दलित आंदोलन या उसे और व्यापक बनाते हुए कहें तो बहुजन आंदोलन आज लगभग नेतृत्वविहीन होकर पस्त पड़ा हुआ है। दिलचस्प बात है कि यह परिदृश्य ऐसे दौर में सामने आया है, जब दलित और बहुजन समाज में सचेत, शिक्षित और सक्रिय लोगों की संख्या सबसे ज़्यादा है। समाज में ज़मीनी स्तर से लेकर सोशल मीडिया तक, इन समुदायों की सक्रियता देखी जा सकती है। ऐसा पहले कभी नहीं था। समाज में सबसे अधिक ग़रीबी इन्हीं समुदायों में है। पर पहले की तुलना में इनकी आर्थिक ताक़त बढ़ी है। इनके बीच का एक छोटा सा हिस्सा समृद्ध भी हुआ है। यानी वह चाहे तो पहले के मुक़ाबले अपनी-अपनी पसंद के संगठनों या नेताओं को चंदा भी ज़्यादा दे सकता है। इन सारी संभावनाओं और शक्तियों के बावजूद दलित-बहुजन आंदोलन और उसके नेतृत्व के प्रभाव और गुणवत्ता में बढ़ोतरी नहीं दिखाई देती।
आठवें-नवें दशक में उभरे बड़े और विख्यात बहुजन नेता कांशीराम के निधन के बाद उनके द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी भी धीरे-धीरे बिखरती जा रही है। उसके पास न तो कोई गतिशील नेतृत्व है और न ही कोई ठोस सामाजिक-राजनीतिक एजेंडा बचा है।
बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती अब सिर्फ़ अपना ‘निजी साम्राज्य’ बचाने में लगी हुई हैं! पिछड़ों के प्रतिनिधित्व या कम से कम उनके बीच व्यापक जनाधार रखने वाली यूपी की समाजवादी पार्टी, अपना दल, बिहार के राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यू), लोक जनशक्ति पार्टी आदि पार्टियाँ अपना राजनीतिक तेवर खो चुकी हैं या धीरे-धीरे खोती जा रही हैं। इस धारा के बड़े नेताओं - मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान या अनुप्रिया पटेल अपने-अपने कारणों से अब हिन्दी भाषी क्षेत्र में सामाजिक न्याय आंदोलन के किसी तरह की प्रेरक शक्ति नहीं रह गए हैं।
सबसे बड़ा सवाल उठता है - ऐसा क्यों हुआ? दशकों पहले समाजवादियों ने एक नारा दिया था - ‘जाति नहीं, जमात बनाओ!’ वह एक सार्थक नारा था। उसके पीछे सोच और विचार था। पर समाजवादियों का बड़ा हिस्सा बाद में स्वयं रास्ता भूल गया और जमात के बजाय जाति-दलबंदी के दलदल में फंस गया। भारत में ब्राह्मणवादी-वर्णाश्रमी व्यवस्था या किसी भी प्रकार की जातिवादी-वर्णवादी सोच हो, उसका कारगर विरोध स्वयं जातिवादी या वर्णवादी होकर नहीं किया जा सकता। व्यापक सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य की रोशनी में ही जाति और वर्ण से लड़ा जा सकता है और वर्णवादी-मनुवाद के उन्मूलन का सही रास्ता खोजा जा सकता है।
आज भी बहुत सारे लोग डॉ. अम्बेडकर की वैचारिकी पर यह कहकर सवाल उठाने की हास्यास्पद कोशिश करते हैं कि आरक्षण के लिए संघर्ष करने वाले अम्बेडकर जातियों के विनाश के पैरोकार कैसे हो सकते हैं? काश, ऐसे लोग समझ पाते कि सकारात्मक कार्रवाई का, जिसका एक हिस्सा आरक्षण भी है, जातियों के विनाश के अभियान या एजेंडे से कोई अंतर्विरोध नहीं है। पहली बात तो यह कि भारत जैसे देश में दलित-आदिवासी समाज के सबसे सताये और उत्पीड़ित लोग हैं, इसमें शायद ही किसी को किसी तरह का संदेह हो! जहाँ तक पिछड़ों का सवाल है, उनके आरक्षण का आधार बुनियादी तौर पर सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन पर तय हुआ। ऐसे में डॉ. अम्बेडकर के जाति-विनाश के एजेंडे और आह्वान को सकारात्मक कार्रवाई के विलोम या उसके अंतर्विरोधी पहलू के तौर पर देखना नादानी के सिवाय और कुछ भी नहीं!
अगर हम बीते तीन दशकों के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास, ख़ासतौर पर हिन्दी पट्टी के राज्यों पर नज़र डालें तो एक बात आईने की तरह साफ़ है कि इस दौर के ज़्यादातर नेताओं के पास ब्राह्मणवादी मूल्यों और हिन्दुत्वा से निपटने की वह बौद्धिक-राजनीतिक चेतना नहीं थी, जिसका विस्तार बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की वैचारिकी की रोशनी में ही संभव हो सकता था। उसी वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए आज के हिन्दुत्वा की भीषण चुनौतियों से निपटा जा सकता था।
कांशीराम ने की कोशिश
सिर्फ़ कांशीराम ने शुरू में कोशिश की। यह महज संयोग नहीं कि उन्होंने अपनी पार्टी का नाम दलित समाज पार्टी के बजाय बहुजन समाज पार्टी रखा। पर बाद के दिनों में आंदोलन और नवजागरण पर बीएसपी का जोर कम होने लगा और सत्ता के समीकरणों का दबाव बढ़ने लगा। यह वही दौर था, जब पार्टी में सुश्री मायावती प्रभावी होने लगीं। उन्होंने यूपी और मध्य प्रदेश में बसपा के कई समर्पित और कांशीराम के पसंदीदा नेताओं-कार्यकर्ताओं को संगठन में हाशिये पर डलवा दिया या बाहर का रास्ता दिखा दिया।
लालू-मुलायम की राजनीति
एक समय संघर्षों के नेता रहे समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव धीरे-धीरे कुनबावादी और कॉरपोरेटवादी होते गए। उधर, बिहार में समाजवादी दिग्गज कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद राजनीतिक परिदृश्य पर अचानक लालू प्रसाद के रूप में एक बड़े नेता का उदय हुआ। उन्होंने सामंती दबदबे वाले बिहार में दलितों-पिछड़ों के बीच जबर्दस्त आशा जगाई। पर उनके पास कोई बड़ा परिप्रेक्ष्य नहीं था।
लालू ने बहुजन समाज के बीच सामाजिक न्याय के कुछ लोकप्रियतावादी फ़ॉर्मूलों का जमकर इस्तेमाल किया। लेकिन बिहार जैसे राज्य में जिन चार क्षेत्रों को प्राथमिकता से लेने की ज़रूरत थी, उन्हें लगातार नज़रंदाज किया। पहला - शिक्षा क्षेत्र में बहुजनों के साथ संपूर्ण समाज को बेहतर विकल्प देना। दूसरा - भूमि सुधार के लिए ठोस क़दम उठाना, जिससे बहुजन समाज का उन्नयन बहुत तेज़ी से होता, तीसरा - जनस्वास्थ्य में और चौथा - औद्योगिक क्षेत्र में पहल करना।
लालू प्रसाद ने आरक्षण की बातें तो बहुत कीं पर सरकारी क्षेत्र में ज़्यादा नौकरियाँ नहीं थीं। उस पर भी दलित-बहुजन समाज के लोगों का बड़ा हिस्सा शैक्षिक स्तर पर अभी बहुत पीछे था।
बिहार या यूपी जैसे राज्य महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल या कर्नाटक तो थे नहीं कि जहाँ लंबे समाज सुधार आंदोलनों के प्रभाव के चलते दलित-बहुजन में स्वतः ही शैक्षिक और बौद्धिक जागृति का विस्तार हुआ हो! बिहार आंदोलनों की भूमि ज़रूर थी पर बाद के ज़्यादातर आंदोलनों का नेतृत्व अगड़ी जातियों के कथित उदार या प्रगतिशील नेताओं के हाथ में रहा।
आज़ादी से पहले की त्रिवेणी संघ की धारा का बाद के वर्षों में सकारात्मक दिशा में विस्तार हुआ होता और उसे ठोस बहुजनवादी वैचारिकी मिलती तो बिहार, ख़ासकर मध्य बिहार में सातवें-नवें दशक के वामपंथी आंदोलनों में उस तरह का ठहराव नहीं आया होता, जिसके चलते आज अपने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और कुछ क्षेत्रों में जनाधार के बावजूद यह आंदोलन राजनीतिक तौर पर ठोस वैकल्पिक शक्ति नहीं बन सका।
वाम-रूझान के साथ बहुजनवादी वैचारिकी ही बिहार में ठोस विकल्प बन सकती थी। लेकिन न तो लालू प्रसाद और न ही वामपंथी दल ऐसी ठोस वैचारिकी की जमीन तैयार कर सके।
हिन्दी पट्टी के राज्यों का एक बड़ा संकट यह भी रहा कि आधुनिक काल में यहाँ की कथित बहुजनवादी या दलित-पिछड़ों की राजनीति को सुसंगत समाज-सुधार आंदोलनों की पृष्ठभूमि नहीं मिली। इसके पास फुले, शाहूजी महराज, डॉ. अम्बेडकर, पेरियार, अय्यंकली या नारायण गुरू जैसे वैचारिक प्रकाशपुंज भी नहीं थे। मध्यकाल के कबीर, रैदास, नानक और दादू के बाद समाज सुधार की वैचारिक धारा आधुनिक भारत में आते-आते सूख चुकी थी। बड़े सुनियोजित ढंग से उस धारा पर ब्राह्मणवादी हमले हुए थे।
ब्रितानिया हुकूमत ने हिन्दी पट्टी में जाति और वर्णवाद-विरोधी किसी धारा को न पनपने देने में ब्राह्णाणवादी शक्तियों का भरपूर सहयोग किया। हिन्दी पट्टी में आज़ादी की लड़ाई के सारे प्रमुख राजनीतिक नेता भी अगड़ी जातियों से ही आए थे।
भारत को बेहतर समाज और मजबूत लोकतंत्र बनाने के रास्ते में जितनी समस्याएँ हैं, उसका बड़ा हिस्सा हिन्दी पट्टी से जुड़ा है। आज़ादी के तिहत्तर साल बाद भी हम हिन्दी पट्टी को समावेशी समाज के निर्माण की दिशा में उल्लेखनीय़ स्तर तक आगे नहीं बढ़ा सके। इसके पीछे बड़ा कारण हमारी वर्णव्यवस्था और उससे निकलने वाला जातिवाद है। भारत के कॉारपोरेट ने भी वर्णवादी संकीर्णताओं से आसानी से समझौता कर लिया। यही कारण है कि वह यूरोप के पूंजीपतियों की तरह यहाँ सही अर्थों की पूंजीवादी-लोकतांत्रिक क्रांति का समर्थक या वाहक बनने का सौभाग्य नहीं पा सका।
जातियों के विनाश का आह्वान
देश के महानतम राजनीतिक चिंतक और संविधान बनाने वाली समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने बहुत पहले यह निष्कर्ष निकाला था कि जाति हमारे समाज की ऐसी समस्या है, जो भारत को वास्तविक अर्थों मे एक राष्ट्र और लोकतंत्र नहीं बनने देगी। यही कारण है कि डॉ. अम्बेडकर ने आज़ादी के पहले से ही जातियों के विनाश का आह्वान किया। पर उस समय के शीर्ष और सबसे प्रभावी राष्ट्रीय नेताओं की तरफ़ से डॉ. अम्बेडकर के इस आह्नान को ख़ास तवज्जो नहीं मिली। अगड़ी जातियों के नेताओं की बात छोड़िये क्षेत्रीय-राष्ट्रीय राजनीति में उभरे बाद के दलित-पिछड़े नेताओं ने भी अम्बेडकर की जाति-विनाश की सैद्धांतिकी का अनुसरण नहीं किया। दलितों का एक हिस्सा, यहाँ तक कि अपने को अम्बेडकरवादी कहने वाला हिस्सा आज भी यह समझता है कि वह सिर्फ़ अपने बल पर सारी चुनौतियों का सामना कर लेगा और ब्राह्णाणवाद-मनुवाद को शिकस्त दे सकेगा। पिछड़ों को लगता है कि वे समाज में साठ फीसदी हैं, इसलिए उन्हें एक न एक दिन जीतने से कोई रोक नहीं सकेगा। पर हिन्दुत्वा राजनीति के एजेंडे के आगे अपने आपको दलित या बहुजनवादी राजनीति के ध्वजवाहक कहने वाली ये सारी शक्तियाँ या तो नतमस्तक हैं या समझौता कर चुकी हैं।
मुलायम, मायावती, अठावले, अनुप्रिया की अगुवाई वाली राजनीतिक-सांगठनिक धारा को देख लें। लालू प्रसाद ने भले ही समझौता नहीं किया, (अभी तक) नतमस्तक भी नहीं हुए पर सही समझ और ठोस राजनीतिक एजेंडे के अभाव के चलते आज उनकी पार्टी हाशिये की तरफ मुख़ातिब है। ले-देकर द्रविड़ आंदोलन से उभरी द्रमुक, कांग्रेस, उससे निकली अन्य राजनीतिक पार्टियाँ, वामपंथी या छोटे-मझोले राजनीतिक समूह ही हिन्दुत्वा की निरंकुश शक्तियों से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
कांग्रेस अगर दक्षिण की राजनीति से सबक लेकर उत्तर और मध्य भारत में भी दलित-पिछड़े यानी बहुजन समाज से आए नेताओं को उभरने का मौक़ा दे तो निकट भविष्य में वह फिर बड़ी ताक़त बनकर उभर सकती है।
कुलीन या अगड़ी जाति की वर्णवादी मानसिकता का नेतृत्व अब देश में नहीं चलने वाला है। घोर ब्राह्मणवादी-हिन्दुत्वा राजनीतिक धारा को भी वर्चस्व स्थापित करने के लिए नरेंद्र मोदी जैसे मध्यवर्ती जातीय पृष्ठभूमि के नेता को आगे करना पड़ा। कांग्रेस के पास मध्य और दक्षिण भारत में दलित-आदिवासी-ओबीसी जातियों से आए नेताओं की उतनी कमी नहीं है। हाल के दिनों में उसके पास भूपेश बघेल और दक्षिण में सिद्दारमैया जैसे प्रभावशाली नेता उभरे हैं। यह संख्या और बढ़ाने की कोशिश करनी होगी, ख़ासतौर पर हिन्दी पट्टी में।
केरल, महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी उसके पास बहुजन पृष्ठभूमि के नेता हैं। पर यूपी-बिहार में ऐसे नेताओं की सख्त कमी है। सिर्फ़ दलित-पिछड़ों की पैरोकार कही जाने वाली पार्टियों या समूहों को ही नहीं, कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी को भी आज डॉ. अम्बेडकर की वैचारिकी से रोशनी लेने की ज़रूरत है। कांग्रेस और वामपंथियों ने अम्बेडकर को लंबे समय तक नजरंदाज ही नहीं किया अपितु उनकी घोर उपेक्षा भी की। आज उनके पास ऐतिहासिक भूल सुधार का मौक़ा है। सपा-बसपा जैसी पार्टियाँ बहुत तेजी से ढल रही हैं। हिन्दी पट्टी के राज्यों में बहुजन समाज के बीच तेज़ी से जगह बनाती बीजेपी का ज़मीनी मुक़ाबला करना है तो संविधान-समर्थक पार्टियों के पास गाँधी-नेहरू-लोहिया से प्रेरणा लेने के साथ-साथ डॉ. अम्बेडकर विचार के पास जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
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