राजस्थान के कोटा में जे.के. लोन मातृ एवं शिशु चिकित्सालय एवं न्यू मेडिकल कॉलेज नाम के एक सरकारी अस्पताल में 48 घंटों में 10 छोटे बच्चों की मौत के बाद हालाँकि राज्य सरकार ने अस्पताल के सुपरिटेंडेंट को हटा दिया और मामले की जाँच के आदेश दिए हैं। इस अस्पताल में एक माह में 77 बच्चों की मौत हो चुकी है। यह सब ऐसे माहौल में हो रहा है जब एक तरफ़ प्रदेश सरकार ने 'निरोगी राजस्थान' की मुहिम शुरू की है और 'राइट टू हेल्थ' देने की तैयारी कर रही है। विपक्ष सवाल उठा रहा है तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कहते हैं कि पिछले छह सालों में इस तरह से जान जाने के मामलों में कमी आई है। उन्होंने कहा कि पहले किसी साल 1500, कभी 1400 और कभी 1300 मौतें हुई हैं, लेकिन इस बार क़रीब 900 मौतें हुई हैं। लेकिन सवाल है कि ये 900 मौतें भी क्यों हुईं?
यह घटना उस समय हुई है जब 17 दिसंबर को प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 'निरोगी राजस्थान' अभियान की शुरुआत एक मैराथन दौड़ को हरी झंडी दिखाकर की। गहलोत ने यह पहल अपनी सरकार के एक साल पूर्ण होने के उपलक्ष्य में शुरू की। गहलोत ने दिल्ली की केजरीवाल सरकार के मोहल्ला क्लीनिक की तर्ज पर 'जनता क्लीनिक' लोकार्पण भी किया। लेकिन क्या सिर्फ़ नारों या सांकेतिक प्रयासों से ही स्थिति में बदलाव आ जाएगा? स्वास्थ्य के क्षेत्र में राजस्थान की इस बदहाली का एक बड़ा कारण है, डॉक्टरों की भारी कमी। राज्य की जनसंख्या 7 करोड़ से ज़्यादा है जबकि सरकारी और निजी एलोपैथिक डॉक्टर लगभग 38,000 ही हैं यानी क़रीब 2 हज़ार की जनसंख्या पर एक डॉक्टर। यही नहीं, राज्य में एमबीबीएस की सीटें भी बमुश्किल 1600-1700 ही हैं। साल 2013 में अशोक गहलोत सरकार ने 15 ज़िला मुख्यालयों पर नए मेडिकल कॉलेजों को खोलने की योजना तैयार की थी, लेकिन सरकार बदली तो योजना ठंडे बस्ते में चली गयी। फिर से अशोक गहलोत की सरकार को आए एक साल हो गया है।
देश का सबसे बड़ा राज्य होने के बावजूद राजस्थान में मेडिकल सुविधा पर जीडीपी का सिर्फ़ 2% ही ख़र्च किया जाता था। केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार की आयुष्मान भारत योजना की तरह राजस्थान में वसुंधरा सरकार ने स्वास्थ्य सेवा के ढाँचे को विकसित करने की बजाय भामाशाह स्वास्थ्य बीमा योजना शुरू कर दी। इस योजना का किस तरह से दुरुपयोग किया गया इसका उदाहरण कैग की रिपोर्ट में भी दिया गया। रिपोर्ट में कहा गया कि किस तरह निजी चिकित्सालयों में ज़रूरत नहीं होने के बावजूद 10 गर्भवती महिलाओं में से 6 से ज़्यादा का सिजेरियन कर दिया जाता है। जबकि सरकारी अस्पतालों में यह अनुपात सिर्फ़ 10:3 का था।
साल 2017 में जारी किये गए चौथे राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक, 56 फ़ीसदी शहरी और 49 फ़ीसदी ग्रामीण लोगों ने इलाज के लिए निजी स्वास्थ्य सेवाओं को चुना। बुनियादी सुविधाओं के तेज़ी से होते निजीकरण के बीच यह स्थिति चौंकाती तो नहीं है लेकिन चिंता यह है कि अभी भारत की एक बड़ी आबादी इतनी वंचित और संसाधनविहीन है कि वह निजी अस्पतालों के आलीशान और अत्यंत महंगे इलाज का ख़र्च वहन करने में समर्थ नहीं है। जबकि निजीकरण के इस माहौल में सुरक्षित उपचार का दावा करने वाले कुछ नामचीन चिकित्सालय भी सवालों के घेरे में आए हैं। मरीजों के प्रति उदासीनता का आलम हम गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौतों में भी देख सकते हैं और फ़ोर्टिस जैसे अस्पतालों में भी जहाँ 16 लाख का बिल थमा दिया जाता है या नयी दिल्ली के मैक्स चिकित्सालय में नवजात को मरा हुआ बता कर पल्ला झाड़ दिया जाता है।
लोगों को लगता है कि सरकारी चिकित्सालय में भी जब बाहर से दवाएँ मंगाकर इलाज कराना है तो क्यों न निजी चिकित्सालयों में जाएँ।
देश की 48 फ़ीसदी आबादी जिन नौ सबसे ग़रीब राज्यों में बसर करती है वहाँ नवजात बच्चों की मौत के 70 फ़ीसदी मामले होते हैं और 62 फ़ीसदी मातृ मृत्यु दर है। बच्चे कुपोषित हैं और बीमार हैं। इन नौ में से अगर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों को ही देखें तो पूरे देश में बच्चों की कुल मौतों में से 58 फ़ीसदी इन राज्यों में होती हैं।
अपनी राय बतायें