसे विवादास्पद समय में शाह ही राज्य के गृह मंत्री थे। गुजरात की तत्कालीन सत्ता-संरचना का वही मॉडल अब भारतीय गणराज्य को मिल गया है!
2022 और 2025 के मायने!
2019 का चुनावी जनादेश हासिल करने से पहले प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के अनेक बड़े नेता अक्सर 2022 का जिक्र करते रहे हैं। 2014-2018 के दौरान वे बार-बार देश को बताते रहे कि मोदी सरकार की अमुक योजना 2022 तक पूरी कर ली जायेगी या अमुक प्रोजेक्ट 2022 में शुरू हो जायेगा! वे 2019 में भी अपनी सरकार बनाने के विश्वास से भरे हुए थे। मतदान का आख़िरी चरण पूरा होने से पहले वे यह भी बताने लगे कि उन्हें 300 से ज़्यादा सीटें मिलने वाली हैं। बंगाल में इस बार त्रिपुरा के विधानसभा चुनावों की तरह बड़ा चमत्कार कर दिखाने का संकेत भी देने लगे थे। उन्हें इस बार का जनादेश पूरे पाँच साल यानी मई, 2024 तक के लिए मिला है। लेकिन सत्ताधारी दल के ‘कैलेंडर’ में 2022 अक्सर एक अहम मुकाम बनकर पेश होता है।2022 में भारत के आज़ाद मुल्क बनने के पचहत्तर साल पूरे हो रहे हैं। बीजेपी के मातृ संगठन-आरएसएस की स्थापना के सौ वर्ष 2025 में पूरे होंगे यानी सबकुछ यथावत चलता रहा तो उसके एक साल पहले ही देश में अगला लोकसभा चुनाव होगा। इस तरह अगले छह साल बीजेपी-आरएसएस और मोदी सरकार के लिए बहुत अहम हैं।
मोदी सरकार और बीजेपी-संघ के लिए आने वाले छह साल सिर्फ़ कुछ निर्माण या विकास योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की दृष्टि से ही नहीं अपितु कुछ बड़े राजनीतिक फ़ैसलों और क़दमों के लिहाज से भी बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।
अटल-आडवाणी-जोशी के दौर वाली बीजेपी ने मंदिर-मसजिद विवाद के जरिये समाज में सांप्रदायिकता की अपनी राजनीति को मजबूत किया। जब वे केंद्रीय सत्ता में नहीं थे, एक सांप्रदायिक अभियान के दौरान एक मसजिद का ढांचा गिरा दिया गया! पर जब वे सत्ता में आए तो चाहते हुए भी भारत के लोकतांत्रिक-सेकुलर संविधान के गुंबद को गिराने की ताक़त उनमें नहीं आई।
बीजेपी अध्यक्ष और आज के गृहमंत्री अमित शाह राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को ‘चतुर बनिया’ बताने में संकोच नहीं करते। इस दल के दूसरी-तीसरी कतार के नेता यहाँ तक कि सांसद-विधायक-मंत्री भी खुलेआम संविधान को बदलने की बात करते हैं।
गोड्से-सावरकर को बताते हैं ‘आदर्श’
कुछ नेता तो नाथूराम गोड्से और विनायक दामोदर सावरकर को अपना ‘आदर्श’ बताते हैं। पहले की तमाम सत्ता-संरचनाओं और मौजूदा सत्ता-संरचना के बीच यह बहुत बड़ा अंतर है। आज का सबसे बड़ा सवाल है - क्या 2022 के इनके कैलेंडर में हमारे मुल्क के बुनियादी विचार या भारत की मूल संकल्पना, जिसे अंग्रेजी में ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ कहते हैं, में बड़ी उलट-पुलट करने का कोई ख़तरनाक इरादा भी शामिल है? आप में से कुछ लोग कह सकते हैं कि यह सवाल वाजिब नहीं हैं या इसके जरिये मैं कुछ ज़्यादा सोच रहा हूँ या कि ऐसा नहीं हो सकता! पर आप में से कितनों ने सोचा था कि 1999 में लद्दाख के करगिल क्षेत्र में देश के दुश्मनों से लड़ने वाला भारतीय सेना का एक सूबेदार मोहम्मद सनाउल्लाह सेवानिवृत्त होने के बाद असम में एनआरसी के नाम पर घुसपैठिया बताकर सरकारी निर्देश पर गिरफ़्तार कर लिया जाएगा?कितने लोगों ने सोचा था कि मालेगाँव हमले की एक अहम आतंकी-अभियुक्त को मौजूदा सत्ता-संरचना इस कदर अपना वरदहस्त देगी कि वह जेल के बजाय संसद पहुँच जायेगी। वह गोड्से को देशभक्त बतायेगी और कई बीजेपी नेता उसकी बात का समर्थन करेंगे।
संवैधानिक संस्थाएँ ‘हाइजैक’ की जा रही हैं। उनमें कइयों ने तो स्वयं ही अपने को सत्ताधारियों की सेवा में सादर समर्पित कर दिया है। न्याय की हमारी पूरी प्रणाली भी आज के राजनीतिक बवंडर में हिलती नज़र आ रही है।
संविधान को बेमतलब करने के ख़तरे!
बीजेपी के दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापसी के मायने साफ़ हैं। सत्ताधारी नेता अगले पाँच सालों में वह सबकुछ हासिल करना चाहेंगे, जो बीते पाँच साल के दौरान चाहते हुए भी पूरा नहीं कर सके थे। बीजेपी के मातृ संगठन आरएसएस के तत्कालीन नेताओं ने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया क्योंकि उन्हें स्वतंत्र, आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत की संकल्पना से चिढ़ थी, वे भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना चाहते थे। उन्हें तिरंगा नापसंद था। वे तब से आज तक अपने सम्मेलनों और भवनों पर भगवा झंडा लहराते हैं। वे शुरू से ही भारत को आगे नहीं, अतीत में यानी पीछे ले जाना चाहते थे।गाँधी-नेहरू-भगत सिंह और अंबेडकर जैसों के चलते तब उनकी दाल नहीं गली। दुर्योग देखिए, भारत के आज़ाद होने के सत्तर-बहत्तर साल बाद हिंदू राष्ट्र के स्वप्नदर्शियों के वंशज आज भारी समर्थन से सत्ता में हैं।
गाँधी-नेहरू-भगत सिंह और अंबेडकर आदि की महान विरासत के ध्वजवाहक कहीं नहीं दिखते। उनके नाम पर कुछ लोग, कुछ दल और कुछ मोर्चेबंदियां भर हैं। पर जनता में उनका वैसा जनाधार नहीं हैं, जैसा आज संघ-बीजेपी का है। इसलिए इस आशंका को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता कि मौजूदा सत्ताधारी आज़ादी के पचहत्तरवें साल यानी 2022 के आते-आते भारत के मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य को अपनी पसंद के अनुसार ढालना चाहें!
अल्पसंख्यकों को बना रहे निशाना
एनआरसी के जरिये आज वे देश में अल्पसंख्यक समुदाय के एक हिस्से को निशाना बना रहे हैं। अक्टूबर 1947 में बड़ी मुश्किलों से भारतीय गणराज्य में शामिल हुए कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35-ए के खात्मे के जरिये टकराव के और भी ख़तरनाक क्षेत्र में तब्दील कर रहे हैं। कल वे कुछ और भी कर सकते हैं। अपने से असहमत लोगों के ख़िलाफ़ बड़ा अभियान चला सकते हैं। संविधान में बड़ा बदलाव या बदलाव किये बग़ैर उसकी मूल संकल्पना या बुनियादी विचार को वे पूरी तरह बेमतलब बना सकते हैं।समाज के कुलीन और कॉरपोरेट संरक्षित इन सत्ताधारियों के निशाने पर पहले से ही देश के दलित-पिछड़े-आदिवासी-अल्पसंख्यक रहे हैं। रोहित वेमुला से लेकर कोरेगाँव और आरक्षण के नियमों में बदलाव जैसे अनेक घटनाक्रम इसके सबूत हैं। किसी भी समुदाय के ऐसे लोग इन्हें क़तई पसंद नहीं, जो ग़रीबों, दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों के अधिकारों का समर्थन करें।एडवोकेट और मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, अरुण परेरा और शोमा सेन सहित ऐसे अनेक लोग आज भी जेलों में पड़े हैं। गौरी लंकेश, प्रो. कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर और पनसारे जैसे अनेक लोग मारे गए। जाने-माने अधिवक्ता प्रशांत भूषण और वरिष्ठ पत्रकार गौतम नवलखा जैसे सैकड़ों मानवाधिकारवादी इनके निशाने पर रहते हैं।
मजबूत सरकार से राष्ट्र कमजोर न हो!
लोकतांत्रिक मूल्यों पर ऐसे तमाम हमलों के बावजूद वे लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत से जीते हैं। उनके पास अपार धनशक्ति है, टेक्नोलॉजी और कॉरपोरेट समर्थित सांगठनिक नेटवर्क है। भारत के असमानता और दुर्दशा ग्रस्त समाज के अंतर्विरोधों का वे बेहद सुनियोजित तरीक़े से इस्तेमाल कर रहे हैं। हमारा मानना है कि आगे भी वे असमानता और भेदभाव आधारित समाज में ग़रीबों के लिए सामाजिक-आर्थिक सहूलियतें यानी वेलफ़ेयर के कुछ झुनझुने देते रहेंगे और उसके समानांतर समता-स्वतंत्रता सौहार्द्र के मूल्यों पर आधारित राष्ट्र-निर्माण के एजेंडे की जगह निरंकुश किस्म के हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की बुनियाद डालने की हरसंभव कोशिश करेंगे।इस चुनाव की तरह आगे भी वे ग़रीबों-दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों के एक हिस्से का समर्थन जुटाकर अल्पमत की अपनी वैचारिकी को राजनीतिक-बहुमत में तब्दील करने की कोशिश जारी रखेंगे। कॉरपोरेट और टेक्नोलॉजी की ताक़त उनकी मुहिम को कामयाब करती रहेगी।
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