राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के समर्थक कभी उनकी तुलना इंदिरा गाँधी से करते थे। वे इंदिरा गाँधी की तरह राजे के लिए कहा करते थे कि राजस्थान में राजे इज बीजेपी एंड बीजेपी इज राजे। लेकिन राजे का सूरज राजस्थान में तेजी से ढल रहा है और राजे के पक्ष में ये नारा लगाने वाले नेता भी अब महारानी के ख़िलाफ़ खड़े हो गए हैं।
जयपुर में मंगलवार को राजस्थान बीजेपी के नए अध्यक्ष की ताजपोशी के जलसे में न वसुंधरा राजे थीं, न उनके पोस्टर, न राजे के समर्थन में समर्थकों के नारे और न ही मंच पर अपने भाषण में किसी नेता ने महारानी का जिक्र किया। पिछले 17 साल में पहली बार ऐसा हुआ जब राजे की उपस्थिति के बिना सूबे में कोई नेता बीजेपी के मुखिया की गद्दी पर बैठा हो।
हालांकि वसुंधरा राजे ने नए प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के नाम पर एक संदेश भिजवाया कि धौलपुर स्थित उनके महल में कन्या पूजन का कार्यक्रम रखा गया है और इसलिए वह समारोह में नहीं आ सकीं लेकिन यह महज औपचारिकता है। महारानी नाराज हैं और वह ख़ुद को अपमानित और मायूस पा रही हैं और कहा जा रहा है कि ऐसा मोदी-संघ लॉबी के राजे को किनारे करने के अभियान के कारण हो रहा है।
हालांकि जब हमने समारोह में मौजूद बीजेपी नेता राज्यवर्धन सिंह राठौड़ से पूछा कि क्या वसुंधरा राजे नाराज हैं और इस वजह से वह नहीं आईं तो राठौड़ ने सफाई दी कि राजे ने नहीं आने की वजह की चिट्ठी भिजवा दी है और कहा कि यह ज़रूरी नहीं है कि सभी नेता शपथग्रहण के कार्यक्रम में मौजूद रहें।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने राजस्थान में इस बार वसुंधरा राजे की पसंद के नामों को ठुकरा कर राष्ट्रीय स्वयं सेवक की पसंद और राजे के धुर विरोधी माने जाने वाले सतीश पूनिया को सूबे में पार्टी का अध्यक्ष नियुक्त किया है।
वसुंधरा राजे इस बार एक साल पहले वाली हैसियत में नहीं थीं जब उन्होंने गजेंद्र सिंह शेखावत का अध्यक्ष पद पर नाम ख़ुद की वीटो पावर से रुकवा दिया था।
राजे इस कोशिश में थीं कि किसी तरह वह राजस्थान बीजेपी में उनकी पसंद के नेता को अध्यक्ष बनवा दें, जिससे परोक्ष रूप से वह सूबे में पार्टी की कमान ख़ुद के पास रख सकें, जैसा पिछले 17 साल में राजे ने अध्यक्ष की कुर्सी पर अपने पसंद के नेता को बैठाकर सूबे में पार्टी की कमान अपने पास रखी थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
पूनिया के पदभार समारोह में राजे विरोधी कैंप के राजस्थान के सभी बड़े नेता पहुंचे। राजे के कई विश्वासपात्र भी राजे की नाव को डूबती देख पाला बदलते नजर आए। लेकिन राजे के लिए यह पहला झटका नहीं है।
राजे समर्थकों के काटे थे टिकट
बेटे को नहीं बनवा सकीं मंत्री
फिर बारी जब केंद्रीय मंत्रिमंडल के गठन की आई तो राजे के धुर विरोधी गजेंद्र सिंह शेखावत को न केवल फिर से मंत्री बनाया गया बल्कि प्रमोट कर केंद्रीय मंत्री बना दिया गया था। दूसरे विरोधी अर्जुन मेघवाल को भी फिर मंत्रिमंडल में जगह दी गई थी। राजे ने 2014 में अपने बेटे दुष्यंत सिंह को मोदी सरकार में मंत्री बनवाने के लिए ख़ूब जोर लगाया था, 2019 में दुष्यतं सिंह चौथी बार जीत कर सांसद बने, इसके बावजूद राजे अपने बेटे को मंत्रिमंडल में जगह नहीं दिला सकीं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने राजे के जले पर तब और नमक छिड़का था, जब कोटा से दूसरी बार सांसद चुने गए ओम बिड़ला को लोकसभा का अध्यक्ष बना दिया था। बिड़ला राजे के धुर विरोधी माने जाते हैं।
दरअसल, मोदी-शाह की जोड़ी राजस्थान में पिछले एक साल से लगातार वसुंधरा राजे को कमजोर करने के लिए उनके विरोधी कैंप को मजबूत कर रही है। मोदी-शाह की जोड़ी ने न केवल विरोधी कैंप को केंद्रीय मंत्रिमडंल से लेकर संगठन में जगह दी, बल्कि अब राजस्थान में संगठन की कमान भी सौंप दी। लक्ष्य साफ़ है 2023 से पहले राजे को किसी तरह किनारे करना। जिससे 2023 में राजस्थान में सीएम की रेस में न राजे रहें और न ही उनकी ताक़तवर टीम।
राजे की मुश्किल यह है कि जनाधार वाले बड़े नेताओं को राजे ने सत्ता में रहते हुए ख़ुद दूर कर दिया था और बची तो सिर्फ़ अधिकतर बिना जनाधार वाले कमजोर नेताओं की टोली, जिनके दम पर पार्टी के अंदर जंग लड़ना राजे के लिए आसान नहीं है। इसके अलावा संघ भी राजे के पक्ष में नहीं है।
उधर, राजे के विश्वस्तों का कहना है कि फिलहाल दिल्ली से जयपुर तक शक्ति संतुलन अपने पक्ष में न देख राजे चुप हैं लेकिन वह मैदान नहीं छोड़ेंगी और उन्हें इंतजार बस सही समय का है। ऐसे में यह अनुमान लगाना भी जल्दबाज़ी होगी कि वसुंधरा राजे का सूरज अस्त हो गया है, भले ही वह अभी किनारे पर ही क्यों न हो।
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