नफ़रत की छुरी और मुहब्बत का गला है!
अपने इस शेर को नज़ीर कुछ यूँ पूरा करते हैं-
फरमाइये ये कौन से मज़हब में रवा है।
नज़ीर यानी नज़ीर बनारसी का ये शेर मौजूदा हालत पर आज यही सवाल पूछता दिख रहा है। कबीर की काशी के इस शायर की शायरी का मूल स्वभाव ही देश राग है। देश यानी अलग-अलग फूलों से बना एक गुलदस्ता जिसका पैगाम साथ-साथ रहते और चलते हुए एक दूजे के सुख और दुःख में भागीदारी करते रहना है। ‘वतन के जो काम आए वतन उसका है’ कहने वाले नज़ीर की शायरी का दर्शन इतना ही है-
पर्वत हो कि झरना हो कि वन सबके लिए है
हंसता हुआ चाँद और गगन सबके लिए है,
तारे हों कि सूरज की किरन सबके लिए है
हर शामे वतन, हर सुबहे वतन सबके लिए है
इन्सां के लिए सब है तारे हैवां के लिए भी
और आज का इन्सां नहीं इन्सां के लिए भी?
ख़ुद को काशी नगरी का फकीर और शिव की राजधानी का सफीर कहने वाले नज़ीर एलानिया कहते हैं-
लेके अपनी गोद में गंगा ने पाला है मुझे
नाम है मेरा नज़ीर और मेरी नगरी बेनजीर।
हदों-सरहदों की घेराबन्दी से परे कविता होती है, या यूँ कहें आपस की दूरियों को पाटने, दीवारों को गिराने का काम कविता ही करती है। शायर नज़ीर बनारसी अपनी ग़ज़लों, कविताओं के ज़रिए उम्र भर इसी काम को अंजाम देते रहे। ता उम्र शायरी के ज़रिये एक मुकम्मल इंसान और इंसानियत को गढ़ने की कोशिश करने वाले नज़ीर को इस बात से बेहद रंज था...
न जाने इस ज़माने के दरिन्दे
कहाँ से उठा लाये चेहरा आदमी का
साथ ही इस बात पर पुरजोर यक़ीन भी-
वहाँ भी काम आती है मुहब्बत
जहाँ नहीं होता कोई किसी का।
मुहब्बत, भाईचारा, देशप्रेम नज़ीर बनारसी की शायरी और कविताओं की धड़कन है। अपनी राम कहानी अपनी ज़ुबानी में नज़ुर ख़ुद कहते हैं, ‘मैं ज़िंदगी भर शांति, अहिंसा, प्रेम, मुहब्बत आपसी मेल मिलाप, इन्सानी दोस्ती, आपसी भाईचारा... राष्ट्रीय एकता का गुन आज ही नहीं 1935 से गाता चला आ रहा हूँ। मेरी नज़्में हों ग़ज़लें, गीत या रूबाईया हों ..... बरखा रूत हो या बसंत ऋतु, होली हो या दीपावली, शबेबरात हो या ईद, दशमी हो या मुहर्रम इन सबमें आपको प्रेम, मुहब्बत, सेवा भावना, देशभक्ति की महक मिलेगी। मेरी सारी कविताओं की बजती बासुंरी पर एक ही राग सुनाई देगा- वह है देश राग.... मैंने अपने सारे कलाम में प्रेम, प्यार मुहब्बत को प्राथमिकता दी है।’
हालात चाहे जैसे भी रहे हों, नज़ीर ने उसका सामना किया, न ख़ुद बदले और न अपनी शायरी के तेवर को बदलने दिया। दंगों की लपटें जब तेज़ हुईं तो नज़ीर की शायरी बोल उठी-
...अंधेरा आया था हमसे रोशनी की भीख माँगने
हम अपना घर न जलाते तो क्या करते।
गंगा किनारे बैठकर अपनी थकान दूर करने वाले इस शायर ने गंगा की बहती लहरों में जीवन के मर्म को बूझा, पाया कि सृष्टि जैसी हो दृष्टी वैसी, ख्याल जैसा हो वैसा दर्शन और फिर कुछ इस तरह से उसे अपने शब्दों में ढाला-
कभी जो चुपचाप मुझको देखा कुछ और भी प्यार से पुकारा
जहाँ भी गमगीन मुझको पाया वहाँ बहा दी हँसी की धारा
अगर कभी आस दिल की टूटी लहर-लहर ने दिया सहारा
भरी है ममता से माँ की गोदी, नहीं है गंगा का यह किनारा
25 नवम्बर 1925 को बनारस के पांडे हवेली मदनपुरा में जन्मे पेशे से हकीम नज़ीर बनारसी ने अंत तक समाज के नब्ज़ को ही थामे रखा। ताकीद करते रहे, समझाते रहे, बताते रहे कि ये जो दीवारें हैं, लोगों के दरमियाँ बाँटने-बँटने के जो फलसफे हैं। इस मर्ज का एक ही इलाज है कि हम इंसान बनें और इंसानियत का पाठ पढ़ें, मुहब्बत का हक अदा करे। कुछ इस अंदाज़ में उन्होंने इस पाठ को पढ़ाया-
रहिये अगर वतन में इन्सां की शान से
वरना कफन उठाइये, उठिये ज़हान से।
नज़ीर का ये इंसान किसी दायरे में नहीं बंधता। जैसे नज़ीर ने कभी ख़ुद को कभी किसी दायरे में कैद नहीं किया। गर्व से हमेशा कहते रहे-
मैं वो काशी का मुसलमाँ हूँ नज़ीर,
जिसको घेरे में लिये रहते हैं, बुतखाने कई।
नज़ीर की शायरी और उनकी कविताएँ धरोहर हैं, हम सबके लिए। संकीर्ण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फँसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधेरे में टॉर्च की रोशनी की तरह है। अगर हम इस मुल्क और उसके मिज़ाज को समझना चाहते हैं, तो नज़ीर को जानना और समझना होगा। समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस सूफी, साधु दरवेश सरीखे शायर ने कैसे हिन्दुस्तान की साझी रवायतों को ज़िंदा रखा, उसे आगे बढ़ाया। कैसे इन्सान होने के फ़र्ज़ को अदा किया। नज़ीर साहब तो अब नहीं रहे लेकिन उनका लिखा हुआ वो दस्तावेज़ मौजूद है जिसमें साझे का हिन्दुस्तान बनाने का नक्शा है जिससे निकली हुई देश राग की आवाज़ हमसे कहती है -
जो हंसना तो आँखें मिला कर क़ज़ा से
जो रोना तो भारत के गमख्वार बन के
अगर जंग करना ग़ुलामी से करना
कभी सर जो देना तो सरदार बन के
चमन की अगर ज़िन्दगी चाहते हो
चमन में रहो शाखे-गुलजार बन कर।
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