मायावती द्वारा गठबंधन तोडने व अखिलेश यादव द्वारा मायावती के विरुध्द एक भी बयान न देने से बहुजनों विशेष रूप से दलितों में जो अम्बेडकर और काशीराम के अनुयाई है , में मायावती के विरुद्ध एक नकारात्मक भाव पैदा हुआ व अखिलेश यादव के प्रति साफ्ट कार्नर. परिणामस्वरूप बसपा में अम्बेडकरवादी राजनीतिक स्कूल और मान्यवर कांशीराम से प्रशिक्षित दलित पिछड़े नेताओ ने मायावती और बसपा को तौबा करना शुरू कर दिया और अखिलेश के नेतृत्व में नया ठिकाना ढूढ लिया. इन्द्रजीत सरोज, राम प्रसाद चौधरी, दारासिंह चौहान, राम अचल राजभर, लाल जी वर्मा, के के गौतम, मिठाई लाल भारती, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे बसपा में महत्वपूर्ण पदों पर रहे नेताओ ने बसपा छोड सपा का दामन थाम लिया.अंबेडकरवादी नेताओं के साथ, भाजपा राज में दलितों पर हो रहे उत्पीडन और सपा की वोट विस्तार की आवश्यकता ने अखिलेश यादव को लोहिया और अम्बेडकर के अनुयाइयों को एक करने के लिए प्रेरित किया है.
पहले भी प्रयास हुए है: बाबा साहब अम्बेडकर और समाजवाद के पुरोधा डाक्टर राम मनोहर लोहिया दोनों जातिविहीन समाज की स्थापना का सपना रखते थे। 1956 में दोनों के बीच राजनीतिक एकता के लिए प्रयास हुए. डाक्टर लोहिया ने डाक्टर अम्बेडकर को पत्र लिखकर साथ काम करने की इच्छा व्यक्त की जिसका अम्बेडकर ने सकारात्मक जवाब दिया. फिर डाक्टर लोहिया के मित्र/सहयोगी विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने बाबा साहब से मुलाकात की. मुलाकात की पुष्टि करते हुए व उत्साह प्रदर्शित करते हुए बाबा साहब ने डाक्टर लोहिया को खत लिखा और विस्तार से वार्ता के लिए 2 अक्टूबर 1956 को अपने दिल्ली आवास पर आमंत्रित किया था।
बहरहाल वह एकता होती उससे पूर्व देश के उस महान सपूत डाक्टर अम्बेडकर ने दुनियां को अलविदा कह दिया. फिर बाबा साहब के सैद्धांतिक और बौद्धिक विचारों को धरातल पर अमली जामा पहनाने का ईमानदार प्रयास मान्यवर काशीराम ने किया. महाराष्ट्र से भारतीय पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी महासंघ फिर डी एस फोर के बाद 1984 में बहुजन समाज पार्टी गठित कर बहुजनों की एकता और अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले काशीराम को पहली बार 1991 में मुलायम सिंह यादव ने इटावा से चुनाव जितवाकर संसद भेजा यहां उल्लिखित करने योग्य है कि बहुजन आंदोलन महाराष्ट्र में 90 के दशक से दशकों पहले से चल रहा था और काशीराम की जन्म भूमि पंजाब दलितों की आबादी के लिहाज से देश में प्रथम है, में काशीराम के मूवमेंट को वह सफलता नही मिल सकी जो उत्तर प्रदेश में मिली तो इसका श्रेय काफी हद तक मुलायम सिंह यादव को जाता है.
1993 में सपा बसपा ने मिलकर विधान सभा चुनाव लडा व राम मंदिर आंदोलन के शिखर पर होने के बाद भी यह गठबंधन "मिले मुलायम-काशीराम, हवा हो गए जय श्री राम” के नारे के साथ भाजपा को सत्ता से दूर रखने में सफल रहा. किन्तु यह गठजोड भी अधिक समय तक नही चल सका. 23 मई 95 को मुलायम सिंह यादव ने काशीराम से बात करने की कोशिश की ताकि बसपा की शिकायतों का हल निकाला जा सके मगर काशीराम ने बात करने से मना कर दिया . भाजपा के सहयोग से मायावती के मुख्यमंत्री बनने का आश्वासन मिलने के बाद 1 जून 1995 को बसपा ने मुलायम सिंह यादव सरकार से समर्थन वापस ले लिया और फिर दो जून 95 को गेस्ट हाउस कांड ने न केवल दोनो दलों के बीच कटुता पैदा की वरन दलित पिछड़ों की एकता को भी तोड़ दिया.
दलितों में बैचेनी है
वर्तमान यूपी सरकार के समय सब्बीरपुर सहारनपुर से दलितों के दमन का सिलसिला सीतापुर, लखीमपुर, रायबरेली आजमगढ और हाथरस होते हुए रुकने का नाम नही ले रहा . हाथरस की पीडिता के घर वाले डरे हुए है. दलित उत्पीड़न अधिनियम में संसोधन के विरोध में हुए प्रदर्शन में शामिल होने के आरोप में सैकड़ो युवाओं का उत्पीड़न पुलिस द्वारा किया गया व पहले से प्राप्त आरक्षण की अनदेखी कर दलितो को संविधान में मिले अधिकार से भी बंचित कर दिया गयाहै. मायावती जी के भाजपा प्रेम से दलितों के अन्दर बैचेनी है जिसका लाभ सपा ले सकती है और दलितों को आवाज मिल सकती है.
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