राजनीति में आगे बढ़ने के लिए धैर्य होना बहुत ज़रूरी है क्योंकि लाल बत्ती की गाड़ियां, सलाम ठोकते सरकारी अफ़सर और नेता की गाड़ी के पीछे दौड़ लगाते कार्यकर्ताओं की भीड़ किसी भी आम आदमी को बहुत आकर्षित करती है लेकिन इस फ़ील्ड में जोख़िम बहुत ज़्यादा है। आपको हर कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़ता है और सियासी महत्वाकांक्षाओं के घोड़ों की भी लगाम खींचकर रखनी होती है क्योंकि एक छोटी सी चूक भी सियासी करियर ख़राब कर सकती है।
यहां इशारा राजस्थान में सियासी भूचाल खड़ा करने वाले प्रदेश के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की ओर है। पायलट प्रदेश कांग्रेस के मुखिया हैं, राज्य की सरकार में उप मुख्यमत्री हैं, केद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं और उम्र है सिर्फ़ 43 साल। यानी उनके पास काफी समय है अपने लक्ष्य को पाने के लिए यानी राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने के लिए।
लेकिन ऐसा लगता है कि वह थोड़ा जल्दबाजी कर गए हैं क्योंकि ऐसा नहीं दिखाई देता कि उनकी बग़ावत के कारण गहलोत सरकार गिर जाएगी। ऐसे में बीजेपी को भी उनकी ज़रूरत नहीं है तो सवाल यह उठता है कि आख़िर उन्हें हासिल क्या हुआ और क्या उन्हें इससे कुछ सियासी नुक़सान भी हुआ है।
बीजेपी के बड़े नेता आए दिन कहते रहते हैं कि राजस्थान में मेहनत पायलट ने की और ईनाम किसी और को मिल गया। ऐसा कहने के पीछे मंशा साफ है कि पायलट की सियासी आकांक्षाओं को उभारकर राज्य सरकार को अस्थिर किया जा सके।
पायलट को राजनीति विरासत में मिली है और उन्हें धूप-बरसात में आम कार्यकर्ता की तरह दरी बिछाने से लेकर, पोस्टर चिपकाने, नेताओं की खुशामद करने और रैलियों में भीड़ इकट्ठा करने और तमाम कामों वाला संघर्ष नहीं करना पड़ा है।
शायद इसीलिए वह इस बात को नहीं समझ पाए कि बीजेपी उनके पक्ष में बयान देकर उनसे एक सियासी ग़लती करवाना चाहती थी और उसमें वह सफल रही है।
बहरहाल, लोकसभा चुनाव में गहलोत के बेटे को जोधपुर सीट से टिकट मिलने से लेकर राज्य में सभी सीटें हारने तक और भी कई बार दोनों नेता भिड़ते दिखाई दिए और यह सियासी दुश्मनी इस मुकाम तक पहुंच गई कि देश भर के लोगों को भरोसा हो गया कि हां, राजस्थान सरकार में गहलोत-पायलट के बीच जबरदस्त लड़ाई चलते रहने की बात सही थी।
इस मुद्दे पर देखिए, वरिष्ठ पत्रकारों की चर्चा।
अपनी राय बतायें