सोवियत संघ के पतन के बाद पेंटागन के एक उच्चाधिकारी ने कहा था कि अब हमारे स्तर का कोई शत्रु दुनिया में नहीं रहा। लगता है, उस अधिकारी की यह अहंकार भरी बात किसी मुस्कुराते शैतान ने सुन ली थी जिसने आज अमेरिका के सामने चीन के रूप में एक दुर्धर्ष शत्रु को खड़ा कर दिया है।
चीन को इतना शक्तिशाली बनाने के पीछे भी अमेरिका ही है। जुलाई 1971 में अमेरिका के नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर हेनरी किसिंजर ने चीन से कूटनीतिक स्तर के संबंध स्थापित करने के लिए चोरी-छुपे चीन की यात्रा की थी जिसके फलस्वरूप फ़रवरी 1972 में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन की यात्रा की थी। उस समय चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन माओ त्से तुंग थे। यह किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की पहली चीन यात्रा थी। सप्ताह भर चली उस यात्रा ने दुनिया के सभी देशों को चकित कर दिया क्योंकि कुछ साल पहले वियतनाम ने चीन की सहायता से अमेरिका को हराया था जिसमें 50,000 अमेरिकी सैनिक मारे गए थे।
कुछ भी हो इस यात्रा के बाद चीन के भाग्य खुल गए थे। माओ ने निक्सन से कहा था कि हमारे पास सस्ते मज़दूर हैं और आपके पास टेक्नोलॉजी, दोनों इसका लाभ उठा सकते हैं। इन दो धुर विरोधी विचारधाराओं के नेताओं के बीच इस मीटिंग को कराने के पीछे पाकिस्तान का हाथ था।
इस सफल यात्रा के बाद अमेरिकी और यूरोपीय देश बहुत खुश थे। उनकी सोच थी कि उन्होंने सोवियत संघ के सबसे तगड़े कम्युनिस्ट मित्र को अपने पाले में कर लिया है। अमेरिका से सम्बंध स्थापित होते ही चीन को यूरोप से व्यापार के दरवाज़े खुलवाने में देर न लगी। पश्चिमी देशों के साथ चीन ने बड़ी सावधानी से व्यापार करना शुरू किया। व्यापार के अलावा उसने बड़ी संख्या में अपने विद्यार्थी वहाँ के विश्वविद्यालयों में भेजे। उनकी मशीनों की रिवर्स इंजीनयरिंग करके उस जैसी मशीनें तैयार करके बेचनी शुरू की।
जैसे-जैसे चीन अमीर होता गया वो अपने देश में सड़क, रेल, बंदरगाहों का विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करता गया। माओ के बाद देश में जो भी शासक आया- ली झियानियान, यांग शांगकुन, झिआंग जेमिन, हू जिंताओ या शी जिनपिंग सबने माओ के बाद अपने सर्वोच्च नेता डेंग झियाओपिंग के दिए गए सूत्र पर काम किया- ‘अपनी क्षमताओं को छुपाओ, समय का इंतज़ार करो’ (Hide your capabilities and bide your time)।
इधर चीन चुपचाप तरक्की करता जा रहा था, दूसरी ओर अमेरिका और यूरोपीय देश सोवियत संघ के पीछे पड़े थे। 1990 में उन्होंने उसका विघटन भी कर दिया। रूस को तोड़ने के बाद भी अमेरिका और उसके साथी देश नहीं रुके, वे इराक, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, लीबिया के साथ युद्धों में फँसकर अपना पैसा, सैन्य संसाधन, सैनिक बरबाद करते रहे। जबकि चीन चुपचाप उनके उच्च कोटि के संस्थानों में सेंध लगाकर उनकी टेक्नोलॉजी चुराता रहा था तथा उनसे व्यापार करके अरबों डॉलर कमाता रहा। उन दिनों चीन का एक नारा था- ‘चीन की शांतिपूर्ण तरक़्क़ी’ (peaceful rise of china)।
चीन अपनी नीति में पूरी तरह सफल रहा। उसने अपनी उन्नति के लिए कठोर परिश्रम के अलावा चालाकी, धूर्तता, दमन-प्रलोभन, तिकड़म हर नीति का सहारा लिया।
प्रजातंत्र होने के कारण पिछले चालीस सालों में लाखों चीनी यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में जा बसे। इस बीच शायद ही कोई विदेशी चीन में जाकर बसा हो।
चीन की उन्नति के पीछे एक राज और है और वह है चीनियों की जटिल सामाजिक संरचना। वे अति आत्मकेंद्रित (घुन्ने) होते हैं। आप उनसे घुल-मिल नहीं सकते। उनसे कोई राज निकलवाना बड़ा मुश्किल काम है। इतिहास गवाह है, रेशम बनाने की कला चीन ने दो सौ साल छुपा कर रखी थी जो बाद में कुछ बौद्ध भिक्षुओं द्वारा छुपाकर लाए गए रेशम के कीड़ों से दुनिया को पता चली। आज बर्मा, थाईलैंड, मलेशिया, नेपाल, कम्बोडिया के जुआघरों, वेश्यावृति के अड्डों, ड्रग व्यापार पर चीनी अपराधियों का कब्जा है।
चीन के माफिया
कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट पढ़ी थी जिसमें कहा गया था कि रूस के चीन सीमा से सटे शहरों में चीनी अपराधियों का दबदबा बढ़ता जा रहा है। ब्लादिवोस्टक जो पूर्वी रूस का सबसे बड़ा शहर है, उसके अपराध जगत पर पहले रूसी माफियाओं का कब्जा था। बीते कुछ सालों में चीनी अपराधियों ने अधिकतर रूसी माफियाओं को मार दिया है, बाक़ी भाग गए हैं। अब शहर के सभी अवैध धंधों पर चीनियों का कब्जा है।
इसी तरह चीनी सीमा के निकट बर्मा के कई शहर चीनियों ने जुआघरों में बदल दिए हैं। बर्मा का सारा स्टोन मार्केट उनके कब्जे में है। वे अफ्रीकी देशों में चोरी से सोना निकाल रहे हैं। वहाँ के वन्य जीवों की तस्करी कर रहे हैं।
चीन की अर्थव्यवस्था
इस समय चीन दुनिया के दो सबसे शक्तिशाली देशों में से एक है। दुनिया के लगभग 14% व्यापार पर उसका कब्जा है तथा उसकी फैक्ट्रियाँ दुनिया का लगभग 28% सामान बनाती हैं। आज उसके पास दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आधुनिक सेना है, अति विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर है। उसके नगरों की इमारतें दुनिया में सबसे चमचमाती हुई और भव्य हैं। उसके बैंक पैसों से लबालब भरे हैं, उसका फोरेक्स रिजर्व सबसे अधिक 3399 बिलियन अमेरिकन डॉलर के लगभग है। साथ ही वह दुनिया का सबसे बड़ा महाजन है। उसने 150 से अधिक देशों को 1500 बिलियन डॉलर से अधिक कर्ज बाँट रखा है जो दुनिया के सबसे बड़े वित्तीय संस्थानों वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के बाँटे गए कर्ज से अधिक है। जिनमें दर्जनों देश ऐसे हैं जो इस कर्ज को लौटा नहीं पाएँगे। देर-सवेर उन्हें अपने देश की प्रभुसत्ता का सौदा चीन के साथ करना पड़ेगा।
पिछले चालीस सालों में चीन ने विराट इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर लिया है। अब उसकी मंशा पूरी दुनिया में फैलने की है, जिसकी झलक उसकी सबसे महत्वाकांक्षी योजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) में दिखाई देती है।
यह योजना दुनिया की सबसे बड़ी योजना है जिस पर 8 ट्रिलियन अमेरिकन डॉलर ख़र्च होने का अनुमान है। (भारत की GDP अभी 3 ट्रिलियन डॉलर से कम है) BRI से एशिया, अफ्रीका, यूरोप, मध्य पूर्व एशिया और लैटिन अमेरिका के 130 देश सीधे चीन से जुड़ जाएँगे। यह योजना 2013 में शुरू हुई थी और इसे 2049 तक पूरा होना है। CPEC भी इसी योजना का हिस्सा है। कुछ देशों में जहाँ से यह सड़क गुजरी है उसके किनारे चीनी अपनी कॉलोनी भी बसाते जा रहे हैं।
अमेरिका खफ़ा
अमेरिका को यह योजना खटक रही है। कहने को चीन इसे द्विपक्षीय व्यापारिक योजना बताता है पर वास्तव में वह इसे अपना माल बेचने के लिए तैयार कर रहा है। अतः चीन को पहला झटका डोनल्ड ट्रम्प ने दिया। चार साल पहले डोनल्ड ट्रम्प ने सरकार बनने के बाद चीन की संदिग्ध गतिविधियों पर ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने पाया कि चीन और अमेरिका के बीच टेक्निकल गैप लगभग ख़त्म होने के कगार पर है, इसका मतलब था कुछ सालों के बाद अमेरिका के पास कोई ऐसी टेक्नोलॉजी नहीं बचेगी जो चीन के पास न हो। कई क्षेत्रों में तो चीन अमेरिका से आगे निकल गया था। इसके बाद ट्रम्प ने दो काम किए। एक तो उन्होंने अमेरिका के संवेदनशील उच्च संस्थानों से चीनियों को भगाना शुरू किया जहाँ से वे अमेरिका की कटिंग एज टेक्नोलॉजी की चोरी कर चीन भेज रहे थे। दूसरे, चीन से आयात किए जा रहे सामानों पर भारी-भरकम टैक्स लगाकर अपनी कमाई बढ़ाई और चीन की कम की।
अभी दोनों देशों के बीच ट्रेड वार चल ही रही थी कि दुनिया के सामने कोरोना वायरस का संकट आ गया। यह वायरस प्राकृतिक है या कृत्रिम यह बाद का प्रश्न है पर यह निर्विवाद सत्य है कि इसका उद्गम चीन है। करोना वायरस ने दुनिया में जान-माल की भारी तबाही मचाई है। सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ चरमरा गई और काम-धंधे ठप्प हो गए हैं।
कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि कोरोना से दुनियाभर में 200 करोड़ लोगों का वापस ग़रीबी में जाना तय है, ये वे लोग हैं जो कुछ साल पहले ग़रीबी रेखा से बाहर निकले थे।
इस वक़्त सारे देश चीन से नाराज़ हैं। ऊपर से इस संकट की घड़ी में चीन का व्यवहार असंवेदनशील, मौकापरस्त, हठधर्मिता वाला रहा है। कोरोना के फैलने में उसकी गतिविधियाँ संदिग्ध है। जब अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने उससे कोरोना की संदिग्ध जन्मस्थली वुहान लैब की जाँच करने की माँग की तो उसने साफ़ मना कर दिया।
इस समय चीन की स्थिति कैंसर के स्टेज वन के मरीज़ जैसी है। वह रोज खोखला होता जा रहा है। पिछले तीन महीनों में उसकी बहुत अर्थ हानि हो चुकी है। मार्च के प्रथम सप्ताह में उसका फोरेक्स रिजर्व 3399 बिलियन डॉलर था जो अप्रैल के अंत तक 3091 बिलियन डॉलर रह गया था। उसके बाद चीन ने आँकड़े देने बन्द कर दिए हैं। अनुमान है, उसका फोरेक्स रिजर्व 15 बिलियन प्रति सप्ताह की दर से गिर रहा है। दूसरे, पिछले महीने यूएस सीनेट ने अमेरिकन स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड चीन की लगभग 800 कम्पनियों को डीलिस्ट करने का बिल पास किया है। इन्हें डीलिस्ट करने की प्रक्रिया में बहुत सारी अड़चनें आएँगी पर शुरुआत हो चुकी है। इसी प्रकार भारत और कई यूरोपीय देशों ने भी अपने स्टॉक एक्सचेंजों में चीन की FDI रोकने के लिए नियम सख़्त कर दिए हैं।
अमेरिकी कार्रवाई
कुछ दिन पहले ही अमेरिका ने हांगकांग के साथ विशिष्ट व्यापार वाला दर्जा समाप्त कर दिया है। अकेले हांगकांग से ही चीन को सालाना चार सौ से अधिक बिलियन अमेरिकन डॉलर की कमाई होती थी। कोरोना संकट के बाद कई एजेंसियाँ चीन की आर्थिक हानि का अनुमान लगा रही हैं, सबके आँकड़े अलग हैं। यदि सबका औसत निकाला जाए तो चीन को अब तक 1600 बिलियन अमेरिकन डॉलर का नुक़सान हो चुका होगा। ऊपर से एक्सपोर्ट ओरिएंटेड इकोनॉमी होने और ऑर्डर न होने से उसकी बहुत सारी फैक्ट्रियाँ बन्द पड़ी हैं।
रिसकर आती ख़बरों के अनुसार चीन के 8 करोड़ मज़दूर बेरोज़गार हो चुके हैं। कोढ़ में खाज यह कि चीन से हज़ारों कम्पनियाँ शिफ्ट होकर अपने या दूसरे देशों में जाने की सोच रही हैं। कोरोना से उसकी BRI योजना भी खटाई में जाती दिख रही है। यह सब चीन के लिए बुरे सपने जैसा है।
कुछ विद्वान कहते हैं कि चीन जब भी अपने स्वर्णकाल तक पहुँचने को होता है तो ऐसी ग़लती कर बैठता है कि इसका पतन शुरू हो जाता है। सन 1400 में चीन के पास दुनिया का सबसे बड़ा जहाजी बेड़ा था जिसे 'ट्रेजर फ्लीट' कहा जाता था। ट्रेजर फ्लीट में 3500 जहाज थे। उनमें कुछ उस समय यूरोप में बने जहाजों से पाँच गुना बड़े थे। उन जहाज़ों की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उनमें कुछ की लम्बाई 120 मीटर होती थी (वास्कोडिगामा के जहाज की लंबाई 19 मीटर थी) और एक जहाज में 1500 जहाजी चलते थे। जब चीन का जहाजी बेड़ा अफ्रीका में व्यापार के लिए निकलता था तो तीन सौ से अधिक जहाज एक साथ जाते थे।
इतने सारे जहाजों का ख़र्च और रखरखाव उनसे किए व्यापार की कमाई से आधी पड़ रहा था। यह घाटा धीरे-धीरे बढ़ता गया। परेशान होकर सन 1525 में उस समय के मिंग वंश के राजा ने पूरे बेड़े को आग लगाकर नष्ट कर दिया। यदि उस समय चीन अपनी नौ सेना का प्रयोग किसी दूसरे रूप में करता तो हो सकता है उस समय विश्व का सबसे शक्तिशाली देश बन जाता।
चीन और कोरोना
अपनी बेवकूफी भरी हरकतों से कोरोना को पूरी दुनिया में फैलने देकर चीन ने एक बार फिर वही ग़लती कर दी और सुपर पावर बनने का मौक़ा गँवा दिया। विश्व समुदाय में उसकी छवि ध्वस्त हो गयी है। विदेशों में उसके नागरिकों को पीटा जा रहा है। दो, तीन देशों को छोड़ दें तो चीन अकेला खड़ा है। आश्चर्य यह कि इतनी बुरी स्थिति में भी वह पड़ोसियों से झगड़ रहा है। भारत, जापान, वियतनाम इसके उदाहरण हैं। लद्दाख, सिक्किम पर हमारी सेना से टकराव पैदा करके वह भारत को धमकाना चाहता है कि अमेरिका के अधिक पास न जाए। दूसरे चीन देश में अस्थिरता फैलाना चाहता है ताकि चीन छोड़ने वाली कम्पनियाँ भारत न आ पाएँ। वह हमसे युद्ध नहीं चाहता, यदि चाहता तो उसके पास डोकलाम विवाद अच्छा मौक़ा था। तब उसका व्यापार ठीक चल रहा था और भारत भी आज की अपेक्षा कम शक्तिशाली था।
चीन को आभास हो चुका है कि उसके स्वर्णकाल का उत्सर्ग जा चुका है, अब उसके सामने ढलान ही ढलान है। अमेरिका और यूरोपीय देश उसके पीछे पड़ चुके हैं। इन देशों का व्यवहार भेड़ियों के झुंड की तरह होता है जो शिकार को थकाकर मारते हैं। इनके हमले तो शुरू हो चुके हैं। चीन के मर्मस्थलों की टोह लेना बाक़ी है। यदि चीन इनके सामने नहीं झुका तो कुछ सालों तक ही अपने को बचा पाएगा। ये चीन का शिकार करके ही दम लेंगे। सोवियत संघ के विघटन के समय सबने इन देशों का व्यवहार देखा है। ये देश अफ्रीकी देशों की तरह नहीं हैं जहाँ राजनीतिज्ञों को रिश्वत देकर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है। ये सब देश अपनी जनता के प्रति जवाबदेह हैं, देर-सवेर इस कम्युनिस्ट देश से हिसाब और वसूली करके ही मानेंगे।
रही बात भारत की तो कोई ना कोई रास्ता भारत निकाल ही लेगा, चीन से निपटने का।
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