ये कैसे दौर में साँस ले रहे हैं हम? प्रत्येक घर में महज एक तकनीकी इंस्ट्रूमेंट टीवी को एक मानव बम में तब्दील कर दिया गया है। रिपब्लिक के नाम पर वास्तविक रिपब्लिक को होल्ड पर रख दिया गया है। ये ऐसा अपहरण है जिसमें जिसका अपहरण किया गया है उसे वो अपहरण नहीं बल्कि इंसाफ़ पाने की कवायद लग रही है। न्यूज़ को एक नशे तरह पेश किया जा रहा है। और इस नशे में हम झूम रहे हैं। सोचिए कि कैसी भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है। मैं उस भाषा को फिर से दुहराना भारतीयता का अपमान समझती हूँ।
भाषा भाव को प्रकट करने का पवित्र, सुंदर और उत्कृष्ट माध्यम है लेकिन तथाकथित एक अंग्रेज़ीदाँ पत्रकार जिनका शुभ नाम अर्णब गोस्वामी है, ने हिंदी को भी अपने कब्जे में ले लिया है और उस हिंदी को जिसका एक-एक अक्षर एक विशाल भावनात्मक (ब्रह्मांडीय और भावनीय अर्थ) अर्थ को संजोए हुए है, उस हिंदी को अपने निकृष्टतम मनोविकार को निकालने का माध्यम बना रहे हैं।
तो मैं अपने भाषिक संस्कृति की मर्यादा का पालन करते हुए श्री अर्णब गोस्वामी जी से यह पूछना चाहती हूँ कि इतनी अमर्यादा, इतना फ़्रस्ट्रेशन, इतना दुःसाहस, इतना नाटकीय ग़ुस्सा आप कहाँ से लाते हैं? इन सारे मनोविकारों का उद्गम स्रोत कहाँ है? इस नफ़रती लहज़े का कोई मनोवैज्ञानिक रहस्य तो नहीं है, अगर है तो इसके लिए मनोचिकित्सक मौजूद हैं, आप उनके पास जा सकते हैं। इसके लिए एक बड़े लोकतंत्र को प्रयोगशाला बनाना कहाँ का इंसाफ़ है?
क्या हम इतने गिर चुके हैं कि अपनी भाषिक संस्कृति की निर्ममता से हत्या किए जा रहे हैं। हमसे बेहतर तो अंग्रेज़ निकले जिन्होंने हमारे देश पर राज करने के लिए हमारी संस्कृति का गहन अध्ययन किया।
ज़रा देखिए अंग्रेजों ने वर्ष 1776 में मनुस्मृति का अनुवाद अंग्रेज़ी में ए कोड ऑफ़ जेनटू लॉज के नाम से कराया, भगवद गीता का अनुवाद 1785 में विलिकन्स ने किया, 1789 में अभिज्ञान शाकुंतलम का अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया। भारत की प्राचीन संस्कृति को समझने के लिए 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल नामक शोध संस्था की स्थापना हुई। इसकी स्थापना ईस्ट इंडिया कंपनी के एक सिविल सर्वेंट सर विलियम जोंस ने की थी। उन्नसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में इंग्लैंड तथा कई अन्य यूरोपीय देशों में संस्कृत के आचार्य-पद स्थापित हुए। जर्मनी के मैक्समूलर जिन्हें न जाने कितनी ही भाषाओं का ज्ञान था उनकी सबसे प्रिय भाषा संस्कृत थी। उन्होंने वेद और पुराणों का गहन अध्ययन किया था, वो भारतीय ज्ञान और संस्कृत की प्रवीणता देखकर अचंभित थे। मैक्समूलर के इस अध्ययन का लाभ अंग्रेज़ों ने भारत पर शासन करने के लिए किया था।
मैं स्पष्ट तौर पर कहती हूँ कि आप वकालत तो हिन्दू धर्म की करते हैं लेकिन आपका लहज़ा, रवैया और सोच पूर्णतः विदेशी और घोर पूंजीवादी है। एक उन्मादी लहज़े का व्यक्ति स्वयं को भारत का प्रतिनिधि घोषित करते हुए ‘पूछता है भारत’ कार्यक्रम करता है। क्षमा कीजिए लेकिन उन्माद और अपमान करना भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है। भारतीय संस्कृति का हिस्सा ये श्लोक है-
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
नासत्यं च प्रियं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः ॥
अर्थात, सत्य और प्रिय बोलना चाहिए; पर अप्रिय सत्य नहीं बोलना और प्रिय असत्य भी नहीं बोलना यह सनातन धर्म है।
लेकिन आपको क्या? आप और आपके अनुयायी और प्रतिस्पर्धी पत्रकार गण बॉलीवुडिया फ़िल्मों के उन नायकों का अभिनय करने में लगे हुए हैं जो विलन को बगैर किसी डेमोक्रेटिक विज़न के ख़त्म कर जनता को नागरिक न बना कर एक भीड़ में तब्दील कर देता है।
जनाब! याद रखिए! सेल्फ रेगुलेशन नाम की भी कोई चीज़ होती है, ज़रा संभल जाइए नहीं तो आप अपने जिस लहजे और तरीक़े से लोगों के भीतर के उन्माद को बढ़ावा दे रहे हैं एक दिन वही उन्माद आपका भी इंसाफ़ करेगा। इतिहास के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को नज़रअंदाज़ करने वाले को इतिहास कभी माफ़ नहीं करता।
अगर तनिक भी शर्म या लज़्ज़ा बाक़ी है तो लोकतंत्र के सच्चे चौथे खंभे का परिचय दीजिए और मेरी एक सलाह मानिए, जिस प्रकार की कल्चरल क्राइसिस की स्थिति बना दी है आप लोगों ने, तो पश्चाताप के तौर पर आने वाली 14 सितंबर यानी हिंदी दिवस को अपने स्टूडियो में एक भाषिक और सांस्कृतिक डिपार्टमेंट के निर्माण कर उसमें सभ्रांत लोगों को बिठाइए और कुछ भी बोलने से पहले उन भद्र विद्वानों से उस सामग्री की गहन जाँच करवाइए और तत्पश्चात ही अपना मुँह खोलिए। कहिए! करेंगे आप? हिंदी भाषा की गरिमा को ध्वस्त करने के लिए पश्चाताप करेंगे, क्षमा माँगेंगे? है हिम्मत?
मुश्किल जान पड़ता है क्योंकि दुःसाहस करने के लिए उद्दण्डता चाहिए लेकिन साहस के लिए आत्मबल।
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