मिटा दो प्यार को कि उसे इश्क नाम मत दो
मोहब्बत कह देने से क्या जज्बात बदलते हैं
इश्क का ढाई है तो प्यार ने भी ढाई ही पाया है
खुले आसमान की उड़ान को बाँहों में मत समेटो।
विज्ञापन में अपील का बड़ा महत्व होता है। अपील यानी उस दिखावट में आपके मन के किसी भाव को इस तरह छूना कि बस आप एड देखते ही मुरीद हो जाएँ। हमें तो बस फलाँ चीज़ चाहिए ही अभी। सलाम है उस इंसान को जिसने बड़ी ख़ूबसूरती से तनिष्क के इस विज्ञापन को क्राफ्ट किया। दिल की जिस रग को वो छूना चाहता था बस वहीं जाकर तेज़ी से दबा दिया। असर इतना कि हिंदुस्तान भर का मीडिया ख़ासकर सोशल मीडिया पर बहस का एक मज़बूत टॉपिक मिल गया।
ये कौन सी तानाशाही है कि हम स्वीकार नहीं कर सकते कि किसी मुसलिम परिवार में एक हिंदू लड़की ब्याही गई है। जबकि आप एक ऐसी सोसायटी में जी रहे हैं जहाँ ऐसा बिरला कुछ नहीं रह गया है। और लानत है उस कंपनी पर भी जो ‘एकत्वम’ नामक ख़ूबसूरत नाम देने के बावजूद लोगों के विरोध के कारण उस विज्ञापन फ़िल्म को हटा लेती है। विड्रॉ कर लेती है। आख़िर ऐसा क्यों? तनिष्क के मालिक अपने इस ख़ूबसूरत निर्णय के लिए लड़ नहीं पाए? काश हम इस वृहद कैनवास पर उकेरी गई विलक्षण कृति को संकुचित मानसिकता से परे समझ पाते। देख पाते ससुराल में भी हाथ भर चूड़ियाँ और माँग भर सिंदूर लिए सोलह शृंगार किए उस नई नवेली दुल्हन की मुस्कुराहट को।
क्यों हम स्वीकार नहीं कर लेते जो सच है। क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ हमने ऐसे कोई उदाहरण नहीं देखे हैं। अपने इस तानाशाही रवैये पर इतरा रहे ये लोग दुनिया के आश्चर्यों में शामिल ताजमहल को अपने देश का होने से इंकार क्यों नहीं कर देते। क्यों अमीर खुसरो आज भी गाए जाते हैं? क्यों आमिर ख़ान साहब से लेकर बड़े ग़ुलाम अली ख़ां साहब, छोटे ग़ुलाम अली ख़ां साहब को नकार नहीं देते। क्यों कबीर का ज़िक्र हम हिंदोस्ताँ में करते हैं।
तानसेन को क्यों तानसेन के नाम से जानते हैं, पुकारो उनके असली नाम रामतनु से। हम क्यों नहीं मान लेते कि यदि प्रेम और प्यार के ढाई अक्षर हैं तो इश्क का ढाईपन उसके स्वाद को कम नहीं करता।
इस संदर्भ को सोचते हुए याद आती है अम्मा की दुरदुरिया। यूपी में दुरदुरिया चबाई जाती हैं। जो औसान बीबी से मन्नत के बाद एक की जाने वाली रस्म है। हमारे कट्टर हिंदू घरों की महिलाएँ क़रीबन हर महीने और घर में होने वाले हर शादी-ब्याह के मौक़ों पर इसकी पूजा करती हैं। जो पूरी तरह हिंदू रीति-रिवाजों के साथ की जाती हैं। इसमें न्यौती हुई महिलाएँ यह कार्यक्रम पूरा न होने तक पानी-चाय नहीं लेतीं। पूरे पारंपरिक परिधानों में सजीं हाथ भर भर चूड़ियाँ और माँग में चौड़ा सिंदूर भरे अपने संतान और सुहाग की कामना इस पूजा में करती हैं। और मजे की बात यह है कि ये औसान बीबी औसान मैया का रूप ले चुकी हैं। इसे कई पीढ़ियों से किया जा रहा है और आज तक किसी का ध्यान इस ओर गया ही नहीं।
ऐसा बहुत कुछ है हमारी संस्कृति में जो वहाँ से आया है जहाँ का नाम लेना भी अब हमें मंजूर नहीं। यह अजीब से फ़ैसले लेने वाले सिरफिरे लोग इश्क और गम में मोहम्मद रफी के गाने सुनना और गुनगुनाना क्यों छोड़ नहीं देते।
ऐसी ही कई छोटी-छोटी बातें हैं जो यह बताती हैं कि बहुत सा कुछ जो आत्मसात हो चुका है उसे लाठी मारकर अलग करने की कोशिश की जा रही है। जबकि हमारे यहाँ कहावत है लाठी मारने से पानी अलग नहीं होता। तनिष्क का विज्ञापन उससे जुड़ी सारी बातें सुनना और मेहंदी हसन की ग़ज़लों का लुत्फ तक़रीबन एक साथ हुआ। किसी कन्सर्ट के बारे में बता रहे थे वे। अबके बिछड़े तो … कुछ रेअर कम्पोजिशन के बारे में। कहने लगे एक कार्यक्रम में इसे गाया और हिंदोस्ताँ के अज़ीम गायक मन्नाडे ने मेरी ख़ूब तारीफ़ की। तो अब क्या करें?
मेहदी हसन साहब को क्या उनके देश से निकाल दिया जाता कि भई आपने किसी हिंदोस्तानी का ज़िक्र कैसे-क्यों किया। सारा मसला दिमाग़ की पैदाइश है।
काश! हम उस विज्ञापन की सोच और दिव्या दत्ता की पुरखुलूस आवाज़ की कद्र कर पाते। पर अब जब भी तनिष्क, वेस्टसाइड या जुडियो गए तो एक कसैला पन ज़रूर रहेगा मन में।
पर सवाल वहीं का वहीं रह जाता है इस तरह छोटे दिमाग़, छोटी सोच लेकर हम कौन सी दुनिया बुनने जा रहे हैं। न तो आँख बंद कर लेने से सच्चाई बदलती है और र ही रेत में सिर घुसा लेने से दुनिया छोटी हो जाती है। इतिहास गवाह है कट्टरता रगों में दौड़ी तो पूरी संस्कृति नष्ट कर देती है।
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